उस लरजती हुई आवाज़ में बेहद सहज, सघन, शालीन आत्मीयता की छवियाँ भी उभरती थीं और प्रतिरोध के दृढ़ स्वर भी बिल्कुल स्पष्ट अभिव्यक्त होते थे, बिना किसी मुरव्वत या हिचकिचाहट के। मंगलेश डबराल हमारे समय के बहुत महत्वपूर्ण प्रतिष्ठित कवि, लेखक, पत्रकार तो थे ही, मौजूदा निज़ाम के ख़िलाफ़ लगातार बुलंद रहने वाली एक प्रमुख आवाज़ थे। उनके कविता संग्रहों ‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘घर का रास्ता’, ‘हम जो देखते हैं’, ‘आवाज़ भी एक जगह है’ और ‘नए युग में शत्रु’ में अपने आसपास की निजी आत्मीय छवियों के अलावा एक वृहत्तर समाज और सत्ता के विविध रूपों की शिनाख्त भी मिलती है।
उन्होंने कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी राजनीति से अपनी गहरी और तीखी नाराज़गी और उसके सतत विरोध को खुल कर अपनी कविताओं में ज़ाहिर किया और उसके छल-छद्म को हमेशा निशाना बनाया -
हम जानते हैं कि हम कितने कुटिल और धूर्त हैं।
हम जानते हैं कि हम कितने झूठ बोलते आए हैं।
हम जानते हैं कि हमने कितनी हत्याएँ की हैं,
कितनों को बेवजह मारा-पीटा है, सताया है
औरतों और बच्चों को भी हमने नहीं बख़्शा,
जब लोग रोते-बिलखते थे हम उनके घरों को लूटते थे
चलता रहा हमारा खेल परदे पर और परदे के पीछे भी।
हमसे ज़्यादा कोई नहीं जानता हमारे कारनामों का कच्चा-चिट्ठा
इसीलिए हमें उनकी परवाह नहीं
जो जानते हैं हमारी असलियत।
हम जानते हैं कि हमारा खेल इस पर टिका है
कि बहुत से लोग हैं जो हमारे बारे में बहुत कम जानते हैं
या बिलकुल नहीं जानते।
और बहुत से लोग हैं जो जानते हैं
कि हम जो भी करते हैं, अच्छा करते हैं
वे ख़ुद भी यही करना चाहते हैं।
(‘हत्यारों का घोषणापत्र’ से)
'तानाशाह' कविता में आए बिम्ब साफ़ कर देते हैं कि इशारा किसकी तरफ़ है -
तानाशाह मुस्कुराता है
भाषण देता है और भरोसा दिलाने की कोशिश करता है कि वह एक मनुष्य है
लेकिन इस कोशिश में उसकी मुद्राएँ और भंगिमाएँ उन दानवों-दैत्यों-राक्षसों की
मुद्राओं का रूप लेती रहती हैं जिनका ज़िक्र प्राचीन ग्रंथों-गाथाओं-धारणाओं-
विश्वासों में मिलता है। वह सुंदर दिखने की कोशिश करता है आकर्षक कपड़े पहनता है
बार-बार बदलता है लेकिन इस पर उसका कोई वश नहीं कि यह सब
एक तानाशाह का मेकअप बन कर रह जाता है।
इतिहास में तानाशाह कई बार मर चुका है लेकिन इससे उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता
क्योंकि उसे लगता है उससे पहले कोई नहीं हुआ है।
(‘तानाशाह’ से)
'गुजरात के मृतक का बयान' दंगों की सियासत को उघाड़ती हुई कविता है-
मुझे इस तरह मारा गया
जैसे मारे जा रहे हों एक साथ बहुत से दूसरे लोग
मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मक़सद नहीं था
और मुझे मारा गया इस तरह जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मक़सद हो।
जब मैं अपने भीतर मरम्मत कर रहा था किसी टूटी हुई चीज़ की
जब मेरे भीतर दौड़ रहे थे अल्युमिनियम के तारों की साइकिल के
नन्हे पहिए
तभी मुझपर गिरी आग, बरसे पत्थर
और जब मैंने आख़िरी इबादत में अपने हाथ फैलाए
तब तक मुझे पता नहीं था बन्दगी का कोई जवाब नहीं आता
('गुजरात के मृतक का बयान ' से )
मंगलेश डबराल बहुत गहरी संवेदनाओं वाले कवि, सौम्य, विनम्र, शालीन और नर्मदिल इंसान और धर्मनिरपेक्षता, बहुलता, अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए प्रतिबद्ध, दृढ़ प्रगतिशील बुद्धिजीवी, पत्रकार थे।
मंगलेश जी कोई अभिजात्य शब्दशिल्पी नहीं थे, जन आंदोलनों के पक्ष में और सत्ता के ख़िलाफ़ सड़क पर उतर कर प्रतिरोध करने वालों में से थे। एक ऐसे समय में जब सत्ता की चरण वंदना की होड़ लगी हुई हो, मंगलेश डबराल अपनी दो टूक टिप्पणियों की वजह से हमेशा निशाने पर रहे। असहिष्णुता के मुद्दे पर साहित्य अकादेमी सम्मान लौटने के लिए उन पर 'अवार्ड वापसी गैंग' के नाम पर बेहद घटिया हमले किये गए लेकिन उन्होंने बिना डरे उसका भी अपने अंदाज़ में सामना किया।
