92 साल पहले 28 सितंबर 1929 का दिन इंदौर के लिए सामान्य सा दिन था। उस दिन ना आसमान रोशनी से भर उठा, ना ही बादलों से फूलों की बरसात हुई, तालाब और कुओं का पानी भी शहद की तरह मीठा नहीं हुआ। यानी कोई चमत्कार नहीं हुआ। हुआ तो बस ये कि रंगमंच के कलाकार और गायक पंडित दीनानाथ मंगेशकर के घर एक बेटी पैदा हुई, लता मंगेशकर। आगे चल कर पता चला कि यही तो चमत्कार था।
लता मंगेशकर के पिता दीनानाथ मंगेशकर नाटककार और संगीतकार थे। लता के जन्म के कुछ समय बाद दीनानाथ परिवार सहित महाराष्ट्र चले आए। घर के संगीत के माहौल ने लता पर असर डाला और जब वह पांच साल की थीं तभी से संगीत सीखना शुरू कर दिया था वह भी अपने पिता से। साथ ही उनकी छोटी बहनें आशा, ऊषा और मीना भी बैठ जाया करती थीं। केवल 5 साल की उम्र में ही लता ने अपने पिता के मराठी संगीत नाट्य में अभिनय किया।
साल 1938 में लता ने पहली बार शोलपुर के नूतन थियेटर में सार्वजनिक रूप से गायन प्रस्तुत किया। यह एक छोटी बच्ची की अच्छी प्रस्तुति मानी गयी। बस इसके सिवा कुछ नहीं। लेकिन सबके सामने गा कर लता के अंदर आत्मविश्वास ज़रूर पैदा हो गया। अभी लता के संगीत की यात्रा ठीक से शुरू भी नहीं हो पायी थी कि उनके पिता का निधन हो गया। उस समय लता की उम्र थी महज 13 साल। वे घर में सबसे बड़ी थीं इसलिये घर की आर्थिक ज़िम्मेदारी अपने छोटे कंधों पर उठाने की पहल की।
मंगेशकर परिवार के इस आड़े समय में नवयुग चित्रपट फिल्म कंपनी के मालिक और लता के पिता के दोस्त मास्टर विनायक ने मंगेशकर परिवार को सहारा दिया। अब लता को पैसा कमाने के लिये काम करना था। छोटी उम्र में तमाम तरह की कठिनाइयां रास्ते में बिछी पड़ी थीं। मास्टर विनायक के सहयोग से लता मंगेशकर मराठी सिने जगत में प्रवेश कर गयीं। उन्होंने मराठी फिल्म 'किटि हासल' (1942) के लिए एक गाना गाया, लेकिन इस गाने को फिल्म से निकाल दिया गया।
इसके बाद लता ने गालिब के एक शेर को चरितार्थ कर दिखाया कि “मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी की आसां हो गयीं”। फिर लता ने मास्टर विनायक की मराठी फिल्म 'पहली मंगला गौर' (1942) में लता ने अभिनय भी किया और एक गीत भी गया।
लेकिन लता मंगेशकर को गीत गाने के मौक़े इतने कम मिल रहे थे कि पैसे कमाने के लिये अभिनय भी करना पड़ा।
संसार (1943), गजभाऊ (1944), बड़ी माँ (1945), जीवन यात्रा (1946), सुभद्रा (1946), मंदिर (1948) इसी नज़रिये से की गयी फ़िल्में थीं। मगर शायद बचपन में चेचक की बीमारी के चलते चेहरे पर पड़े हुए दागों ने लता मंगेशकर के मन में अभिनय के प्रति शौक को पनपने नहीं दिया। और शायद यह अच्छा ही हुआ क्योंकि लता ने सिर्फ़ गायन पर ही ध्यान केंद्रित किया और उसका जो नतीजा निकला वो सदियों तक चर्चा में रहेगा।
गायन का सफर आगे बढ़ा तो हिन्दी में गाने का मौक़ा मिला पर मराठी फिल्म 'गाजाभाऊ' (1943) के लिए। इस बीच कई संगीतकारों ने तो लता को यह कह कर खारिज कर दिया कि आवाज़ बहुत पतली है। उस समय नूरजहाँ, जोहरा बाई अंबाले वाली, राजकुमारी और शमशाद बेगम जैसी भारी आवाज़ों वाली गायिकाओं का सिक्का चलता था।
संगीतकार गुलाम हैदर और खेमचंद्र प्रकाश ने भी लता का गायन सुना और वे उनके स्वर को सुरीलेपन पर मोहित हो गए। लता को गाने के मौक़े मिल रहे थे लेकिन पूरी फिल्म में एक या दो गीत। फिल्म “गजरे (1948)” में लता को पांच गीत गाने का अवसर मिला लेकिन समय की शिला पर उनकी आवाज़ ने पहली छोप छोड़ी गुलाम हैदर के संगीत निर्देशन से सजी फिल्म “मजबूर” में। इस फिल्म के कुल आठ गीतों में से गुलाम हैदर ने सात गीत लता से गवाए।
