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मुलायम सिंह का सामाजिक न्याय का संघर्ष कैसे याद किया जाएगा?

क़रीब साढ़े तीन दशक देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में राजनीति की धुरी रहते हुए राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित करते रहने वाले 'धरतीपुत्र’ मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन का अवसान तो पांच साल पहले ही हो गया था और अब उनके सांसारिक जीवन का भी अंत हो गया। लंबी बीमारी के बाद उनका निधन वस्तुत: उत्तर प्रदेश की राजनीति के एक युग का समापन भी कहा जा सकता है।

मुलायम सिंह के पांच दशक के सक्रिय और घटनाओं से भरे राजनीतिक जीवन की शुरुआत जितनी चमकदार और धमाकेदार थी, उसका अंत उतना ही दर्दनाक और शर्मनाक हुआ था, जब पांच साल पहले उनके बेटे ने क़रीब तीन महीने तक चले पारिवारिक सत्ता-संघर्ष और नाटकीय घटनाक्रम में उन्हें समाजवादी पार्टी की अध्यक्षता से अपदस्थ कर पार्टी के सारे सूत्र अपने हाथ में ले लिए थे।

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'जिसका जलवा कायम है, उसका नाम मुलायम है’, लगभग ढाई दशक तक उत्तर प्रदेश के हर इलाक़े मे गूंजता रहा यह नारा मुलायम सिंह के राजनीतिक जीवन के संध्याकाल में किसी की जुबान पर नहीं था। उस वक्त तक न तो मुलायम सिंह का जलवा बचा था और न ही उनकी वह 'धर्मनिरपेक्ष धमक’ जिसके चलते उन्होंने देश भर में समान रूप से शोहरत और नफरत बटोरी थी। तीन दशक पहले समाजवादी पार्टी की बुनियाद रखने वाले इस खांटी नेता ने भले ही अपनी मेहनत और हिकमत से उत्तर प्रदेश की राजनीति का व्याकरण बदल कर न सिर्फ बड़े-बड़े सियासी सूरमाओं को चारों खाने चित कर दिया हो बल्कि चार मर्तबा अपनी पार्टी को सत्ता भी दिलाई हो, लेकिन अब हकीकत यह थी कि सूबे की सियासत में मुलायम सिंह की कोई भूमिका नहीं बची थी। किसी से हार न मानने वाले इस नेता को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि जिस बेटे को उन्होंने न सिर्फ सियासत का ककहरा सिखाया बल्कि देश के सबसे बड़े सूबे का सबसे युवा मुख्यमंत्री होने का गौरव दिलाया उसी बेटे के हाथों उन्हें इस तरह शिकस्त खानी पड़ेगी या इस तरह का नाटक रचना पड़ेगा।

मुलायम सिंह अपने जीवन के आख़िरी दौर में निपट अकेले हो गए थे। जिस पार्टी के वे एकछत्र 'नेताजी’ और सर्वेसर्वा होते थे, वह पूरी पार्टी अब अखिलेश यादव के ताबे में थी। दरअसल, मुलायम सिंह की इस स्थिति के लिए कोई और नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ वे खुद जिम्मेदार रहे। उनके राजनीतिक जीवन की शाम में उनके साथ वही सब कुछ हुआ जो जीवन भर वे दूसरों के साथ करते रहे।

इटावा जिले के सैफई गांव में एक किसान परिवार में जन्मे मुलायम सिंह के राजनीतिक जीवन की शुरुआत सोशलिस्ट पार्टी से हुई। पचास के दशक में उत्तर प्रदेश में सिंचाई दरों में असामान्य वृद्धि के ख़िलाफ़ डॉ. राममनोहर लोहिया के आह्वान पर हुए नहर रेट आंदोलन में 17 वर्षीय मुलायम सिंह भी समाजवादी नेता अर्जुनसिंह भदौरिया और नत्थू सिंह के नेतृत्व में जेल गए थे। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य भी किया और फिर 1967 के चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर सबसे कम उम्र के विधायक बनने का गौरव भी हासिल किया। यहाँ से शुरू हुए अपने सत्ता-कामी संसदीय जीवन में मुलायम सिंह ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

