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शरद दत्त

शरद दत्त: सिनेमा और सांस्कृतिक पत्रकारिता के एक युग का अंत

गला और उससे निकलती आवाज की बुलंदी जिस शख्स की शिनाख्त थी; उसे गले के कैंसर ने ही निगल लिया। 77 साल के शरद दत्त का 12 फरवरी को फानी दुनिया से कूच कर जाना दरअसल हिंदी की सिनेमा हॉल सांस्कृतिक पत्रकारिता के एक स्तंभ का ढह जाना है। लिखित और मौखिक अल्फाज के जरिए उन्होंने बहुत कुछ ऐसा कहा और सुनाया, जो अब तवारीख का हिस्सा बन गया। 
वह सिनेमाई और वृत्तचित्रों के समकाल एक ऐसे आधार स्तंभ थे कि उनकी कोई भी टिप्पणी (पत्थर की) अनूठी लकीर बन जाती थी। लकीरें यथावत रहेंगीं लेकिन बयानकर्ता अपने ठौर चला गया। कैंसर बनकर मौत उनकी दहलीज पर एक लंबे अरसे से दस्तक दे रही थी और उसकी आहट भी वह सुन रहे थे लेकिन जीवन संध्या में कुछ न बोलने-कहने की पीड़ा को सहन करने के लिए विवश थे। मिलने पर कभी नहीं लगता था कि इस बड़े कद की शख्सियत को दो बार राष्ट्रपति के हाथों स्वर्ण कमल सम्मान हासिल हो चुका है। अप्रीतम प्रतिभा और विलक्षण सिनेमाई ज्ञान के चलते। विष्णु खरे के बाद सिनेमा के सृजनात्मक लेखन की वह ऐसी लौ थे, जिसकी रोशनी चौतरफा फैली हुई थी।
आगे अब सन्नाटा है। यह वाक्य बेशक एक साधारण टिप्पणी हो सकता है लेकिन शरद दत्त ने इसे जीवित रहते हुए जिंदादिली से निभाया और स्वीकार किया। सालों पहले उनकी पत्नी से अलहदगी हो चुकी थी और कोई संतान भी नहीं थी। यों देशभर में फैले सिनेमा से मोहब्बत करने वाले बेशुमार युवा उनके दत्तक बेटे-बेटियों की मानिंद थे। बरसों पहले उन्होंने उन्हें अपनाया और सिनेमा-संस्कृति की बारीकियों के गुण दिए और चौतरफा उनके चाहने वाले देश-विदेश की सरजमीं पर उनके चिंतनधारा का प्रसार कर रहे हैं। बहुततेरे ऐसे हैं; जो मानते हैं कि शरद दत्त का जाना सिनेमा इतिहासकार का एक युग का अंत होना है। यह सच्चाई है, अतिशयोक्ति नहीं। 
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 नूरजहां, कुंदन लाल सहगल, सत्यजीत रे, लता मंगेशकर, नौशाद, पंडित रविशंकर, मोहम्मद रफी, बालासुब्रह्मण्यम, मुकेश, जगजीत सिंह, दिलीप कुमार, संजीव कुमार, यश चोपड़ा, रेशमा, सलिल चौधरी, अमिताभ बच्चन, हरीहरन, खुशवंत सिंह इत्यादि महज नामभर नहीं हैं बल्कि इन्हें बतौर 'दौर' जाना जाता है। इन पर उन्होंने यादगार वृत्तचित्र बनाए जो अंतरराष्ट्रीय स्तर की ख्याति को हासिल हुए। इनमें कुछ श्वेत श्याम भी हैं और बाकी रंगीन। यह तथ्य भी इस बात की गवाही है कि शरद दत्त का काम कहां से शुरू हुआ था और कहां तक चलता गया। हिंदुस्तान के उस पार पाकिस्तान में भी उनकी तूती इसलिए भी बोलती थी कि उन्होंने मेहंदी हसन, गुलाम अली, नुसरत फतेह अली खान, फरीदा खानम, परवेज मेहंदी, शौकत अली, मंसूर अली मलंगी के जिक्रेखास साक्षात्कार किए थे। इंटरव्यू लेने का उनका अपना मौलिक अंदाज था जिसकी नकल तो संभव है लेकिन हुबहू वैसा करना असंभव। शरद दत्त का मानना था कि किसी भी शख्सियत से मिलते वक्त दरिया नहीं होना चाहिए। इसलिए कि दरिया जब समुंदर में मिलता है तो दरिया नहीं रहता और वह बात भी नहीं रहती जो दूर तलक जाती है! 
