दुनिया ने तजुर्बातो हवादिस की शक्ल में

2021 साहिर लुधियानवी का जन्म शताब्दी वर्ष है। आज अगर वह हमारे बीच होते तो सौ साल के हो गए होते। बचपन की कड़वाहट, अभावों, पिता से नफ़रत, दुनिया की सोच-सुलूक और मां से बेपनाह मुहब्बत ने साहिर की ज़िन्दगी, शायरी और फ़िल्मी नग्मों के लिए वो सांचे तैयार किये जिनमें उनके तमाम चाहने वालों ने अपनी अपनी आपबीती के अक्स देखे और आज भी देखते हैं।
जो कुछ दिया है मुझको दोहरा रहा हूँ मैं
साहिर लुधियानवी का ये शेर एक तरह से उनकी समूची रचनात्मकता, उनकी शायरी, उनके तमाम फ़िल्मी नग्मों का निचोड़ है और बुनियाद भी। मुहब्बत की मिठास से लेकर प्यार में ठोकर खाने, ठुकराए जाने के बेहद निजी दुःख-तकलीफों के एहसास के साथ- साथ समाजी हक़ीक़तों, ज़माने की ऊँच-नीच, ग़रीबी-अमीरी और मज़हब के आधार पर इंसानों में भेद पैदा करने वाली सियासत को लेकर नाराज़गी, तल्खी और बग़ावत का लहजा उनके अपने भोगे हुए, महसूस किये हुए कड़वे सच का नतीजा था, कोई उधार की खामख्याली नहीं। जब वो लिखते हैं-
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता हैकि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छांव मेंगुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थीये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुकद्दर हैतेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थीमगर ये हो न सका और अब ये आलम हैकि तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहींगुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िन्दगी जैसेइसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं