फ़िल्मों मे विलेन हमेशा से एक ऐसा चरित्र रहा है, जो अपनी क्रूरता, दुष्टता, चालाकी, धोखेबाजी और धूर्तता से फिल्म में नायक के कद को मजबूत करता है। कभी कभी खलनायक का एक संवाद पूरी फिल्म पर भारी रहता है। “सारा शहर मुझे लायन के नाम से जानता है” (कालीचरण 1976) यह संवाद ऐसा ही था। इसे बोलने वाले विलेन का नाम था अजीत। हालांकि अजीत ने फिल्मों में खलनायक के तौर पर प्रवेश नहीं किया था। अजीत का 27 जनवरी को सौवां जन्मदिन था।
अजीत का असली नाम हामिद अली खान था। उनके पिता बशीर अली खान हैदराबाद के निज़ाम की सेना में अधिकारी थे। उन्हीं के घर 27 जनवरी 1922 को हामिद अली खान की पैदाइश हुई। कॉलेज में फ़ुटबाल खेलने और नाटक करने के अलावा हामिद को पढ़ाई में कभी दिलचस्पी नहीं रही। एक दिन क्लास में पढ़ाई को लेकर हामिद के लपरवाह रवैये से नाराज़ उनके शिक्षक ने उनसे कहा कि वो या तो अपने पिता से कह कर फ़ौज में भरती हो जाएं या फिर फ़िल्मों में क़िस्मत आज़माएं।
उस शाम घर लौटने के बाद हामिद अली ने आइने के सामने खड़े हो कर अलग अलग एंगल से ख़ुद को देखना शुरू किया। धीरे धीरे उसका ये इरादा मज़बूत होने लगा कि उसकी मंज़िल तो फ़िल्मी दुनिया ही है। कुछ ही दिनों बाद हमिद अली खान मुंबई में फिल्मों में काम तलाश कर रहे थे।
मुम्बई में फ़िल्मों में काम करने का सपना लेकर आना तो आसान है, लेकिन फ़िल्मों में काम पाना न तब इतना आसान था न आज है। लंबे कड़े संघर्ष के दौरान एक दिन हामिद जा पहुंचे निर्देशक अभिनेता मज़हर खान के पास। मजहर खान उन दिनों एक फ़िल्म "बड़ी बात (1944)" बना रहे थे। हामिद ने उनसे काम मांगा तो हामिद की कद काठी और आवाज़ को देखते हुए मज़हर खान ने हामिद को एक टीचर का छोटा सा रोल दे दिया।
संघर्ष के दिनों में हामिद की दोस्ती जिन लोगों से हुई उनमें से एक थे गोविंद राम सेठी। एक बार सेठी को फिल्म शाहे मिस्र (1946) डायरेक्ट करने का मौका मिला और उन्होंने हामिद को हीरो बना दिया। "शाहे मिस्र" तो फ्लॉप हो गयी, लेकिन इस फ़िल्म से हामिद की पहचान ज़रूर बन गयी जिसके दम पर हामिद को दूसरी कुछ फ़िल्मों में काम मिला। "जन्मपत्री", (1949) "हातिमताई", "आपबीती", चिलमन (1949) और "जीवन साथी" (1949) जैसी फ़िल्मों में हामिद अली खान बतौर हीरो नज़र आए। अब उनकी गाड़ी चल निकली थी।
1949 में अमरनाथ की फ़िल्म बेकसूर के लिये हामिद हीरो चुने गए। अमरनाथ के सुझाव पर हामिद अली खान ने अपना नाम बदल कर अजीत रख लिया।
आगे चल कर अजीत ने नूतन और नरगिस को छोड़ उस दौर की सभी हिरोइनों के साथ काम किया। लेकिन अजीत की फिल्म नास्तिक को छोड़ कोई फिल्म सुपर हिट नहीं हुई। हीरो के आखिरी दौर में अजीत के पास सिर्फ़ बी ग्रेड की फ़िल्में बची थीं।
