कल्पना सोरेन
जेएमएम - गांडेय
पीछे
कल्पना सोरेन
जेएमएम - गांडेय
पीछे
बाबूलाल मरांडी
बीजेपी - धनवार
आगे
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी इस समय अपने इतिहास के जिस चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रही है, उसमें उसे जैसा अध्यक्ष चाहिए था, वह उसे मिल गया। कांग्रेस को न तो शशि थरूर जैसे अंग्रेजीदाँ अध्यक्ष की ज़रूरत थी और न अशोक गहलोत जैसे अनमने और या दिग्विजय सिंह जैसे सस्ती बयानबाजी करने वाले अध्यक्ष की। उसे मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे अध्यक्ष की ही ज़रूरत थी और वह उसे मिल गया।
कांग्रेस को ज़रूरत थी एक बेदाग छवि वाले अध्यक्ष की, उसे ज़रूरत थी पार्टी के कोर बिंदुओं को समझने वाले अध्यक्ष की और ज़रूरत थी ऐसे अध्यक्ष की जिसे गांधी परिवार का पूरी तरह भरोसा हासिल हो। इन सभी कसौटियों पर खड़गे हर तरह से खरे उतरते हैं। कांग्रेस के 137 साल के इतिहास में मल्लिकार्जुन खड़गे 65वें और दलित समुदाय से आने वाले दूसरे अध्यक्ष हो गए हैं। इससे पहले बाबू जगजीवन राम कांग्रेस के अध्यक्ष बनने वाले पहले दलित नेता थे।
खड़गे ने जब पार्टी अध्यक्ष पद के लिए नामांकन दाखिल किया तब से ही कांग्रेस के बाहर ही नहीं, भीतर भी कई लोगों ने मजाक बनाते हुए कहा कि 75 साल की सोनिया गांधी के उत्तराधिकारी 80 साल के खड़गे होंगे। उनकी सेहत और उनके हिंदी बोलने को लेकर भी सवाल उठाए गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी तुलना करते हुए कहा गया कि वे डायनेमिक नहीं हैं और ज्यादा मेहनत नहीं कर पाएंगे। यह भी कहा गया कि वे अध्यक्ष के रूप में गांधी परिवार के रिमोट से संचालित होंगे। इस तरह का सवाल उठाने में सरकार और भाजपा के ढिंढोरची की भूमिका निभाने वाला मीडिया भी पीछे नहीं रहा।
दरअसल, खड़गे की क्षमता पर उन लोगों ने ही सवाल उठाए हैं और अभी उठा रहे हैं, जो खड़गे की समूची राजनीतिक पृष्ठभूमि से अनभिज्ञ हैं या जो उन्हें उनकी क्षेत्रीय और जातीय पृष्ठभूमि तथा उनकी उम्र संबंधी पूर्वाग्रहों के आधार पर उनको देख रहे हैं। ऐसे लोगों को यह मालूम होना चाहिए कि मल्लिकार्जुन उस समय लोकसभा में कांग्रेस के नेता बने थे, जब कांग्रेस ऐतिहासिक हार के बाद 44 सांसदों की पार्टी रह गई थी। इन 44 सांसदों में से भी ज़्यादातर सांसद हमेशा सदन से अक्सर नदारद रहते थे। ऐसे में गिने-चुने सांसदों को साथ लेकर लोकसभा में तीन सौ सांसदों के प्रचंड बहुमत वाली बीजेपी के साथ जिन लोगों ने भी खड़गे को जूझते देखा है, वे उनकी क्षमताओं से परिचित हैं।
यह भी ध्यान रखने की ज़रूरत है कि खड़गे को अध्यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नही लड़ना है या उनको चुनौती नहीं देनी है। उनको 2024 के चुनाव का नेतृत्व नहीं करना है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि अध्यक्ष बनने के बाद भी कांग्रेस पर गांधी परिवार का दबदबा बना रहेगा। लेकिन इसमें आश्चर्य कैसा? गांधी परिवार कांग्रेस की मजबूरी भी है और कांग्रेस के लिए ज़रूरी भी।
नेहरू-गांधी परिवार पर कांग्रेस की निर्भरता के लिए राजनीतिक हलकों और मीडिया में अक्सर उसका मजाक भी उड़ाया जाता है। लेकिन हकीकत यही है कि नेहरू गांधी परिवार ही कांग्रेस की असली ताक़त और वह तत्व है जो पार्टी को जोड़े रख सकता है। यह स्थिति ठीक वैसी है जैसे भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच नाभि-नाल का रिश्ता है। अगर भाजपा से संघ को अलग कर दिया जाए तो भाजपा के वजूद की कल्पना भी नहीं की जा सकती। भाजपा किस हद तक संघ पर आश्रित है या संघ का भाजपा में कितना दखल है, इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। वैसे भी अनौपचारिक तौर पर तो भाजपा को संघ की राजनीतिक शाखा ही माना जाता है।
