कुछ दिन पहले रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘बवाल’ में एक डायलॉग है- “माहौल ऐसा बनाओ कि लोग रिज़ल्ट भूल जायें!” यानी ऐसा धमाका करो कि लोगों की आँख में धूल भर जाये और वे हक़ीक़त न देख पायें। इम्तहान में फ़ेल हो जाओ तो मुहल्ले भर में मिठाई बाँट दो ताकि लोगों को लगे कि अच्छे नंबरों से पास हुए। या परीक्षा प्रणाली पर सेमिनार आयोजित करा दो। अचानक पैदा हुई ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ की बहस कुछ ऐसा ही प्रयास है।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर साढ़े नौ साल के शासन के बाद मोदी सरकार के अंकपत्र की सूरत कुछ यूँ है- डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत 108वें नंबर पर, भुखमरी इंडेक्स में 107वें नंबर पर, प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 161वें नंबर पर, प्रति व्यक्ति आय में 128वें स्थान पर, मुद्रा की मज़बूती के लिहाज़ से 40वें स्थान और लैंगिक असमानता में 127वें स्थान पर है। ये वो हक़ीक़त है जो पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को लेकर बजाये जा रहे ढोल की पोल खोलती है। अर्थव्यवस्था के इस ‘वॉल्यूम’ के पीछे भारत की विशाल आबादी है जो भीषण असमानता का शिकार है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि देश के एक फ़ीसदी लोगों का देश की 40 फ़ीसदी संपत्ति पर क़ब्ज़ा है। वहीं 50 फ़ीसदी आबादी महज़ तीन फ़ीसदी संपत्ति के आसरे है। बेरोज़गारी 7.95 फ़ीसदी के हाहाकारी दर पर है तो तेज़ी से बढ़ी महँगाई लोगों के लिए कोढ़ में खाज की तरह है।
ज़ाहिर है, हर साल दो करोड़ रोज़गार देने और 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने जैसे तमाम वायदों की कसौटी पर अगले चुनाव में मोदी सरकार को कसा जाना है। विपक्ष के इंडिया गठबंधन के बढ़ते क़दम और साख ने भी सरकार को काफ़ी बेचैन कर दिया है। अडानी और मोदी के रिश्तों में छिपे भ्रष्टाचार को उजागर करने में जुटे कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी का यह बयान उसे ख़ासतौर पर परेशान कर रहा है कि इंडिया गठबंधन देश के 60 फ़ीसदी मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करता है। इसीलिए प्रश्नकाल और शून्यकाल विहीन संसद का विशेष सत्र बुलाने का ऐलान करके सुर्खियाँ चुराने की कोशिश की गयी और कथित मुख्यधारा का मीडिया ‘वन नेशन-वन बिज़नेसमैन’ के घपले पर ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ की चादर बिछाकर बैठ गया।
देश में एक साथ चुनाव हों, इस पर सैद्धांतिक रूप से किस को आपत्ति हो सकती है? लेकिन देश के संवैधानिक भविष्य पर दो साल 11 महीने और 17 दिन चर्चा करने वाली संविधान सभा ने उस सूरत की भी कल्पना कर ली थी जब कोई सरकार सासंदों या विधायकों के बहुमत का समर्थन खो दे। ऐसे में जनता को जनार्दन मानकर दोबारा जनादेश लेने की व्यवस्था की गयी। लोकसभा या विधानसभा के कार्यकाल को पाँच साल निर्धारित करने का यह मतलब नहीं था कि चुना हुआ दल या व्यक्ति बहुमत के सवालों से परे हो जाये। 1952 से लेकर 1967 तक देश में एक साथ ही लोकसभा और विधानसभा के चुनाव हुए थे। दिक्कत तब आयी जब ‘गैर-कांग्रेसवाद’ के नाम पर एक व्यापक विपक्षी गठबंधन बनाकर कांग्रेस सरकारों को बेदखल करने का प्रयास हुआ और कई राज्यों में संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकारें बनीं जिनमें जनसंघ से लेकर वामपंथी दल तक शामिल थे। विपक्ष को ऐसा करने का अधिकार भी था। संसदीय लोकतंत्र यह अवसर देता है कि किसी ताक़तवर राजनीतिक शक्ति पर अंकुश लगाने के लिए विपक्ष तमाम मतभेद भुलाकर एकजुट हो और बहुमत के खेल में आगे निकल जाये।
