‘आज की तारीख़ में यह देखकर बहुत अफसोस होता है कि पत्रकारिता की मार्फत जितनी जन-जागरूकता हम लाना चाहते थे, नहीं ला पाये। लेकिन फिर सोचता हूँ कि यह असफलता मेरी अकेले की नहीं, सामूहिक है। इस क्षेत्र में व्यावसायिकता और लाभ का सारी नैतिकताओं से ऊपर होते जाना देखकर भी अफसोस होता है। मेरे देखते ही देखते मूल्य आधारित (वैल्यूवेस्ड) और जनपक्षधर पत्रकारिता की अलख जगाने वाले सम्पादकों की पीढ़ी समाप्ति के कगार पर पहुंच गयी और अपनी निजी उपलब्धियों के लिए चिन्तित रहने वाले लोग चारों ओर छा गये। वे निजी लाभों के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार रहते हैं और सबसे अफसोसजनक यह है कि अब सम्पादक नाम की संस्था ही लुप्त होने के कगार पर है।’