इस सिलसिले में भाजपा के मौजूदा अध्यक्ष की स्थिति को भी देखा जा सकता है। कहने को जेपी नड्डा पार्टी के अध्यक्ष हैं, लेकिन व्यावहारिक तौर पर पार्टी वैसे ही चल रही है जैसे अमित शाह के अध्यक्ष रहते चल रही थी।
पार्टी का प्रचार करने, चुनाव लड़ने और संगठन चलाने का तरीका आदि सब कुछ वैसा चल रहा है, जैसा अमित शाह के अध्यक्ष रहते चलता था। विपक्ष शासित राज्य सरकारों को गिराने या विधायकों को तोड़ने आदि का काम भी पहले की तरह जारी है। फर्क सिर्फ इतना है कि अध्यक्ष की कुर्सी पर अमित शाह की जगह जेपी नड्डा बैठे हैं, जो अध्यक्ष बनने के डेढ़ साल बाद भी अपनी पसंद के पदाधिकारियों की नियुक्ति नहीं कर पाए थे।
बीजेपी और कांग्रेस की स्थिति में फर्क इतना ही है कि बीजेपी और उसका पूर्व संस्करण जनसंघ शुरू से ही संघ की ताक़त पर निर्भर रहा है, जबकि कांग्रेस की नेहरू-गांधी परिवार पर निर्भरता का दौर जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु और इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद शुरू हुआ।
आज़ादी के बाद से अब तक कुल 19 कांग्रेस अध्यक्ष हुए हैं, उनमें सिर्फ़ पांच ही नेहरू-गांधी परिवार के हुए हैं, बाक़ी 14 अध्यक्ष इस परिवार के बाहर से बने हैं। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के पहले तक जितने भी कांग्रेस अध्यक्ष नेहरू परिवार से इतर बने वे सभी स्वाधीनता संग्राम के चमकते सितारे और क़रीब-क़रीब नेहरू के समकालीन थे। उन सभी ने अध्यक्ष के तौर पर स्वतंत्र रूप से काम किया और नेहरू ने भी कभी उनके काम में अनावश्यक दखलंदाजी नहीं की। लेकिन इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद स्थिति बदल गई। जगजीवन राम, शंकरदयाल शर्मा और देवकांत बरुआ पार्टी के अध्यक्ष ज़रूर रहे, लेकिन पार्टी में होता कमोबेश वही था, जो इंदिरा गांधी चाहती थीं। 1978 में कांग्रेस के विभाजन के बाद तो उन्होंने खुद ही पार्टी का नेतृत्व संभाला अपने जीवन के अंतिम समय तक वे ही अध्यक्ष रहीं। उनकी मृत्यु के बाद पार्टी की कमान राजीव गांधी के हाथों में आई। वह भी 1985 से 1991 तक मृत्युपर्यंत पार्टी के अध्यक्ष रहे।
राजीव गांधी की हत्या के बाद पीवी नरसिंह राव ने पार्टी की कमान संभाली। लंबे अरसे बाद कांग्रेस को ऐसा अध्यक्ष मिला, जो न सिर्फ़ नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का था बल्कि उस परिवार की छाया से भी मुक्त था।
नरसिंह राव ने प्रधानमंत्री रहते हुए पार्टी को भी अपनी तरह से चलाया। वे पांच साल तक अध्यक्ष रहे। उनके बाद अध्यक्ष बने सीताराम केसरी यद्यपि दो साल से भी कम समय तक ही पद पर रह सके लेकिन उन्होंने भी अपनी मर्जी के मुताबिक पार्टी को चलाया। उनके बाद सोनिया गांधी ने पार्टी की कमान संभाली और वह पूरे 19 वर्षों तक लगातार पार्टी अध्यक्ष रहीं, जो कि कांग्रेस के 137 वर्षों में एक रिकॉर्ड है।
बहरहाल, यह तय हो गया है कि मल्लिकार्जुन खड़गे अब कांग्रेस के अध्यक्ष होंगे, लेकिन परोक्ष रूप से पार्टी पर नियंत्रण राहुल गांधी का ही रहेगा, क्योंकि निर्विवाद रूप से पार्टी का चेहरा तो वही हैं। उनकी भारत जोड़ो यात्रा को जिस तरह अभी तक लोगों से प्रतिसाद मिला है, उससे भी उनका कद पार्टी में तो बढ़ा ही है, पार्टी के बाहर भी उनकी छवि बदली है और बदल रही है। इसलिए कहा जा सकता है कि जैसे भाजपा अध्यक्ष चाहे जो हो, उसकी नियंता मोदी-शाह की जोड़ी और उससे भी ऊपर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रहता है, वैसे ही कांग्रेस का नियंता भी गांधी परिवार बना रहेगा और इस पर कांग्रेस में न तो आज किसी को आपत्ति है और न भविष्य में होगी।
About Us । Mission Statement । Board of Directors । Editorial Board | Satya Hindi Editorial Standards
Grievance Redressal । Terms of use । Privacy Policy
अपनी राय बतायें