प्रख्यात समाजशास्त्री आशीष नंदी ने अपने एक लेख (गॉड्स एंड गॉडसेस इन साउथ एशिया) में एक दिलचस्प जानकारी है। उन्होंने लिखा है कि जब महात्मा गाँधी एक बार राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की ‘शाखा’ देखने गये तो वहाँ महाराणा प्रताप और शिवाजी जैसे वीरों की तस्वीरें थीं लेकिन राम की नहीं। गांधीजी ने स्वाभाविक रूप से पूछा, 'आपने राम का चित्र भी क्यों नहीं लगाया?' एक आरएसएस प्रतिनिधि ने उन्हें जवाब दिया, “नहीं, हम ऐसा नहीं कर सकते। राम हमारे उद्देश्य की पूर्ति के लिए बहुत ही ‘स्त्रैण’ हैं!”
अयोध्या: त्याग के प्रतीक राम की छवि बदलकर सत्ता तक पहुँची बीजेपी
- विचार
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- 4 Jan, 2024

राम मंदिर के नाम पर बीजेपी भारत की केंद्रीय सत्ता पर काबिज हो चुकी है। लेकिन क्या आपको पता है कि शुरुआत में आरएसएस का राम मंदिर को लेकर क्या रुख था? क्या उसे भगवान राम की छवि स्वीकार्य है? अब राम मंदिर ही उसका मुख्य मुद्दा क्यों है?
सीता, लक्ष्मण और हनुमान के साथ हल्की मुस्कान के साथ अभयमुद्रा वाली जो छवि सदियों से भक्तों के चित्त को शांति देती थी, वह आरएसएस के लिए किसी काम की नहीं थी। विडंबना है कि आरएसएस ने बाद में राम को ही अपने उद्देश्यों की पूर्ति का ज़रिया बनाया। इसके लिए उसने स्वयं को नहीं, राम को ही बदल दिया। जो समाज सीता के बिना राम की कल्पना नहीं कर सकता था और ‘सियाराम मय सब जग जानी’ में डूबता-उतराता था उसने पोस्टरों में क्रोधित नज़र आने वाले ऐसे धनुषटंकार करते श्रीराम के दर्शन किये जिसमें ‘स्त्रैणता’ की कोई छाया नहीं थी। कोमल संवेदनाओं की प्रतीक रहीं सीता की इस पोस्टर में कोई जगह नहीं थी। बिना किसी भेद के हाथ जोड़कर ‘जय सीताराम’ कहकर अभिवादन करने वाले समाज ने मुट्ठी तानकर उग्र स्वरों में ‘जय श्रीराम’ का घोष सुना।