मुलायम सिंह लगभग एक दर्जन मर्तबा विधानसभा और विधान परिषद के लिए तथा सात मर्तबा लोकसभा के लिए चुने गए। पहली बार सत्ता का स्वाद उन्होंने 1977 में चखा जब रामनरेश यादव की सरकार में वह मंत्री बने।

उसके बाद तीन बार प्रदेश के मुख्यमंत्री और इतनी ही बार विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे। इसी दौरान उन्होंने दो प्रधानमंत्रियों के साथ रक्षा मंत्री का दायित्व भी संभाला।

मुलायम सिंह भले ही अपने को देश के समाजवादी आंदोलन की विरासत का वाहक मानते रहे हों लेकिन उन्होंने अपने इस दावे को विश्वसनीयता प्रदान करने जैसा कोई काम न तो सत्ता में रहते हुए किया और न ही सत्ता से बाहर रहते हुए। अपने शुरुआती राजनीतिक जीवन और कुछ हद तक पहले मुख्यमंत्रित्वकाल में उन्होंने ज़रूर समाजवादी आदर्शों के प्रति अपने रुझान की थोड़ी सी झलक दिखाई लेकिन जनता दल से अलग होकर अपनी नई समाजवादी पार्टी बनाने के बाद अवसरवाद, परिवारवाद, जातिवाद, भोगवाद और भ्रष्टाचार में रची-बसी उनकी राजनीति में समाजवादी मूल्यों और आदर्शों की कोई जगह नहीं बची।

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अपने पूरे राजनीतिक सफर में मुलायम सिंह ने किसी को भी धोखा देने से परहेज नहीं किया, वह चाहे उनको राजनीति में लाने वाले कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया हों या फिर विश्वनाथ प्रताप सिंह, जॉर्ज फर्नांडीस, कांशीराम, सोनिया गांधी, ममता बनर्जी या अजित सिंह हों। और तो और उन शरद यादव को भी धोखा देने में मुलायम सिंह ने कोई संकोच नहीं किया जिन्होंने 1989 में उन्हें पहली बार मुख्यमंत्री बनवाने में महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका निभाई थी। 

यह उनका अवसरवाद ही था कि जिन शोषित और पिछड़े वर्गों के समर्थन के बूते उनकी महत्वाकांक्षा परवान चढ़ी थी उन्हीं तबक़ों को मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर आरक्षण देने वाली अपनी ही पार्टी की केंद्र सरकार को गिराने के काम में सहभागी बनने में उन्होंने कोई संकोच नहीं किया। इसके पीछे उनका एक ही मक़सद था उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बचाना जो कि भाजपा के बाहरी समर्थन से बनी थी।

अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद को ढहाने के इरादे से जुटे विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं पर गोलीबारी की घटना के बाद बीजेपी ने समर्थन वापस लेकर मुलायम सिंह की सरकार को अल्पमत में ला दिया था।

मुलायम सिंह ने चंद्रशेखर के साथ मिलकर विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिराने में कांग्रेस की मदद की। बाद में कांग्रेस की मदद से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार को भी कांग्रेस ने ही सहारा दिया। हालाँकि यह समर्थन अल्पकालिक ही रहा। कांग्रेस ने जल्द ही चंद्रशेखर और मुलायम सिंह की सरकारों को गिरा दिया।

मुलायम सिंह सत्ता से ज़रूर बाहर हो गए थे लेकिन अयोध्या में बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं पर कराए गए गोली चालन ने उन्हें उत्तर प्रदेश के मुसलमानों का निर्विवाद नेता बना दिया था। पिछड़ी और किसान जातियों के समर्थन के रूप में चौधरी चरण सिंह के लोकदल की विरासत भी एक तरह से उनके ही साथ थी। सत्ता से बाहर होने के थोड़े समय बाद ही उन्होंने चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी से नाता तोड़कर अलग रास्ता पकड़ने का फैसला किया। अक्टूबर, 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन करते हुए मुलायम सिंह ने दावा किया था कि वे इस पार्टी के माध्यम से देश में समाजवादी आंदोलन को पुनर्जीवित करेंगे, लेकिन पार्टी बनाने के बाद उनका हर काम समाजवादी विचारों और आदर्शों के उलट रहा। जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह और कपिलदेव सिंह जैसे जो कुछेक नेता समाजवादी पार्टी में शामिल हुए थे उनकी पार्टी के नीति-निर्धारण में कोई भूमिका नहीं थी। वहां जो मुलायम सिंह कहते थे वही पार्टी की नीति और जो कुछ वे करते थे वही पार्टी की रीति मानी जाती थी। उनके सामने एक ही लक्ष्य था किसी भी तरह सत्ता में वापसी करना।