इस फ़िल्म के बाद अजीत ने "राजा और रंक" "जीवन मृत्यु" और "प्रिंस" जैसी कई फिल्मों में काम किया लेकिन फिल्म इंडस्ट्री में उनकी धमक बनना अभी बाकी था। फिर उनके जीवन में अहम मोड़ लेकर आयी "ज़ंजीर" (1973)। इस फिल्म में अजीत ने एक ऐसे उद्योगपति धर्मदास तेजा की भूमिका निभायी जो बहुत नाप तौल कर बोलता है। जंजीर के खलनायक का रोबीला चेहरा, इस्पात की तरह सख्त लहजा और बर्फ की तरह ठंडी आवाज लोगों के दिलो दिमाग में गहरे तक बैठ गयी। ये खलनायक ठंडे सुर वाला क्रूर आदमी था। अजीत ने अपनी खास संवाद अदायगी से इस किरदार को अमर बना दिया। फिर तो उनके पास ऐसे रोल की भीड़ लग गयी।
अजीत पर्दे पर बेहद सुकून और शांति के साथ अपने गुर्गों के ज़रिये सारे काम करवाते थे। खुद लड़ाई करने में उनका विश्वास नहीं था। यातना देने और आतंक पैदा करने के नए नए तरीक़े उनकी फिल्मों का अहम हिस्सा ज़रूर होते थे। छिछोरी हरकतें करने वाले किसी भी रोल को उन्होंने कभी नहीं स्वीकारा। बलात्कार के सीन से वे हमेशा बचते रहे।
ज़ंजीर की सफलता का मज़ा अभी खत्म भी नहीं हुआ था कि उनके कैरियर में एक और उल्लेखनीय फ़िल्म आयी “कालीचरण”। फ़िल्म के एक डायलाग "सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है" को अजीत ने पूरी फ़िल्म में कई बार अपने ख़ास अंदाज़ में बोला।
और फ़िल्म के प्रदर्शन के बाद ये डायलाग भारतीय सिनेमा के सबसे चर्चित डायलाग में से एक बन गया।
अजीत हैदराबाद में अपने फार्म हाउस पर समय बिताने लगे। जब अजीत फ़िल्मों से दूर हो गए तब उनके बोले हुए डॉयलाग सबसे ज़्यादा चर्चित हो गए। उनका जंजीर में खास अंदाज़ में बोला गया वाक्य 'मोना डार्लिंग' तो लोगों को इतना भाया कि बरसों तक इसकी पैरोडी बनती रही। उनके बोले गए डायलाग को आधार बना कर चुटकुले गढ़े जाने लगे। यह अजीत की संवाद अदायगी की लोकप्रियता का चरम था।
हैदराबाद में अजीत के पास मकान, फार्म हाउस, भरे पूरे परिवार सहित तमाम सहूलियतें मौजूद थीं लेकिन उन्हें फिल्मी दुनिया की जिंदगी शिद्दत से याद आती रहती थी। और फिर एक दिन अजीत ने दोबारा बड़े पर्दे का रूख कर लिया। निर्माता निर्देशक सलीम अख्तर उनसे कई बार उनकी फिल्म में काम करने का अनुरोध कर चुके थे। एक दिन अजीत ने उनकी फ़िल्म "पुलिस अफ़सर" में काम करने के लिये हामी भर दी। इसके बाद अजीत ने कई फिल्में कीं, लेकिन अब लायन बहुत बूढ़ा हो चुका था और पर्दे पर नए खलनायकों की पूरी जमात कब्ज़ा जमा चुकी थी। 22 अक्टूबर 1998 को अजीत का निधन हो गया। उनके मरने के 23 साल बाद भी उनके अंदाज़ में चुटकले बनाने का सिलसिला जारी है। मिसाल के लिये – “ राबर्ट इसे अंडर कंस्ट्रक्शन फ्लैट दिलवा दो। बैंक की क़िस्तें इसे जीने नहीं देंगी। और मकान का पज़ेशन मिलने की उम्मीद इसे मरने नहीं देगी।“
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