आज से कोई तीन दशक पहले, लाल कृष्ण अडवाणी की रथ यात्रा और कल्याण सिंह का ओबीसी कार्ड, बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश में सत्ता के द्वार खोलने के दो प्रमुख आधार माने गए हैं।
मंदिर बनने के बाद अडवाणी की ज़रूरत तो बीजेपी को महसूस नहीं हुई लेकिन कल्याण सिंह का यूँ जाना, यूपी में पार्टी के लिए शोक के साथ साथ एक बड़ा झटका है।
कल्याण सिंह के पाँच दशक के राजनीतिक सफर को ग़ौर से देखें तो ओबीसी का उन्हें ज़बरदस्त समर्थन, जहाँ उनकी एक बड़ी ताक़त भी था वहीं एक समय ऐसा भी आया जब ये कार्ड उनकी कमज़ोरी भी बना। दरअसल कई महत्वाकांक्षी सवर्ण नेताओं को लगता था कि कल्याण सिंह के रहते, उन्हें लखनऊ में सीएम की कुर्सी शायद ही कभी मिल पाए। इसलिए कल्याण सिंह भीतरघात के शिकार भी हुए।
यूपी में अटल चेहरा थे तो कल्याण, वोट के विस्तार का आधार
लोधी समुदाय के सदस्य के रूप में, कल्याण सिंह को ओबीसी जातियों का ज़बरदस्त समर्थन मिलता रहा। सवर्ण आधार वाली बीजेपी को भी कल्याण सिंह का ओबीसी कार्ड ख़ूब रास आया। नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश में बीजेपी की जीत के पीछे यदि चेहरा अटल बिहारी वाजपेयी का था तो पार्टी के बढ़ते वोट के लिए एक प्रमुख आधार कल्याण सिंह के समर्थन में खड़ी ओबीसी जातियाँ भी थीं।
1991 में जब कल्याण सिंह यूपी के पहली बार मुख्यमंत्री बने, तो पार्टी नेतृत्व ने उन्हें सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर, ओबीसी जातियों को बीजेपी में लाने के लिए प्रोत्साहित किया।
कल्याण सिंह को इस मिशन में कामयाबी भी मिली और उनका बीजेपी में क़द भी बढ़ता गया। पर पार्टी में ऊँची जातियों के कुछ नेताओं को लगा कि वे इस ओबीसी नेता के रहते कभी मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगे। 1997 में कल्याण सिंह जब यूपी के दुबारा मुख्यमंत्री बने तो ऊँची जाति के बीजेपी नेताओं ने उनके ख़िलाफ़ लखनऊ में गोलबंदी शुरू कर दी।
उनके ख़िलाफ़ छोटे-छोटे मामले मीडिया में उछाले गए। यहाँ तक कि उनकी सहयोगी और युवा नेता कुसुम राय को लेकर इंडिया टुडे और टाइम्स ऑफ़ इंडिया जैसे राष्ट्रीय मीडिया ब्रांड में ख़बरें प्लांट करवाई गयीं। कल्याण सिंह की सरकार की कमियाँ तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तक को भी बढ़ा चढ़ाकर बतायी गयीं।
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कल्याण के विरुद्ध रचा गया था कुचक्र!
इस बीच यूपी में जब अपराध बढ़े, तो कल्याण सिंह की मुखालिफ लॉबी ने पार्टी में इसे मुद्दा बना दिया। सवर्ण जाति के कुछ शीर्ष नेता ने दिल्ली में अटल-अडवाणी के कान भरने शुरू कर दिए।
मई 1999 में बीजेपी के 36 विधायकों ने कल्याण सिंह सरकार में बढ़ते अपराध और लचर प्रशासन को लेकर इस्तीफा दे दिया। कल्याण सिंह के विरोध में प्रदेश के तीन बड़े नेता, कलराज मिश्रा, लालजी टंडन और राजनाथ सिंह भी जब खड़े दिखाई दिए तो केंद्रीय नेतृत्व को लगा कि लखनऊ में दखल देना ही पड़ेगा।
लिहाजा कल्याण सिंह को दिल्ली बुलाया गया। तत्कालीन गृह मंत्री लाल कृष्णा अडवाणी चाहते थे कि मामले को ठंडा करने के लिए कल्याण सिंह को केंद्रीय मंत्रिमण्डल में जगह दे दी जाए, पर इस ऑफर को कल्याण सिंह ने खुद स्वीकार नहीं किया। आख़िरकार कल्याण सिंह ने यूपी की कुर्सी छोड़ दी।
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बरसों तक सत्ता के लिए तरसती रही बीजेपी
कल्याण सिंह ने बाद में एक नई पार्टी, राष्ट्रीय क्रांति पार्टी (आरकेपी) बनाने के लिए बीजेपी ही छोड़ दी। उन्होंने आरकेपी के उम्मीदवार के रूप में 2002 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव लड़ा और जीता। जिस तरह बीजेपी ने 90 के दशक में उत्तर प्रदेश पर धमक बनाई रखी थी, वो धमक कल्याण सिंह के बीजेपी छोड़ते ही ख़त्म होने लगी।
सच तो यह है कि कल्याण सिंह जैसे ज़मीनी नेता को अपमानित करके जिस तरह मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाया गया था उसका असर प्रदेश में देखने को मिला। उनके जाने के बाद बीजेपी यूपी की नंबर तीन पार्टी बन गयी और उसे सत्ता में लौटने के लिए लगभग 17-18 साल इंतज़ार करना पड़ा। यही नहीं, 2004 में अटल सरकार की अप्रत्याशित हार का एक कारण यह था कि ओबीसी ने बीजेपी का लोकसभा चुनाव में उम्मीद से बेहद कम साथ दिया। यूपी की हार, भाजपा की दिल्ली में हार बनी।
तकरीबन डेढ़-दो दशक बाद, 2017 में प्रधानमंत्री मोदी और उनके चाणक्य अमित शाह ने यूपी के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर खुलकर ओबीसी कार्ड खेला और प्रचंड बहुमत से अपनी सरकार बनाई।
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