मुजफ्फरनगर में हुई किसान महापंचायत में घोषित मिशन यूपी के क्या मायने हैं? क्या किसान आंदोलन अब राजनीतिक हो गया है? क्या आंदोलन का राजनीतिक होना गुनाह है? किसान आंदोलन के राजनीतिक एजेंडे का यूपी की चुनावी राजनीति पर क्या प्रभाव होगा?
पहली बात तो यह है कि किसान आंदोलन का राजनीतिक होना न तो गुनाह है और न ही दिशाहीन होने का सूचक है। किसानों पर लादे जा रहे तीन काले क़ानून नरेंद्र मोदी सरकार की कारपोरेट परस्त राजनीति के कारण वजूद में आए हैं। इस राजनीति का जवाब 'विलोम' की राजनीति है, यानी जनता की राजनीति। दूसरी बात कोई भी आंदोलन ग़ैर राजनीतिक नहीं होता। तमाम आंदोलन राजनीतिक व्यवस्था को बदलने और बनाने के लिए होते हैं। इसलिए लोकतंत्र में ऐसे आंदोलनों का होना ज़रूरी है।
मुजफ्फरनगर की महापंचायत का ऐतिहासिक महत्व है। इसमें किसान आंदोलन की किसी भी पंचायत से बढ़कर पाँच लाख से ज़्यादा किसानों ने शिरकत की। मंच पर 36 बिरादरियों के नेताओं से लेकर गुलाम मोहम्मद जौला जैसे बुजुर्ग किसान नेता मौजूद थे। नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री और मशहूर एक्टिविस्ट मेधा पाटकर से लेकर योगेंद्र यादव ने इस महापंचायत को संबोधित किया। ग़ैर हिंदी भाषी क्षेत्रों से पहुँचे किसान नेताओं के भाषणों को हिंदी में सुनाया गया।
ग़ौरतलब है कि किसान नेताओं ने मोदी और योगी को चुनौती देते हुए आने वाले चुनावों में बीजेपी को सबक़ सिखाने का ऐलान किया। मेधा पाटकर ने कहा, 'उन्होंने नोटबंदी की थी, हम वोट बंदी करेंगे!' योगेंद्र यादव ने भी चुनाव में बीजेपी को हराने का ऐलान किया। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि 2013 के सांप्रदायिक दंगों की इस धरती पर सबने एक स्वर में हिंदू मुस्लिम एकता की मुनादी की। योगेंद्र यादव ने नारा दिया, 'तुम तोड़ोगे, हम जोड़ेंगे।' राकेश टिकैत ने एक कदम आगे बढ़कर 'अल्लाह हू अकबर, हर हर महादेव' का नारा लगाया। पंजाब के सिख किसान नेताओं ने 'जो बोले सो निहाल!' जैसे क्रांतिकारी नारे लगाए।
इन नारों का महत्व सिर्फ़ तात्कालिक नहीं है, और न ही इन्हें केवल किसान आंदोलन के दायरे में देखा जाना चाहिए। वास्तव में, ये नारे बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति के सामने बहुलतावादी भारत की सांस्कृतिक एकजुटता की भावना को मज़बूत करते हैं। बीजेपी की राजनीति का मूल चरित्र सांप्रदायिकता और जातिगत विभाजन करना है।
हिंदू-मुसलिम-सिख एकता का मतलब, पार्टी के स्तर पर ही नहीं बल्कि विचार के स्तर पर भी बीजेपी की पराजय है। इसलिए किसान आंदोलन और महापंचायत के एलानिया-जंग में बीजेपी और संघ की पराजय को साफ़-साफ़ पढ़ा जा सकता है।
इस संदर्भ में यह भी कहना ज़रूरी है कि किसान आंदोलन का दीर्घजीवी और व्यापक होना, आरएसएस के सौ साल की मेहनत को मिट्टी में मिला देगा। एक पार्टी के रूप में बीजेपी की हार से ज़्यादा मानीखेज विचार की पराजय होगी। किसान आंदोलन बहुल सांस्कृतिक एकजुटता और समावेशी राष्ट्रवाद की नींव को पुख्ता कर रहा है। महापंचायत में अंबानी-अडानी से याराना रखने वाली मोदी सरकार को बेदखल करने का एलान इसके स्वरूप को जनपक्षधर बनाता है।
मुजफ्फरनगर में किसानों ने मिशन यूपी के राजनीतिक एजेंडे का खुला ऐलान किया। जिस तरह पश्चिम बंगाल के चुनाव में किसान नेताओं ने विभिन्न स्थानों पर सभाएँ करके बीजेपी को हराने का आह्वान किया था, उसी तरह संयुक्त किसान मोर्चा यूपी में बीजेपी को हराने के लिए कमर कसकर मैदान में आ गया है। इसके लिए पूरा कार्यक्रम तय किया गया है। यूपी के 18 मंडलों में महापंचायतें होंगी। हरियाणा, पंजाब की तर्ज पर यूपी के प्रत्येक ज़िले में बीजेपी नेताओं का सामाजिक बहिष्कार किया जाएगा। जाहिर है कि किसान आंदोलन के इन कार्यक्रमों का बीजेपी सरकार पर गहरा असर होगा।
दरअसल, पिछले 7 साल की मोदी सरकार और साढ़े 4 साल की योगी सरकार के प्रति लोगों में आक्रोश है। मोदी सरकार की, खासकर आर्थिक नीतियों के कारण बढ़ती बेरोज़गारी और महंगाई के कारण किसान, नौजवान, मज़दूर और मध्यवर्ग यानी समाज का सबसे बड़ा तबका बेहद परेशान है। कोरोना आपदा की बदइंतजामी और लाखों मौतों के कारण यूपी की जनता योगी सरकार से बहुत नाराज़ है। लेकिन बीजेपी-संघ के सांप्रदायिक और जातिगत विभाजन के एजेंडे तथा मीडिया द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों के ज़रिए लोगों की आँखों में उग्र हिंदुत्व की इमेज झोंकी जा रही है। जन सरोकार से जुड़े मुद्दे मीडिया विमर्श से बाहर हैं। इसलिए यूपी में योगी सरकार की विफलता के बावजूद बीजेपी के ख़िलाफ़ आवाज़ मज़बूत नहीं हो रही है। मीडिया में निरंतर कमजोर विपक्ष का नैरेटिव चलाया जा रहा है। इस नैरेटिव के ज़रिए लोगों को विकल्पहीन बनाकर बीजेपी को ही चुनने की कवायद की जा रही है।
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