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तब्लीग़ पर लगे आरोप झूठे और हास्यप्रद

भारतीय अधिकारियों का एक बड़ा वर्ग और हमारे ज़्यादातर बेशर्म और बिके हुए भारतीय मीडिया गोएबल्स के वफादार शिष्य हैं, जिनके सिद्धांत का वे निष्ठा से पालन करते हैं। ऐसे कई उदाहरण, लुईस कैरोल की 'एलिस इन वंडरलैंड' में मैड हैटर पार्टी की याद दिलाते हैं। यह प्रवृत्ति कहाँ समाप्त होगी, कोई नहीं कह सकता है, लेकिन यह निश्चित रूप से भारतीय लोकतंत्र के लिए भयावह है।
जस्टिस मार्कंडेय काटजू

हिटलर के नात्सी मंत्री गोएबल्स का एक सिद्धांत था 'जितना बड़ा झूठ होगा, वह उतनी ही आसानी से जनता द्वारा निगला जाएगा'। वास्तव में गोएबल्स ने एडोल्फ हिटलर से यह सिद्धांत सीखा था, जिन्होंने अपनी आत्मकथा 'मीन कैम्फ' (Mein Kampf ) में लिखा था कि स्वीकार किए जाने वाले झूठ को इतना बड़ा होना चाहिए कि जनता को विश्वास ही न हो कि किसी के पास ऐसा झूठ कहने का साहस होगा, और यदि यह झूठ बार-बार दोहराया गया तो एक दिन लोग इसे अनिवार्य रूप से सच्चाई के रूप में स्वीकार करेंगे।

भारतीय अधिकारियों का एक बड़ा वर्ग और हमारे ज़्यादातर बेशर्म और बिके हुए भारतीय मीडिया गोएबल्स के वफादार शिष्य हैं, जिनके सिद्धांत का वे निष्ठा से पालन करते हैं। इन बातों पर ज़रा ध्यान दीजिये:

विचार से ख़ास

(1) दिल्ली के तब्लीग़ी जमात मरकज़ के सदस्यों को कई टीवी चैनलों द्वारा कोरोना वायरस के 'सुपर स्प्रेडर्स', 'कोरोना बम', 'कोरोना जिहादियों', आदि के रूप में दर्शाया गया है और इसके नेता मौलाना साद को शैतान के रूप में चित्रित किया गया है। हालाँकि थोड़ा धैर्य और तर्कसंगत विचार-विमर्श के बाद हमें पता चल सकता है कि तब्लीग़ी जमात के लोग तो लॉकडाउन लागू होने से पहले ही वहाँ एकत्रित थे। यह आरोप कि उन्होंने जानबूझकर भारत में कोरोना वायरस फैलाया है, सरासर झूठ और हास्यप्रद प्रतीत होता है। मैंने कई विश्वसनीय लोगों से विस्तृत पूछताछ की और मुझे बताया गया है कि तब्लीग़ी जमात में उच्च चरित्र के लोग हैं। वे डॉक्टरों पर थूकने, अस्पतालों में शौच करने, नर्सों से पहले पैंट उतारने या मूत्र की बोतलें फेंकने जैसी चीजें कभी नहीं करेंगे। इस तरह के अधिकांश आरोप झूठे प्रतीत होते हैं।  

(2.) कई टीवी चैनलों में यह प्रचारित किया गया है कि तब्लीग़ी जमात के सदस्यों ने डॉक्टरों पर छींटाकशी की, अस्पताल के वार्डों में शौच किया, नर्सों के सामने दुर्व्यवहार किया, पेशाब की बोतलें फेंकीं, चिकन बिरयानी आदि की माँग की। ऐसे अधिकांश झूठे और हास्यास्पद आरोप लगाए गए, जो हमारी भोली जनता का एक बड़ा वर्ग निगल गया है (चूँकि एक बड़ा झूठ एक छोटे झूठ की तुलना में आसानी से निगला जाता है)। जबकि तब्लीग़ी जमात के सदस्यों ने ज़रूरतमंद व्यक्तियों के लिए अपने ख़ून के प्लाज्मा का दान किया है, इसे मीडिया द्वारा बहुत कम महत्व दिया गया है।

(3.) जेएनयू के पूर्व छात्र उमर खालिद को एक खलनायक के रूप में चित्रित किया गया है, जिन्होंने अस्त्र-शस्त्र की व्यवस्था की, उत्तेजक भाषण दिए, और हिंदू विरोधी दिल्ली दंगों का आयोजन किया (यहाँ पढ़ें), सभी झूठ और हास्यास्पद आरोप हैं, लेकिन अधिकांश लोग इन आरोपों को सत्य मानते हैं क्योंकि उमर एक मुसलिम हैं (हालाँकि वह नास्तिक होने का दावा करता है)। ऐसे कई और उदाहरण दिए जा सकते हैं। 

आजकल राजनीतिक नेताओं द्वारा अपनाई जाने वाली एक विशिष्ट तकनीक है कि उनकी आलोचना करने वालों को वे 'राष्ट्रविरोधी' कहते हैं और उनके ख़िलाफ़ राष्ट्रद्रोह के आरोप, या एनएसए के तहत मुक़दमा दर्ज कराते हैं।

इस प्रकार 82 वर्षीय कश्मीरी नेता फ़ारूक़ अब्दुल्ला को अगस्त 2019 में कश्मीरी युवाओं को सरकार के ख़िलाफ़ हथियार उठाने और विद्रोह करने के लिए तथा कश्मीर को भारत से अलग करने को लेकर उकसाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। (यहाँ पढ़ें)।

ये बिल्कुल झूठे आरोप थे, क्योंकि फ़ारूक़ को एक भारतीय राष्ट्रवादी के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने जीवन भर कश्मीर के भारत से अलग होने का विरोध किया। उनके बेटे उमर के ख़िलाफ़ और पूर्व सीएम महबूबा मुफ्ती, पूर्व आईएएस अधिकारी शाह फैसल और अन्य कश्मीरी नेताओं के ख़िलाफ़ भी इसी तरह के बेतुके आरोप लगाए गए।

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इसी तरह, भीमा कोरेगाँव के आरोपी और प्रोफ़ेसर साईनाथ के ख़िलाफ़ पूरी तरह से मनगढ़ंत आरोप लगाए गए हैं, जो अभी भी जेल में हैं।

जेएनयूएसयू के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर जेएनयू में एक कार्यक्रम में देश विरोधी नारे लगाने के आरोप लगाए गए हैं, जिसका कोई सबूत नहीं है।

उन्होंने कभी इस तरह के नारे लगाए थे (घटना के कई वीडियो को मॉर्फ किया गया था)। इसके आलावा मेरी राय में ऐसे नारा लगाना भी कोई अपराध नहीं है। (मेरा लेख पढ़ें)।

एक पत्रकार पवन जायसवाल ने रिपोर्ट दी कि मिर्ज़ापुर ज़िले के एक प्राथमिक विद्यालय में मिड दे मील के तहत बच्चों को केवल नमक के साथ रोटी दी जा रही थी तो उनको आपराधिक साज़िश के आरोप में गिरफ्तार किया गया।

ऐसे कई और उदाहरण, लुईस कैरोल की 'एलिस इन वंडरलैंड' में मैड हैटर पार्टी की याद दिलाते हैं।

यह प्रवृत्ति कहाँ समाप्त होगी, कोई नहीं कह सकता है, लेकिन यह निश्चित रूप से भारतीय लोकतंत्र के लिए भयावह है।

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