हिंदी का मुहावरा कहता है नक्कारखाने में तूती की आवाज़ कौन सुनता है। लेकिन अपनी श्रेष्ठता और महानता का अहर्निश ढोल पीटने वाली भड़भड़िया हिंदी टीवी पत्रकारिता के नक्कारखाने में कमाल खान की तूती बोलती थी। जिस दौर में समाचार चैनलों के स्वनामधन्य सुपरसितारे ईमानदार और निष्पक्ष कहे जाने पर कटाक्ष का अनुभव करते हों क्योंकि अपनी पत्रकारिता की ईमानदारी और निष्पक्षता की असलियत उन्हें पता है, कमाल ख़ान एक ऐसा चेहरा थे जिनकी ईमानदार, बेबाक़ पत्रकारिता ने बिना कोई शोर मचाए बेहद शालीनता से लाखों लोगों का भरोसा हासिल किया था।
टेलीविजन की हाहाकारी पत्रकारिता, शोर-शराबे और चीख चिल्लाहट वाली अहंकारी दुनिया में कमाल साहब बिरले ढंग के पत्रकार थे- शांत, शिष्ट, संभ्रांत, जोशीले लेकिन विनम्र, बहुत जानकार, प्रतिबद्ध।
हमेशा शांत दिखने वाले कमाल ख़ान समाज और सियासत के हालात को लेकर भीतर से बहुत बेचैन इनसान थे। चुप न बैठ पाने की खब्त और रूटीनी ज़िन्दगी से अलग कुछ करने के जूनून की वजह से एचएएल की नौकरी छोड़कर पत्रकारिता में आये थे। उनकी उस शुरुआती यात्रा को काफी नज़दीक से देखा है और कुछ दूर साथ-साथ चले भी हैं।
1988-89 के दौरान लखनऊ विश्वविद्यालय में अपने दुपहिया वाहन पर कमाल घूमते हुए, माहौल का जायज़ा लेते हुए, ख़बरें तलाशते हुए नज़र आ जाते थे। हमारी मंडली टैगोर लाइब्रेरी के बाहर मैदान में विचार गोष्ठी कर रही होती थी, कमाल कभी कभार उसमें ख़ामोशी से शरीक होते, अपनी राय देते और मुस्कुरा कर, चुहल करते हुए अपने रास्ते निकल जाते। हमने शहर में और विश्विद्यालय परिसर में जो भी कार्यक्रम किये, कमाल उसमें पत्रकार के साथ-साथ एक सजग नागरिक की हैसियत से भी शरीक रहे, चाहे वह राजनीति के अपराधीकरण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना हो या सती प्रथा का मुद्दा हो।
चौबीसों घंटे ख़बरों की आपाधापी में खपती पत्रकारिता की हड़बड़ाई सी दुनिया अपने वृहत् परिवार के किसी सदस्य पत्रकार के जाने से विचलित होती हो या न होती हो, अच्छी पत्रकारिता का सम्मान करने वालों और ऐसे पत्रकारों के प्रशंसकों के लिए कमाल खान का यूँ अचानक चले जाना यक़ीनन एक बहुत बड़ा सदमा है।
लखनऊ की हमारी पुरानी मंडली के लिए तो यह एक बेहद निजी नुक़सान है। हमारे घर का वो आदमी चला गया है जिसकी जगह अब कोई भर नहीं पाएगा। पूरी लखनऊ की मंडली के लिए बहुत बड़ा सदमा है यह।
कमाल साहब सेहत को लेकर सतर्क रहने वाले, खान-पान को लेकर एहतियात बरतने वाले इन्सान थे। पत्रकारों में जिस तरह की खाने-पीने की आदतें और अनियमित जीवनशैली आम समझी जाती है, कमाल उस सब से परहेज़ करने वाले शख्स थे।
पत्रकार तो कमाल के थे ही, इनसान बहुत शानदार थे। दोस्त इन्सान। क्या कहें- लखनऊ यूनिवर्सिटी के दिनों से लेकर अमृत प्रभात, नवभारत टाइम्स का दौर याद आ गया। एक दौर में बहुत अच्छा साथ रहा है। प्रिंट की पत्रकारिता में रहते हुए उनकी जो बातचीत की शैली थी, टीवी में आने के बाद उन्होंने उसी को कैमरे पर अपना अंदाज़ ए बयां बना लिया जो बहुत लोकप्रिय हुआ।
एनडीटीवी से जुड़ने के दौरान जब दिल्ली आए तो साथ ही टिके। कमाल साहब लखनवी तहजीब, सलीके के शानदार नुमाइंदे थे। ऐसा पत्रकार टीवी में अब होना नामुमकिन है।
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