उस लरजती हुई आवाज़ में बेहद सहज, सघन, शालीन आत्मीयता की छवियाँ भी उभरती थीं और प्रतिरोध के दृढ़ स्वर भी बिल्कुल स्पष्ट अभिव्यक्त होते थे, बिना किसी मुरव्वत या हिचकिचाहट के। मंगलेश डबराल हमारे समय के बहुत महत्वपूर्ण प्रतिष्ठित कवि, लेखक, पत्रकार तो थे ही, मौजूदा निज़ाम के ख़िलाफ़ लगातार बुलंद रहने वाली एक प्रमुख आवाज़ थे। उनके कविता संग्रहों ‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘घर का रास्ता’, ‘हम जो देखते हैं’, ‘आवाज़ भी एक जगह है’ और ‘नए युग में शत्रु’ में अपने आसपास की निजी आत्मीय छवियों के अलावा एक वृहत्तर समाज और सत्ता के विविध रूपों की शिनाख्त भी मिलती है।