‘ये काली काली आंखें’ नेटफ्लिक्स पर शुरू हुई वेब सीरीज़ है जिसे रोमांटिक थ्रिलर कहा जा रहा है। पहला सीज़न उत्तर भारत के सवर्ण वर्चस्ववादी राजनीतिक-सामाजिक ढाँचे की छतरी तले पनपे कस्बाई जुनूनी इश्क़ की कहानी से शुरू होता है और एक दिलचस्प सस्पेंस थ्रिलर के मोड़ पर ख़त्म होता है । बचपन का ऐसा प्यार जिसमें ब्राह्मण-ठाकुर का एंगल भी है।
इस साल ताहिर राज भसीन की यह दूसरी सीरीज़ है जो ‘रंजिश ही सही’ के तुरंत बाद नेटफ्लिक्स पर आ गई है। दिलचस्प बात यह है कि दोनों के शीर्षक बहुत लोकप्रिय संगीत रचनाओं से लिए गये हैं। ‘रंजिश ही सही’ नाम मेहंदी हसन की ग़ज़ल से लिया गया है जबकि ‘ये काली काली आँखें’ का नाम शाहरुख़ खान की हिट फिल्म ‘बाज़ीगर’ के बेहद लोकप्रिय गाने के मुखड़े से ।
ओटीटी की दुनिया में यह साल ताहिर राज भसीन के लिए अच्छी शुरूआत लेकर आया है। तापसी पन्नू के साथ उनकी फिल्म ‘लूपलपेटा’ भी आनेवाली है।
ताहिर यहाँ एक दब्बू , ढुलमुल क़िस्म के नौजवान विक्रांत की भूमिका में हैं जिसके किरदार के कई चेहरे हैं। विक्रांत पूर्वा के दबंग, अपराधी चरित्र वाले राजनीतिज्ञ पिता अखिराज अवस्थी (सौरभ शुक्ला) के एकाउंटेंट सूर्यकांत चौहान (बृजेद्र काला) का बेटा है। यानी यहाँ एक वर्गीय भेद का आधार भी है। सही मौके पर सही स्टैंड न ले पाने वाले और मामूली सपनों वाले खोखले आदर्शवादी क़िस्म के मध्यवर्गीय प्रेमी युवक से एक शातिर, साज़िश रचने वाले शख़्स में बदल जाने वाले इनसान का जटिल किरदार उन्होंने ईमानदारी से निभाया है।
हाल ही में आई फिल्म ‘83’ में सुनील गावस्कर की भूमिका से ध्यान खींचने वाले ताहिर को कबीर खान की वह फिल्म फ़्लॉप होने के बावजूद उस फिल्म में अपने अच्छे काम का फ़ायदा मिला है।
जुनूनी प्रेमिका पूर्वा अवस्थी की भूमिका में आँचल सिंह का काम ध्यान खींचता है। सूर्या शर्मा को बड़े परदे पर खलनायक की भूमिकाएँ मिलनी चाहिए । इससे पहले एक वेब सीरीज़ ‘अनदेखी’ में आँचल और सूर्या शर्मा अपना टैलेंट दिखा चुके हैं।
प्रेम त्रिकोण की कहानी
प्रेम त्रिकोण का तीसरा और अहम किरदार हैं ‘मसान’ फिल्म से चर्चित प्रतिभाशाली अभिनेत्री श्वेता त्रिपाठी शर्मा जो यहाँ ताहिर की प्रेमिका शिखा की भूमिका में हैं- सीधीसादी, निश्छल प्यार करने वाली, ईमानदार , स्वाभिमानी और हर तिकड़मबाज़ी से दूर।
विक्रांत के दोस्त गोल्डेन की भूमिका निभाने वाले कलाकार ने भी अच्छा काम किया है।
सीरीज़ के पहले सीज़न में दिलचस्पी बनाये रखने का काम करता है सौरभ शुक्ला और बृजेंद्र काला का शानदार अभिनय । ताहिर के पिता की भूमिका में बृजेद्र काला यहाँ बिल्कुल नये रंग में हैं - एक मध्यवर्गीय घरेलू क़िस्म का आदमी, ताकतवर नेता का ख़ुशामदी, चापलूस क़िस्म का जुगाड़ू इनसान जिसका सरोकार बस इतना है कि उसका काम बनता रहे, घर-परिवार सुकून से चलता रहे। बाहर दब्बू , घर में दनादन गालियाँ बकता हुआ।
सौरभ शुक्ला का तो कहना ही क्या। माफ़िया क़िस्म के उत्तर भारतीय ब्राह्मण नेता की भूमिका में बहुत शानदार काम किया है उन्होंने। एक तरफ क्रूर नेता तो दूसरी तरफ बेटी से बहुत प्यार करने वाला पिता जो उसकी ज़िद पूरी करने के लिए कुछ भी कर सकता है।
कहानी का केद्रीय तत्व पूर्वा की विक्रांत के प्रति दीवानगी है जिसकी बुनियाद बचपन में स्कूल की पढ़ाई के दौरान पड़ी है। आठ क़िस्तों में फैली कहानी का यही सबसे कमजोर और अटपटा पहलू है कि केंद्रीय तत्व का कोई स्पष्ट कारण नहीं, कोई संकेत भी नहीं और बचपन मे शुरू हुए लगाव का किरदारों के बड़े हो जाने बाद , अमीरी-ग़रीबी और सामाजिक हैसियत में ज़मीन आसमान के फ़र्क़ के बावजूद बेक़ाबू मुहब्बत में बदल जाने का कोई लॉजिक नहीं साफ होता। कहानी के लेखन में यह बड़ा झोल है ।
पहला सीज़न जहाँ ख़त्म होता है, वहाँ से एक नये सस्पेंस की शुरुआत का इशारा मिलता है। यानी अगला सीज़न और दिलचस्प हो सकता है। बशर्ते कहानी, पटकथा के झोलझाल को संभाल लिया जाए क्योंकि गड़बड़ी इस सस्पेंस थ्रिलर कहानी की रवानी में है। सभी कलाकारों ने काम ठीक किया है।
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