सिनेमा से इत्तर भी उन्होंने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अहमद फराज, अमृतराय, राही मासूम रजा, श्रीलाल शुक्ल, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, डॉ धर्मवीर भारती, अख्तर इल ईमान, मुल्कराज आनंद, निर्मल वर्मा, अमृता प्रीतम, करतार सिंह दुग्गल, देवेंद्र सत्यार्थी, बलवंत गार्गी, प्रोफेसर नामवर सिंह, डॉ रामविलास शर्मा, श्रीकांत वर्मा, तस्लीमा नसरीन, कुलदीप नैयर, शामलाल, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर, इंतजार हुसैन... के भी यादगारी इंटरव्यू किए थे। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है और उनकी किताबों में भी कुछ साक्षात्कार शुमार हैं। क्रांतिकारी पंजाबी कवि पाश और शिवकुमार बटालवी पर साक्षात्कारनुमा वृत्तचित्र बनाने का उनका सपना अधूरा रह गया। हिंदी और अंग्रेजी में उपलब्ध उनके साहित्य का उन्होंने बखूबी गहन अध्ययन किया था। शेख फरीद और बाबा बुल्ले शाह पर भी वह विशेष प्रस्तुति देना चाहते थे लेकिन यह भी संभव नहीं हो पाया। इसका गहरा मलाल उन्हें था। 
श्री स्वर्ण मंदिर साहिब की वास्तुकला पर डॉक्यूमेंट्री बनाना उनका ख्वाब होकर अब गुजर गया। उनके करीबियों में से भी शायद कम लोग ही जानते होंगे कि वह कई बार पंजाब आए। गदर लहर की याद में बने जालंधर के देश भक्त यादगार हॉल में भी वह आए थे। तब एक प्रमुख हिंदी अखबार के जालंधर (पंजाब) संस्करण के लिए इन पंक्तियों के लेखक ने उनसे लंबा इंटरव्यू लिया था और महसूस यह हुआ कि वह इंटरव्यू दे नहीं रहे बल्कि ले रहे हैं! 'सवाल' और 'जवाब' के जादूगर 'सांस्कृतिक पत्रकार' शरद दत्त दिवंगत होने के बाद कई किताबों के मसौदे अधूरे छोड़ गए हैं या पूरा करने के बावजूद अप्रकाशित हैं। उनकी कई किताबें उल्लेखनीय हैं। सिनेमा और संस्कृति के इतिहास के मौलिक पाठ के लिए। साक्षात्कार में लफ्जों की करागिरी में वह ऐसे 'उस्ताद' थे जो इस विश्वास को पुख्ता करते थे कि यह विधा भी साहित्य-संस्कृति-सिनेमा जैसी विधाओं की तरह बेहद सशक्त है और इसे हल्के में लेना गोया कोई 'अपराध' है!
 कुंदन लाल सहगल, अनिल विश्वास और साहिर लुधियानवी की जीवनियां लिखते वक्त उन्होंने समूची रूह डाल दी थी। साहित्यकार और भारतीय प्रसार निगम के पूर्व महानिदेशक लीलाधर मणडलोई ने शरद दत्त के दिवंगत होने पर सही कहा है कि सिनेमा जगत का एक जीता-जागता इतिहास चला गया। मणडलोई ने उन पर एक किताब भी संपादित की है।                                    
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 शरद दत्त दूरदर्शन के उपनिदेशक पद से मुक्त होने के बाद भी सक्रिय रहे और कुछ टीवी चैनलों के सलाहकार बने। लेकिन अपनी शर्तों पर। वह हिंदी सिनेमा ही नहीं अंतरराष्ट्रीय सिनेमा के भी चलते-फिरते कोश थे। वह नेशनल फिल्म ज्यूरी के सदस्य थे और निर्मम आलोचना के लिए विख्यात व 'कुख्यात' भी। उनकी तार्किकता और समझ सिनेमा की बाबत बेजोड़ थी। 'सबको राजी करने'की परंपरा के विपरीत। दिलीप कुमार, खय्याम, सागर सरहदी, नीरज और नौशाद उनके सबसे करीबी दोस्तों में थे।  
शरद दत्त की किताब 'दास्तान-ए-आलम आरा' भी उन्हें सदा जिंदा रखेगी जो उन्होंने हिंदी की पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' पर गहन शोध के बाद लिखी थी। इस किताब की खासियत अथवा खसूसियत को पढ़ने के बाद ही मुकम्मल तौर पर जाना जा सकता है। मुख्तसर इतना ही कि कई भाषाओं में अनूदित इस किताब में फिल्म 'आलम आरा' बनने की दास्तान नायाब ढंग से बयान की गई है। उन्हें 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' वृत्तचित्र तथा (दूरदर्शन के लिए निर्मित) 'मेलोडी मेकर्स' के लिए भी याद रखा जाएगा। अलविदा अंतरराष्ट्रीय सिने- इतिहासकार, सांस्कृतिक पत्रकार और संस्कृति मर्मज्ञ शरद दत्त!
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अमरीक
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