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मुलायम के नई पार्टी बनाने के दो महीने बाद ही देश के सांप्रदायिक सौहार्द को खंडित करने वाली वह घटना घट गई, जिसे मुलायम ने मुख्यमंत्री रहते नहीं घटने दिया था। अयोध्या में कारसेवा के नाम पर भारी तादाद में जुटे विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया। उस समय सूबे में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार थी, जिसे केंद्र सरकार ने बाबरी मस्जिद की हिफाजत करने के संवैधानिक दायित्व को पूरा न करने के आरोप में बर्खास्त कर सूबे में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया था।

इस पूरे घटनाक्रम ने मुलायम सिंह की उम्मीदें हरी कर दीं। सत्ता में वापसी का समीकरण साधने की गरज से उन्होंने सूबे में नया सामाजिक गठजोड़ (दलित-पिछड़ा-अल्पसंख्यक) बनाने की पहलकदमी की। इस सिलसिले में उन्होंने बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम से दोस्ती गांठीं। उन्हीं दिनों उनके गृह जिले इटावा की लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव होना था, जिसके लिए कांशीराम ने भी अपनी उम्मीदवारी का परचा दाखिल किया था। मुलायम ने कांशीराम की भरपूर मदद की। कांशीराम चुनाव जीत गए। उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित-पिछड़ा गठजोड़ के रूप में एक नए सामाजिक समीकरण का अंकुरण हुआ। कुछ महीनों बाद विधानसभा के चुनाव हुए। 

सपा ओर बसपा का गठबंधन चुनाव मैदान में उतरा। दलितों और ताक़तवर पिछड़ी जातियों के बीच हिंसक टकराव के लिए कुख्यात उत्तर प्रदेश की राजनीति में यह एक ऐतिहासिक प्रयोग था।

'मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’ के नारे सूबे के राजनीतिक फिजां में खूब रंगत बिखेरी। सपा-बसपा गठजोड़ ने चुनाव में बहुमत हासिल किया। मुलायम सिंह की अगुवाई में गठबंधन की सरकार बनी। लेकिन यह सरकार लंबे समय तक नहीं चल पाई। ग़लतियाँ दोनों ही ओर से हुईं, फिर भी एक शानदार वैचारिक आंदोलन से निकले अनुभवी नेता होने के नाते मुलायम की जिम्मेदारी ज्यादा थी। अगर उन्होंने वैचारिक ईमानदारी दिखाई होती और अपने राजनीतिक पुरखों से मिली सीख को ध्यान में रखा होता तो न सिर्फ़ उनकी सरकार भी टिकी रहती बल्कि उत्तर प्रदेश की राजनीतिक जमीन से उपजा यह प्रयोग उत्तर भारत के अन्य राज्यों तक भी फैल सकता था और उस विस्तारित प्रयोग के नेता भी निस्संदेह मुलायम सिंह ही होते। लेकिन उनकी तंगदिली और सत्ता की सर्वग्रासी भूख के चलते इस ऐतिहासिक सामाजिक-राजनीतिक प्रयोग की दर्दनाक मौत हो गई। दोनों पार्टियों के रास्ते पूरी तरह जुदा हो गए।

