जिन दिनों एक अमेरिकी डॉलर की क़ीमत 82 भारतीय रुपये के पार हो रही है, प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन विवेक देबरॉय कोई नया आर्थिक सिद्धांत प्रस्तावित करने के बजाय भारतीय संविधान को बदलने का जंतर बाँट रहे हैं। पिछले दिनों एक अख़बार में लेख लिखकर उन्होंने संविधान को पूरी तरह बदल डालने का आह्वान किया है। यूँ संविधान में संशोधन की व्यवस्था है, लेकिन उनकी नज़र में ये सब नाक़ाफ़ी हो चुका है। इससे पहले राज्यसभा में नामित किये गये सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई बुनियादी ढाँचे को अपरिवर्तनीय बताने के संविधान पीठ के फ़ैसले पर सवाल उठा चुके हैं। यही नहीं, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस रोक को लोकतंत्र के विरुद्ध बताकर एक नयी बहस छेड़ दी है।
प्रधानमंत्री बतौर नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल का यह लगभग अंतिम चरण है और ऐसा लगता है कि वे 2024 लोकसभा चुनाव के पहले कोई बड़ा धमाका करना चाहते हैं। ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई और नफ़रती हिंसा से जुड़ी चीखों को ‘म्यूट’ करने के लिए बड़ा धमाका हरदम ही उनकी राजनीतिक शैली का हिस्सा रहा है। संविधान बदलना ऐसा ही एक धमाका हो सकता है जिसके लिए पलीता तैयार किया जा रहा है। ‘हिंदू राष्ट्र’ का लक्ष्य लेकर चल रहा आरएसएस न जाने कब से ऐसे किसी पलीते में आग लगाने की तैयारी कर रहा है। संविधान लागू होने के साथ ही उसने इसे पूरी तरह ‘अभारतीय’ बताते हुए विरोध का जो सिलसिला शुरू किया था, वह गठबंधन की मजबूरियों से बँधे अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में ‘संविधान समीक्षा आयोग’ के गठन तक ही पहुँच पाया था। पर मोदी के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं है।
मजबूरी है तो बस संविधान सभा का वो फ़ैसला जिसके तहत बुनियादी ढाँचे में परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। ऐसे में यह देखना ज़रूरी है कि मौजूदा संविधान के ‘मूल ढाँचे’ में ऐसा क्या है जिसे सरकार से जुड़े लोग अपनी राह का रोड़ा मानते हैं? 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार के मामले में फ़ैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान के मूल ढाँचे में परिवर्तन नहीं हो सकता है। मूल ढाँचे के तत्वों को उसने आने वाले दिनों के तमाम फ़ैसलों में स्पष्ट किया। आज मूल ढाँचे में मौलिक अधिकारों के अलावा संविधान की सर्वोच्चता, कानून का शासन, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, पृथक शक्तियों का सिद्धांत, संघवाद, धर्मनिरपेक्षता, संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य, सरकार की संसदीय प्रणाली, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव और कल्याणकारी राज्य संबंधी सिद्धांतों को रखा जाता है।
विवेक देबरॉय सरीखे लोगों की नज़र में ये सब सरकार की कामकाज में बाधा की तरह हैं। प्रधानमंत्री मोदी न राज्यों की स्वायत्तता को प्रमुख मानने वाली संघीय मर्यादा से बँधना चाहते हैं और न सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता से। मुख्य चुनाव आयुक्त के चुनाव की प्रक्रिया से मुख्य न्यायाधीश को बाहर करने के लिए लाया गया क़ानून बताता है कि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव पर उठने वाले सवालों की उन्हें कोई परवाह नहीं है। न ही उन्हें इस बात की परवाह है कि दुनिया उन्हें ‘निर्वाचित तानाशाह’ और भारत को आंशिक लोकतंत्र वाले देशों की सूची में डाल रही है। धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद तो खुले रूप से आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों के निशाने पर रहे हैं।
संविधान निर्माताओं ने नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने और उसे प्रचारित करने के लिए संस्थाएँ बनाने का अधिकार दिया। यानी आरोपों से उलट धर्मनिरपेक्षता पहले दिन से संविधान का हिस्सा थी जैसे कि समता के सिद्धांत के तहत समाजवाद की व्याख्या हो सकती है।
ग़ौर करने की बात है कि विवेक देबरॉय के लेख से खुद को अलग करने वाली सरकार या बीजेपी ने ‘हिंदू राष्ट्र’ और उसके संविधान की रूपरेखा तैयार करने वालों के ख़िलाफ़ कभी एक शब्द भी नहीं बोला। उल्टा कहीं न कहीं, ऐसा करने वालों के समर्थन और संरक्षण का प्रयास दिखता है। साथ ही, विनायक दामोदर सावरकर को राष्ट्रीय हीरो बनाकर पेश करने का अथक प्रयास हो रहा है जिन्होंने उसी ‘मनुस्मृति’ को हिंदू लॉ बताया था जिसे डॉ. आंबेडकर ने सार्वजनिक रूप से जलाया था। ऐसे में पूछा जाना चाहिए कि मौजूदा संविधान से विरोध की वजह दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों को इस संविधान की वजह से मिली तरक्की तो नहीं है? इसमें क्या शक़ कि इसी संविधान से मिले आरक्षण ने दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय के करोड़ों लोगों को मध्यवर्ग के रूप में विकसित किया है जो मनुस्मृति की मूल भावना पर चोट पहुँचाने वाला है।
यह भी ग़ौर करने की बात है कि विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की ओर से जैसे-जैसे जाति जनगणना की माँग तेज़ हो रही है, वैसे-वैसे ‘हिंदू राष्ट्र’ को लेकर होने वाले विमर्श में तेज़ी आ रही है। यह जातिप्रथा के ज़रिये हुई सदियों की लूट को लेकर उठ रहे सवालों को धर्म के चादर से ढँकने की कोशिश है। लोग यह सवाल करने लायक़ बन सकें, इसमें मौजूदा संविधान की बड़ी भूमिका है। सच तो यह है कि मौजूदा भारत अगर राष्ट्र के रूप में संगठित हो सका है तो उसके मूल में भी यही संविधान है। यह एक ऐसा समझौता-पत्र है जिसने धार्मिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधिताओं में लगभग उलट स्थितियों में रहने वाले समुदायों को भी ‘भारतीय’ के रूप में जोड़ा है। इस संविधान को बदलने का मतलब इस जोड़ को कमज़ोर करना है। ऐसा कोई भी प्रयास भारत के ख़िलाफ़ युद्ध का ऐलान माना जाना चाहिए।
सरदार पटेल ने आरएसएस के हिंदू राष्ट्र के विचार को ‘पागलपन’ बताया था और डॉ. आंबेडकर ने हिंदू राष्ट्र को भारी विपत्ति बताते हुए कहा था कि “हिंदुत्व स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के लिए एक ख़तरा है। इस आधार पर लोकतंत्र के लिए अनुपयुक्त है। हिंदू राज को हर क़ीमत पर रोका जाना चाहिए।”
बहुमत के अहंकार में डूबी सरकार इस विपत्ति को बुलावा दे रही है ताकि उसकी तमाम असफलताओं को ढँका जा सके। हर भारतीय की ज़िम्मेदारी है कि ‘भारत’ को इस विपत्ति से बचाने के लिए कमर कस ले। भारत का तभी तक ‘भारत’ बने रहना संभव है जब तक कि इसका मूल ढाँचा बरक़रार है।
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