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शोहरत हासिल कर चुके लोग आम तौर पर अपनी निजी ज़िंदगी, अपने अतीत के स्याह पहलुओं को ढाँप कर, छुपा कर रखते हैं ताकि किसी को पता न चले। हिंदी फिल्मों के मशहूर निर्माता- निर्देशक महेश भट्ट इनमें एक दिलचस्प अपवाद हैं। महेश भट्ट अपनी निजी ज़िंदगी को उघाड़ कर अर्थ, जनम, ज़ख़्म जैसी संवेदनशील फिल्में बना चुके हैं और लहू के दो रंग, नाम, नाजायज़ जैसी ठेठ मसाला फिल्में भी, जहाँ उनके जीवन के अक्स देखे जा सकते हैं। इस साफ़गोई और बेबाकी के लिए महेश भट्ट काफी तारीफ़ और आलोचना भी हासिल कर चुके हैं।
यह कोई इत्तिफ़ाक़ नहीं कि उनकी फिल्मों में नायक का अवैध संतान होना, प्रेम त्रिकोण और विवाहेतर प्रेम संबंध कहानियों का केंद्रीय तत्व रहे हैं। महेश भट्ट के मन में अपने निजी जीवन की टीस, तकलीफ और नाराज़गी शायद इतनी तीखी और गहरी है कि वह बार-बार ऐसी कहानियों की तरफ लौटते हैं जहाँ किरदारों की आड़ में खुद को बेपर्दा कर सकें।
मेहंदी हसन की आवाज़ में पाकिस्तानी शायर अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल बहुत मशहूर हो गयी है-
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ,
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
इस ग़ज़ल के मुखड़े से ही शीर्षक निकालकर महेश भट्ट् वूट सेलेक्ट पर वेब सीरीज़ ‘रंजिश ही सही’ में फिर अपनी और परवीन बाबी की प्रेम कहानी को ओटीटी के दर्शकों के लिए नये रंगरूप में सामने लेकर आये हैं। निर्माता उनके भाई मुकेश भट्ट हैं और बैनर उनकी कंपनी विशेष एंटरटेनमेंट का है लेकिन सीरीज़ के निर्देशक महेश भट्ट नहीं हैं। लेखक-निर्देशक के तौर पर पुष्पराज भारद्वाज का नाम है। आठ क़िस्तों में फैली इस कहानी के अस्वीकरण (डिस्क्लेमर) में कहा गया है कि यह वास्तविक जीवन की घटनाओं से प्रेरित एक काल्पनिक प्रोग्राम है। लेकिन सारे असली किरदार पहचाने जा सकते हैं।
महेश भट्ट और परवीन बाबी से मिलते-जुलते किरदारों शंकर वत्स और आमना परवेज़ की भूमिका में ताहिर राज भसीन और अमला पॉल ने ओटीटी पर पारी शुरू की है। ताहिर ने मर्दानी फिल्म में खलनायक की भूमिका से पहचान बनाई थी और हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म 83 में सुनील गावस्कर के किरदार में नज़र आए थे और उनके काम की तारीफ़ भी हुई थी। लेकिन 83 के बुरी तरह फ्लॉप हो जाने के बाद उसका ज़िक्र शायद ज़्यादा न हो।
तमाम अंतर्द्वंद्वों से घिरे नाकाम फिल्म निर्देशक शंकर वत्स की केंद्रीय भूमिका में ताहिर ने अच्छा काम किया है। अमला पॉल दक्षिण की फिल्मों की कामयाब अभिनेत्री हैं। दीपिका पादुकोण की बहुत झलक आती है उनमें। स्कित्ज़ोफ्रेनिया की शिकार एक उन्मादग्रस्त मानसिक रोगी फ़िल्म स्टार आमना की भूमिका में उन्होंने बहुत शानदार काम किया है। शंकर की पत्नी अंजू की भूमिका में अमृता पुरी ने भी अच्छा काम किया है।
सीरीज़ में महेश भट्ट के ओशो से जुड़ाव और मोहभंग की झलक भी है, उनके गुरु कृष्णमूर्ति भी दिखते हैं एक बदली पहचान में। शंकर की मुसलिम माँ के किरदार में ज़रीना वहाब कहानी का अहम हिस्सा हैं और नाटकीय घुमाव के मौक़ों पर प्रकट होती हैं। अवैध दांपत्य को तकलीफ और गरिमा के साथ निभाती स्त्री की भूमिका को ज़रीना वहाब ने अच्छी तरह निभाया है। एक दृश्य में उनके किरदार का एक संवाद है- जो आदमी यह सोच कर पेड़ लगाता है कि वह कभी उनकी छाँव का सुख नहीं लेगा, उसी आदमी को ज़िंदगी के मायने समझ में आते हैं।
‘रंजिश ही सही‘ में शंकर वत्स का किरदार कथावाचक या सूत्रधार की भूमिका में भी है। लेकिन कहानी दरअसल आमना परवेज़ की है। या यूँ भी कह सकते हैं कि यह अर्थ फिल्म से पहले वाले महेश भट्ट की कहानी है जिन्हें उलझे हुए निजी रिश्तों ने तकलीफ भरी कई कहानियाँ दुनिया को सुनाने के लिए दे दीं।
नये दौर के दर्शक के लिए नये नज़रिये से पुरानी कहानी कहना एक मुश्किल काम है। सीरीज़ अपनेआप में अच्छी है बशर्ते इसकी तुलना अर्थ या ज़ख़्म जैसी फ़िल्मों से न की जाए। जो काम स्मिता, शबाना और कुलभूषण खरबंदा ने किया, उससे मुक़ाबला करना नये कलाकारों के साथ न्याय नहीं होगा।
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