सरकार की ओर से जारी अधिसूचना के मुताबिक़ पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद एक देश-एक चुनाव पर विचार करने के लिए घोषित आठ सदस्यीय कमेटी के अध्यक्ष होंगे। ऐसा करके सरकार ने जानबूझकर एक नया विवाद पैदा किया है।
सरकार की ओर से घोषित कमेटी में विपक्ष या न्यायविदों को शामिल करने की कोई इच्छा नज़र नहीं आती। सरकार की मंशा साफ़ होती तो कम से कम सुप्रीम कोर्ट का कोई पूर्व मुख्य न्यायाधीश और पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को ज़रूर शामिल किया गया होता। लोकसभा ही नहीं राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष को भी जगह मिलती। लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने इन सवालों को उठाते हुए कमेटी में शामिल होने से इंकार कर दिया है, जिसके बाद इसमें किसी विपरीत स्वर की कोई गुंजाइश नहीं रह गयी है। कमेटी को सरकार की मंशा पर मुहर भर लगाना है।
सवाल यह भी है कि ‘एक देश-एक चुनाव’ के लिए जिस हद तक संविधान संशोधन की आवश्यकता पड़ेगी क्या वह 2024 से पहले संभव है? क्या इसका असर राज्यों के अधिकार पर नहीं पड़ेगा जिसका संबंध संविधान के बुनियादी ढाँचे से भी है? और 1973 में केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट स्पष्ट कर चुका है कि सरकार क़ानून में तो संशोधन कर सकती है मगर संविधान के बुनियादी ढाँचे को नहीं बदल सकती। वैसे भी चुनाव सुधार सिर्फ़ एक साथ चुनाव कराने की अवधारणा नहीं है। इसमें अवसर की समानता के साथ-साथ आर्थिक शुचिता का भी महत्व है। कौन भूल सकता है कि ‘इलेक्टोरल बॉन्ड’ की व्यवस्था करके बीजेपी सरकार ने ही इस शुचिता को नष्ट किया है। पहले राजनीतिक दलों को चंदा देने वालों का नाम सार्वजनिक करना पड़ता था लेकिन अब बड़े-बड़े कॉरपोरेट अनाम रहकर पैसा दे सकते हैं। ज़ाहिर है, बदले में वे भी कुछ चाहते होंगे। क्या यह संयोग है कि पचास साल से ज़्यादा वक़्त तक सत्ता में रही कांग्रेस के बैंक खाते में महज़ 162 करोड़ रुपये हैं जबकि बीजेपी के साढ़े नौ साल के शासन में ही उसके खाते में लगभग तीन हज़ार करोड़ से ज़्यादा जमा हो गये। बीजेपी ने जिस तरह चुनावों को महँगा किया या फिर ऑपरेशन लोटस के नाम पर सरकारों को तोड़ा-फोड़ा, वह चुनाव सुधार की भावना के पूरी तरह विपरीत है।
बीजेपी को लगता है कि एक साथ चुनाव होने पर विपक्षी गठबंधन में टूट होगी और मोदी के चेहरा केंद्र में आ जायेगा, जिससे उसे फ़ायदा होगा। मौजूदा कार्यक्रम के मुताबिक़ छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना और मिज़ोरम में विधानसभा चुनाव होने हैं जहाँ बीजेपी के लिए बेहद कम गुंजाइश बन रही है। बीजेपी चाहती है कि यहाँ भी चुनाव मोदी जी के नाम पर लड़ा जाये। ज़ाहिर है, उसने चुनाव सुधार से जुड़े एक अहम मुद्दे को चुनावी दाँव में बदल दिया है। प्रधानमंत्री मोदी ने कभी कहा था कि उनके दिमाग़ में ऐसा सॉफ्टवेयर है कि वे छोटा सोच ही नहीं सकते, लेकिन उनका यह दाँव बताता है कि वह सॉफ्टवेयर अब केवल छोटा ही सोच रहा है। वैसे, कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जिस तरह से मोदी जी ने अपनी साख दाँव पर लगाने के बावजूद मुँह की खाई थी, उसके बाद यह कहा जा सकता है कि वह सॉफ्टवेयर अब पूरी तरह आउटडेटेड हो चुका है।
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