(...गतांक से आगे)
‘इमरजेंसी को भारत एक ऐसे भयावह काल की तरह याद रखता है जिसने सभी संस्थाओं को विकृत करके भय के वातावरण का निर्माण किया था। न सिर्फ़ लोगों को, बल्कि विचार और कलात्मक स्वातंत्र्य को भी सत्तागत राजनीति ने बंधक बना दिया था।’ यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ट्विटर हैंडल पर दिया वह वक्तव्य है जो उन्होंने 25 जून 2021 को ट्वीट किया। सवाल यह उठता है कि क्या मोदी, भाजपा या 'संघ' परिवार को सचमुच लोगों और उनके विचार और कलात्मक चेतना के स्वतंत्र्य की फ़िक्र है? है तो कितनी?
आपातकाल की 46वीं सालगिरह के मौक़े पर प्रख्यात कार्टूनिट मंजुल ने अपने 2 फ्रेम वाले एक कार्टून को सोशल मीडिया पर जारी किया है। इस के पहले फ्रेम में दीवार पर इंदिरा गाँधी की सन 1975 की तस्वीर टंगी है। इसी फ्रेम में नीचे की तरफ मुंह पर बंधी पट्टी के साथ 'प्रेस' (रुपी इंसान) खड़ा है। कार्टून के दूसरे फ्रेम में दीवार पर नरेंद्र मोदी की सन 2021 की तस्वीर टंगी है और इसी फ्रेम में नीचे की तरफ़ आँखों पर बंधी पट्टी के साथ 'मीडिया' (रुपी इंसान) खड़ा है। मंजुल हर पीएम के कटु आलोचक कार्टूनिस्ट के रूप में विख्यात रहे हैं। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह, उनके कार्टूनों को देख कर मुस्करा कर आगे बढ़ जाते रहे हैं। मोदी को वह मंज़ूर नहीं। हाल ही में 'नेटवर्क 18' ने एक कार्टून पर पीएमओ की कड़ी प्रतिक्रिया के बाद 24 घंटे के भीतर उक्त टीवी चैनल ने उनका सालाना कॉन्ट्रैक्ट रद्द कर दिया।
सीएए और किसान आंदोलनों के दौरान जिस तरह देश के अलग-अलग कोनों से लेखक, चित्रकार, संगीतकार, नाटककार, फ़िल्म जगत के अभिनेता और रचनाकार बड़ी संख्या में बीजेपी सरकार के विरुद्ध और आंदोलन के पक्ष में सड़कों पर उतरे, वह आज़ादी के बाद जेपी मूवमेंट में उनके बड़े पैमाने पर शामिल होने के इतिहास की पुनर्रचना सरीखा था। बड़े पैमाने पर इन साहित्यकारों और कलाकारों को जहाँ-जहाँ संभव हुआ, नज़रबंद किया गया, गिरफ्तार किया गया और अनेक जगहों पर तो उनके विरुद्ध देश द्रोहिता सम्बन्धी धाराओं में भी निरुद्धि की गयी।
कोविड 19 की दूसरी लहर में यद्यपि विभिन्न भाषाओं के बहुत से लेखकों और रचनाधर्मियों को बचाया नहीं जा सका लेकिन तब भी सरकार के निर्मम प्रबंधन, बेड, दवाओं और ऑक्सीजन के संकट के ख़िलाफ़ जूझती मानवीयता और आम जनता के पक्ष में खड़े इन लाखों रचनाकारों की आवाज़ों को सारे देश ने सुना। अरुन्धती रॉय के इस कथन की गूँज सारी दुनिया ने सुनी: ‘हम सब मानवीयता के विरुद्ध छेड़े गए घनघोर अपराध के साक्षी हैं।’
'आरएसएस' की परंपरा में कला और चित्रकला के निर्माण और विकास का कोई एजेंडा नहीं है। उनके यहाँ हिंदू देवी-देवताओं को छोड़कर शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई जैसे गिने चुने राष्ट्रीय प्रतिभाओं की तस्वीरें टांगने भर का चलन है।
इन चुनिन्दा हस्तियों के अलावा वे अन्य किसी हस्ती के चित्रांकन को प्रमोट नहीं करते। अपने स्वयंसेवकों के बीच स्वतंत्र चित्रकला या कला की चेतना और परिकल्पना के विकसित होने के वे सख़्त विरोधी हैं। अटलबिहारी वाजपेयी जैसे गिने-चुने अपवादों को छोड़ दें तो 'संघ' परिवार में कला की चाहना की कोई परंपरा नहीं रही है।
अक्टूबर 2001 में, गुजरात का मुख्यमंत्री पद सँभालने से लेकर प्रधानमंत्री के 7 सालों में, नरेंद्र मोदी को कला अथवा चित्रकला के किसी कार्यक्रम या समारोह में शामिल होते नहीं देखा गया और न ही उन्होंने मीडिया में इसकी प्रशंसा/ समालोचना पर कभी 2 शब्द ही बोले।