अब लता की आवाज़ की चर्चा शुरू हो चुकी थी। अगले साल 1949 में लता महान गायिका के रूप में अवतरित हो गयीं। फिल्म “महल” उसी साल रिलीज़ हुई। खेमचंद प्रकाश ने लता से तीन गीत गवाए जिसमें से एक गीत “आएगा आएगा आएगा आने वाला आएगा” को लता ने अमर बना दिया। यह उनके जीवन का पहला हिट गीत कहा जा सकता है। लेकिन साल 1949 की कोख में शंकर जयकिशन के संगीत से सजी फिल्म “बरसात” आनी बाकी थी। जब फिल्म रिलीज़ हुई तो दुनिया लता मंगेशकर के गायन से रूबरू हो कर भौंचक्की रह गयी।
पहले इस फिल्म के गीत याद कीजिए। “जिया बेकरार है छायी बहार है जा मोरे साजना तेरा इंतज़ार है”। “हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का”। “बरसात में हमसे मिले तुम बरसात में”। “हो हो हो हो मुझे किसी से प्यार हो गया”। “बिछुड़े हुए परदेसी एक बार तो आजा तू”। इसके अलावा मुकेश के साथ मिल कर गाया यह कालजयी गीत “छोड़ गए बालम हाय अकेला छोड़ गए”। इसके बाद तो सुरैया को छोड़ हर बड़ी हिरोइन ने लता से ही गाना गवाने की ज़िद पकड़ ली।
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मगर 1949 की बात अभी ख़त्म नहीं हुई है। इसी साल नौशाद की संगीतबद्ध फिल्म दुलारी रिलीज़ हुई। सत्तर साल बाद भी इस फिल्म का ये गीत जवान बना हुआ है “ऐ दिल तुझे कसम है हिम्मत ना हारना”। अभी ठहरिये 1949 की एक और फिल्म की चर्चा के बिना बात पूरी नहीं होगी। महबूब खान इसी साल फिल्म अंदाज ले कर आए। इसके संगीतकार भी नौशाद थे। इसमें लता का गाया यह गीत कभी पुराना नहीं पड़ा। “उठाए जा उनके सितम”।
इसके बाद तो हिंदी सिनेमा के इतिहास में हर महीने लता के नाम का सुनहरा अध्याय जुड़ता चला गया। इतने सुरीले, कर्णप्रिय, यादगार और शानदार गीत लता ने गाए कि सबकी चर्चा एक समय में करना संभव ही नहीं है।
लता मंगेशकर गायकी में इतना डूब गयीं कि अपना होश भी कहां रहा। कभी शादी नहीं की। कभी शोहरत और दौलत की नुमाइश नहीं की बस दिन रात गायन की पूजा ही करती रहीं।
लता मंगेशकर ने पहली बार 1958 में बनी 'मधुमती' के गीत 'आजा रे परदेसी' के लिए 'फिल्म फेयर अवॉर्ड मिला और फिर 1966 तक हर साल ये पुरस्कार उन्हें ही मिलता रहा। 1969 में उन्होंने विनम्रता के साथ ये अवार्ड लेना बंद कर दिया ताकि दूसरों को भी मौक़ा मिल सके। साल 1990 में एक बार फिर बहुत अनुरोध पर फिल्म “लेकिन” के लिए उन्होंने फिल्म फेयर अवार्ड स्वीकार किया यानी 61 साल की उम्र में भी उनके गायन की श्रेष्ठता में कमी नहीं आयी।
अपने करियर में लता ने गीत, गज़ल, भजन, कव्वाली, मर्सिया सभी को अपनी आवाज़ दी। भाषा की सरहदें तोड़ते हुए मराठी और हिंदी के अलावा कई भारतीय भाषाओं में गाने गाए। गीत चाहे शास्त्रीय संगीत पर आधारित हो, पाश्चात्य धुन पर आधारित हो या फिर लोक धुन की खुशबू में रचा-बसा हो। हर बार लता ने सुनने वालों को मंत्रमुग्ध कर दिया।
लता मंगेशकर ने कितने गाने गाए, कितनी भाषाओं में गाए कितने संगीतकारों के लिए गाया, यह तथ्य कीर्तिमान के आँकड़ों में दिलचस्पी रखने वालों के लिये तो अहम हो सकता है लेकिन लता मंगेशकर का मूल्यांकन करने के लिये ऐसे रिकॉर्ड बेमानी हैं।
धीरे-धीरे गिरते स्वास्थ्य के चलते लता जी ने काम करना कम कर दिया, और कुछ चुनिंदा गानों में ही अपनी आवाज़ दी। लता मंगेशकर के गाए अंतिम फिल्मी गीत की बात करें तो वीर ज़ारा (2004) और सौतन (2006) में आखरी बार गाया।
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