अस्सी के दशक के आख़िरी सालों में जब मैंने लखनऊ के अमृत प्रभात से पत्रकारिता का सफर शुरू किया था तब मंगलेश डबराल उस अख़बार से जा चुके थे लेकिन उसके साप्ताहिक परिशिष्ट से उनके जुड़ाव का गर्व वहाँ दिखता था। दिल्ली आने पर जिन कुछ लोगों से सबसे पहले मिलना हुआ, मंगलेश डबराल उनमें से थे। जनसत्ता के दफ्तर में उनसे पहली ही मुलाक़ात और बातचीत में उनकी सहजता और आत्मीयता ने बहुत प्रभावित किया था। बाद की मुलाक़ातों में मेरे संकोच के उलट वो हमेशा सहज, सरल मुस्कराहट और अपनेपन से मिलते थे। गोष्ठियों- सम्मेलनों, शोकसभाओं में उनको सुनना हमेशा कुछ सिखा जाता था।
उनमें ज्ञान और रुतबे के अहंकार से सर्वथा मुक्त एक आडम्बरविहीन आत्मीयता थी जो अकेलेपन और अजनबियत के इस दौर में बहुत आश्वस्त करती थी। आप उनसे सिनेमा, साहित्य, संगीत, समाज पर बात करके समृद्ध हो सकते थे।
मंगलेश जी सिनेमा पर भी ज़बरदस्त पकड़ रखते थे और बहुत बढ़िया लिखते थे। सिनेमा पर उनसे बातचीत की दिलचस्प स्मृतियाँ हैं। चार्ली चैप्लिन उनके पसंदीदा कलाकार थे। जब सिनेमा के सौ साल पूरे हुए थे तो उन्होंने जनसत्ता के साप्ताहिक परिशिष्ट के लिए मुख्य लेख को शीर्षक दिया - जादुई लालटेन के सौ बरस। ग़ालिब, नेरुदा, नाज़िम हिकमत, निराला, भीमसेन जोशी का ज़िक्र उनकी कविताओं और गद्य लेखन में आया है जो उनकी दृष्टि और दिलचस्पी के विस्तार की झलक देता है। निराला की बहुत प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं - रुग्ण तन भग्न मन/जीवन विषण्ण वन। मंगलेश जी ने इस पर जो टिप्पणी की है वह उनकी सूक्ष्म दृष्टि और विश्लेषण की मिसाल है-
निराला शारीरिक व्याधि और मानसिक संताप को कितने गद्यात्मक ढंग से और कैसी अपूर्व काव्यात्मकता के साथ बतलाते हैं। और फिर, जीवन एक विषण्ण वन है। विषाद से भरा हुआ जंगल। विषण्णता के लिए वन जैसी सघन, विस्तृत और रहस्यमय उपस्थिति का प्रतीक। विषण्णता का अर्थ है उदासी, दुःख, अवसाद, विषाद। इसे व्यंजित करने के लिए वन से ज़्यादा समर्थ प्रतीक क्या हो सकता है। और इन उदास पंक्तियों में कैसा संगीत है। निराला का एक और गीत याद आता है।' शिशिर की शर्वरी/ हिंस्र पशुओं भरी।' हम देख सकते हैं कि शिशिर की रात किस तरह वनैले पशुओं से भरी हुई है। यह रात हमें घेरे हुए लगती है। निराला के यहाँ कितना बड़ा सिनेमा है।
पहाड़ की दुनिया छोड़ कर काम की तलाश में शहर आ गए मंगलेश डबराल की कविताओं में वापस न लौट पाने की छटपटाहट, आत्मग्लानि और पिता की मार्मिक छवियाँ दिखती हैं। मंगलेश जी की कविताओं में दो बिंदुओं, दो स्थितियों या मनस्थितियों के बीच की खाली जगहों में, अनुपस्थितियों में भी अस्तित्व की तलाश करती हुई, उसकी पहचान कराती हुई प्रवृत्ति मिलती है। बेखुदी, बेसुधपन या आत्मविस्मृति का संसार रचते हुए। वहाँ अकेलापन नहीं है, एक सुर से दूसरे सुर तक यात्रा के छोटे-छोटे पड़ावों को भी महत्त्व देने और उन्हें दर्ज करने की सायास सजगता है। दुनिया की निगाहों में जो गौण है, महत्वहीन है, मंगलेश जी की सूक्ष्म दृष्टि और सघन अभिव्यक्ति उसे ही केंद्रीय तत्त्व बना देती है। आज के दौर में अपना ढोल पीटने वालों की भीड़ में संगतकार की विनम्र उपस्थिति का खयाल एक संवेदनशील सजग कवि ह्रदय के सिवाय कहाँ रहता है किसी को। 'संगतकार' कविता इसका अद्भुत उदाहरण है-
मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज़ सुंदर कमजोर काँपती हुई थी
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य
या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार
मुख्य गायक की गरज़ में
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में
खो चुका होता है
या अपने ही सरगम को लाँघकर
चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद में
तब संगतकार ही स्थाई को सँभाले रहता है
जैसा समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था
तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज़ से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढाढस बँधाता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।
('संगतकार' से)
रचना कर्म और जीवन में सादगी और गहराई की एकरूपता उन्हें विशिष्ट और अनुकरणीय, बड़ा आदमी, बड़ा साहित्यकार बनाती है। नाउम्मीदी के अँधेरे में भी बेहतर दुनिया बनाने का काम जारी रखने वालों को मंगलेश डबराल की कवितायें लालटेन की तरह रोशनी दिखाती रहेंगी।
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