2018 में कर्नाटक की चुनाव रैली के दौरन पहली बार मोदी ने मैसूर के एक 'संघ' समर्थक चित्रकार करण आचार्य द्वारा निर्मित हनुमान की एक पेंटिंग की प्रशंसा की। यह पेंटिंग वानर देवता की अब तक की उन अन्य अनुकृतियों से बिलकुल अलग थी जिसमें वह युगों-युगों से विनम्र, भक्तवत्सल और सेवाभावी रूप में दिखते आए हैं। करण आचार्य की इस तस्वीर में गेरुआ और काले रंगों के संयोजन में आलोकित हनुमान रौद्र रूप में दर्शाये गए हैं। यद्यपि करण अपने हनुमान के 'एंग्री मेन' स्वरूप से इंकार करते हैं।
माना जाता है कि युवा बजरंग बली भाजपा और 'संघ' परिवार के 'यूथ एजेंडे’ की प्रतिमूर्ति हैं और अपने 'बजरंग दल' की फ़ौजों में ये दोनों ही संगठन जिस भारतीय युवा की प्रतिछाया की कल्पना करते हैं, उनका ग़ुस्सैल और हिंसक होना हर हाल में आवश्यक है। प्रधानमंत्री के प्रशंसकों का कहना है कि मोदी को हनुमान का यही रौद्र रूप भा गया। वह राम के बाक़ी भक्तों को भी इसी प्रकार के रौद्र रूप में देखे जाने की अभिलाषा रखते हैं। बस फिर क्या था, मोदी की प्रशंसा का सर्टिफिकेट मिलते ही 'संघ' परिवार की प्रचार फ़ौज ने इसकी करोड़ों-करोड़ प्रतियों को देश के कोने-कोने तक पहुंचा दिया। टी शर्ट से लेकर मोटर बाइक, कार, बस और सड़कों की दीवारें- ग़ुस्सेवाले हनुमान की तस्वीरों से पाट दी गईं।
इंदिरा गाँधी और उनकी सरकारी मशीनरी द्वारा किये गए लोकतंत्र के अपहरण पर 46 साल बाद मोदी और उनकी पार्टी के अफ़सोस जताने की प्रक्रिया को लोग तब गंभीरता से लेते जब उनकी सरकार लोकतंत्र के प्रति संवेदनशील और समर्पित होती। जिस तरह से दिल्ली और भाजपा शासित राज्यों में अपराधों की लीपापोती की कोशिशें हुई हैं और उनके विरुद्ध आवाज़ उठाने वालों को सींखचों के पार धकेल दिया गया है, उसके वैसे तो अनेक क्रूर उदाहरण हैं लेकिन सबसे संवेदनशील मलयाली पत्रकार सिद्दीक कप्पन, उनकी टैक्सी का ड्राइवर और यूपी के 2 सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो विगत 5 अक्टूबर से मथुरा जेल में यूएपीए की धाराओं में निरुद्ध कर दिए गए हैं।
हाथरस (थाना चंदपा) में हुए दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार, जिसमें उसकी मौत हो गयी थी, उसकी पड़ताल के लिए हाथरस जाते समय इस मलयाली पत्रकार और उसके साथियों को बीच रास्ते मथुरा के मांट में ही रोक कर गिरफ्तार कर लिया गया था।
इस मामले का सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि पुलिस और सरकार ने पहले 2 अलग-अलग ज़िलों के अलग-अलग मामलों में इन चारों को अभियुक्त बनाया लेकिन जब अभियोजन को अपनी बनायी कहानी के अंतर्विरोध की वजह से अदालत में मामले के पैर उखड़ते दिखे तो एक मामले (थाना चंदपा) को पुलिस ने स्वयं वापस ले लिया।
थाना चंदपा के केस में न किसी पत्रकार को गिरफ्तार किया गया, न किसी नेता, टीवी एंकर या सोशल मीडिया यूजर को। अक्टूबर 19 को कप्पन और उनके साथ गिरफ्तार लोगों को थाना चंदपा की नम्बर 151/20 में भी कस्टडी में ले लिया गया और सीजेएम हाथरस ने अपना अधिकार क्षेत्र न होते हुए और कथित अभियुक्तों के वकील द्वारा आपत्ति दर्ज किये जाने के बावजूद चारों को अभिरक्षा में लिया। इस तरह कप्पन सहित ये चार लोग मथुरा और हाथरस के तीन मामलों में हिरासत में हो गए। चंदपा के इस केस में भी यूएपीए की धाराएँ बढ़ा दी गईं। इस केस में ये लोग जनवरी 2021 तक हिरासत में रहे। जब यह आपत्ति की गई कि इस केस की एफ़आईआर के किसी भी आक्षेप से इन लोगों को लिंक नहीं किया गया है और तथ्यों के जिस संकलन पर उन्हें मांट थाना मथुरा के केस में रखा गया है उसी के आधार पर चंदपा हाथरस के केस में हिरासत में है तो आनन फानन में राज्य सरकार ने एक आदेश पारित करके चंदपा थाना (जिला हाथरस) की एफआईआर नम्बर 151/20 की विवेचना को मांट थाना मथुरा की एफ़आईआर नम्बर 199/20 की विवेचना में समाहित कर दिया और सीजेएम हाथरस से अनुरोध किया कि चंदपा के केस से उनकी अभिरक्षा समाप्त कर दी जाए। इस तरह वे चारों चंदपा केस से रिहा कर दिये गए।
