1974 में जोधपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में आंचलिक उपन्यास के अध्ययन के कोर्स में डॉ. राही मासूम रज़ा का 'आधा गाँव’ शामिल किया गया। बड़ा हो-हल्ला हुआ। छात्रों के एक गुट ने आसमान सर पर उठा लिया। किताब को हटवाने के लिए आन्दोलन करने लगे। उपन्यास में कुछ ऐसी बातें लिखी थीं जो पुरातनपंथी दिमाग वालों की समझ में नहीं आ रही थीं। डॉ. नामवर सिंह वहाँ उन दिनों हिंदी के विभागाध्यक्ष थे। किताब को कोर्स से हटाने की माँग शुरू हो गयी। डॉ. नामवर सिंह झुकना नहीं जानते थे। आन्दोलन दिल्ली विश्वविद्यालय में भी शुरू हो गया। नामवर सिंह ने इस्तीफ़ा दे दिया। उसके बाद डॉ. राम विलास शर्मा ने उनको आगरा के केंद्रीय हिंदी संस्थान में जाने के लिए राज़ी किया। सब कुछ हो गया लेकिन भविष्य तो हिंदी की दुनिया में उनके लिए कुछ और भूमिका तय कर चुका था। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उन दिनों हिंदी का नियमित कोर्स नहीं था। डी. पी. त्रिपाठी जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष थे। छात्रों ने माँग की कि डॉ. नामवर सिंह को जेएनयू लाया जाय। और डॉ. नामवर सिंह को लाने का  फ़ैसला हो गया।