सूबे में राजपाट छिन जाने के बाद मुलायम सिंह राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हो गए। वे एचडी देवगौड़ा और इंदर कुमार गुजराल के नेतृत्व में बनी संयुक्त मोर्चा की सरकारों में रक्षा मंत्री भी रहे लेकिन तब तक समाजवादी विचार की राजनीति से उनका नाता पूरी तरह टूट चुका था और अमर सिंह जैसे लोगों से उनकी सोहबत हो गई थी। पिछड़ों और वंचितों की पार्टी अमर सिंह के 'सौजन्य’ से अंबानी, सहारा और बच्चन परिवार समेत अन्य फिल्मी सितारों की पार्टी में तब्दील हो गई। 

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हालांकि इतने पतन के बावजूद मुलायम सिंह 2003 में एक बार फिर जोड़-तोड़ के ज़रिए उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने में कामयाब हो गए और केंद्र में गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के परोक्ष सहयोग से सरकार चलाते रहे। भाजपा के साथ उनका यह अघोषित तालमेल पूरे चार साल तक चला। इस बेमेल तालमेल का खामियाजा उन्हें अगले चुनाव में भुगतना पड़ा। मायावती की बसपा को पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता हासिल हुई। लेकिन पांच साल बाद हुए चुनाव में मुलायम सिंह ने फिर धमाकेदार वापसी की। पूर्ण बहुमत के साथ हुई इस वापसी ने उनमें इतना आत्मविश्वास भर दिया कि उन्हें लगने लगा कि दिल्ली अब दूर नहीं है। सूबे का राजपाट बेटे अखिलेश के हवाले कर वे दिल्ली के सिंहासन पर बैठने का सपना बुनने लगे। वे यह मान बैठे थे कि लोकसभा चुनाव में भी उन्हें विधानसभा जैसी ही कामयाबी मिल जाएगी और अगर केंद्र में मिलीजुली सरकार बनने की नौबत आएगी तो वे अपना दावा पेश कर सकेंगे। लेकिन उनका यह सपना 2014 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह ध्वस्त हो गया। सूबे में पचास लोकसभा सीटें जीतने की हसरत महज पांच पर सिमट कर रह गई। इतना सब होने के बाद भी इतिहास ने मुलायम सिंह को बड़ा नेता बनने और बड़ी भूमिका निभाने का एक और अवसर दिया, जब शरद यादव की पहल पर जनता दल परिवार के पांच दलों के विलय का प्रयास हुआ। सभी ने एकमत से मुलायम सिंह को नई पार्टी का अध्यक्ष भी कुबूल कर लिया था लेकिन ऐन वक्त पर मुलायम सिंह ने अपने कदम पीछे खींच लिए। उन्होंने इस अवसर को किस मजबूरी के तहत रौंदा, यह अभी भी रहस्य ही है। 

अपनी पार्टी का विलय तो दूर मुलायम ने बिहार में महागठबंधन का हिस्सा बनने से भी इनकार कर दिया। यही नहीं, महागठबंधन के खिलाफ अपने उम्मीदवार भी मैदान में उतारे। उनके इस रवैये के शिकार वामपंथी दल भी कई बार हुए।

मुलायम सिंह के इस घटना प्रधान राजनीतिक जीवन की तार्किक परिणति यह हुई कि वे पूरी तरह भूमिका विहीन होकर रह गए- अपनी पार्टी में भी और पार्टी के बाहर भी। उनके राजनीतिक सूरज के अस्ताचल गामी होने का ऐलान उनके ही बेटे ने कर दिया। राजनीति के रंग मंच से ऐसी बिदाई मुलायम सिंह के लिए ज़रूर दर्दनाक रही लेकिन वे किसी की भी सहानुभूति नहीं बटोर सके।

सच पूछा जाए तो इतिहास मुलायम सिंह को उत्तर भारत में सामाजिक न्याय के संघर्ष को सर्वाधिक नुक़सान पहुँचाने वाले नेता के तौर पर ही याद करेगा। उनमें भरपूर क्षमता थी लेकिन वे उसका रचनात्मक इस्तेमाल नहीं कर सके। उन्हें इस बात के लिए भी याद किया जाएगा कि उन्होंने अपनी अपार संभावनाओं को बहुत ही तुच्छ इच्छाओं-आकांक्षाओं पर बेरहमी से कुर्बान कर दिया।

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अनिल जैन
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