अभियुक्तों की ओर से पैरवी कर रहे वरिष्ठ एडवोकेट मधुवनदत्त चतुर्वेदी इस पूरे मामले को उच्च न्यायलय में ले जाने की तैयारी कर रहे हैं। 'सत्यहिंदी' से बातचीत में वह कहते हैं कि “थाना चंदपा के इस केस की प्रकृति और प्रक्रिया को तथा उस केस के पीछे सरकार की मंशा की पड़ताल ज़रूरी है। इस केस में जिस नेता, पत्रकार, टीवी एंकर और सोशल मीडिया यूज़र्स का ज़िक्र इस तरह किया गया था गोया पुलिस को उनकी पूरी पहचान है। उनमें से किसी को न तो गिरफ्तार किया गया और न ही किसी व्यक्ति के विरुद्ध आरोप पत्र दिया गया। उनमें से किसी को नामित क्यों नहीं किया गया जबकि एफ़आईआर के अनुसार सब कुछ पुलिस जानती थी? बतौर एफआईआर, यूपी पुलिस की जांच और डॉक्टरी परीक्षण से बलात्कार की पुष्टि न होने पर भी ये लोग सरकार को बदनाम कर रहे थे। वे यदि राजद्रोह के अपराधी थे तो बाद में सीबीआई ने गैंगरेप और मर्डर के उस मामले में रेप होना मानकर चार्जशीट कैसे दाखिल कर ली? सीबीआई ने यदि अभियुक्त दूसरों को माना तो स्थानीय पुलिस के विरुद्ध कृत्रिम एफआईआर गढ़ने के आरोप में मुक़दमा क्यों नहीं दर्ज किया गया?"
चतुर्वेदी के अनुसार "यूपी पुलिस चंदपा थाने की एफआईआर (नम्बर 151/20) के ज़रिये 'पब्लिक एट लार्ज' को यह धमकी दे रही थी कि जो भी हाथरस पीड़िता के साथ बलात्कार की बात कहेगा वह राजद्रोह के केस में जेल भेज दिया जाएगा? यूपी पुलिस ने इस एफआईआर के जरिये उस स्थानीय पत्रकार को, स्थानीय नेता को, टीवी एंकर को और तमाम सोशल मीडिया यूजर्स को डरा कर चुप कराया या उनसे डर दिखा कर अवैध वसूली की यह स्पष्ट नहीं है। लेकिन यह स्पष्ट है, 4 अक्टूबर 2020 की इस एफआईआर का आतंक इस कदर था कि सरकार के विरोध में जनता के स्वर दब गए। मुख्यधारा मीडिया विदेशी फंडिंग से जातीय हिंसा के नैरेटिव को प्रचारित करने में जुट गया और पीएफआई-सीएफआई के सदस्य के तौर पर पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन, ड्राइवर आलम तथा सामाजिक कार्यकर्ता अतीकुर्ररहमान एवं मसूद अहमद को ऐसे प्रचारित किया। सिद्दीक़ कप्पन और बाकी तीन जब 5 अक्टूबर 2020 को पहली बार दिल्ली से हाथरस जाते पकड़े गए हैं तो 4 अक्टूबर 2020 को चंदपा थाने की एफआईआर 151/20 से उन्हें कैसे जोड़ा जा सकता है जिसके किसी भी कथन से उनको लिंक नहीं किया गया है?
भारत के क़ानूनी इतिहास में चंदपा थाने की एफआईआर नम्बर 151/20 राजद्रोह की धारा 124-ए आईपीसी के साथ एक धूमकेतु की तरह अवतरित हुई और अक्टूबर 2020 से जनवरी 2021 तक पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन, ड्राइवर आलम, सामाजिक कार्यकर्ता अतीकुर्रहमान और मसूद अहमद को शारीरिक मानसिक यातनाओं के साथ सरकार जनित उस कहानी को प्रसारित करते हुए कि इस्लामिक फंडामेंटलिस्ट्स द्वारा विदेशी फंडिंग से जातीय हिंसा की बड़ी साज़िश है, कहीं गुम हो गयी। कोई स्थानीय पत्रकार, नेता, टीवी एंकर या सोशल मीडिया यूजर्स में से कोई सामने नहीं लाया जा सका। इस एफआईआर के बाद हाथरस गैंग रेप और मर्डर के मामले पर जनता के विरोध की ख़बरें क्यों ग़ायब हुईं, ये अध्ययन का विषय है।
आठ महीने से ज़्यादा समय से सिद्दीक़ कप्पन और बाक़ी 3 लोग जेल की हवा खा रहे हैं। उनकी ज़मानत की याचिका अभी भी उच्च न्यायलय में विचारार्थ है। तब फिर कैसे मान लिया जाए कि लोकतंत्र महफूज़ है?
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