तालिबान नेता मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति बनने की दौड़ में सबसे आगे चल रहे हैं और इसकी काफी संभावना है कि देश की बागडोर उनके ही हाथों में सौंपी जाए।
इसके साथ ही कई अहम सवाल खड़े होते हैं। अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के सैन्य संगठन नेटो के ख़िलाफ़ जिस व्यक्ति ने जंग लड़ी क्या वो अमेरिका और पश्चिम को पसंद होगा ?
तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फ़ौजों के निकलने के लिये तालिबान से बातचीत के लिये 2018 में अफ़ग़ान मूल के अमेरिकी नागरिक ज़लमे ख़लीलज़ाद को अफ़ग़ानिस्तान का विशेष दूत नियुक्त किया।
बरादर की रिहाई
ख़लीलज़ाद काबुल पहुँचने के कुछ दिन बाद ही इसलामाबाद गए और पाकिस्तान सरकार को इसके लिए राजी कराया कि 2010 से जेल में बंद तालिबान नेता मुल्ला बरादर को रिहा किया जाए। शुरुआती ना-नुकुर के बाद पाकिस्तान इस पर राज़ी हो गया। नवंबर 2018 में मुल्ला बरादर रिहा कर दिए गए।
उन्होंने वहाँ से क़तर की राजधानी दोहा का रुख किया जहाँ तालिबान ने अपना मुख्यालय खोला था।
इसके कुछ ही दिन बाद यानी जनवरी 2019 में बरादर को राजनीतिक विंग का प्रमुख बना दिया गया। वे 2010 में कराची से गिरफ़्तार किए जाने के पहले तक सैन्य दस्ते के प्रमुख थे।
विदेशों से संपर्क
बरादर ने अलग-अलग देश जाकर तालिबान की ओर से उन देशों से बातचीत शुरू की। उन्होंने मॉस्को, इसलामाबाद, तेहरान और बीजिंग का दौरा किया। इन दौरों का मुख्य मक़सद इन देशों की सरकारों को तालिबान से जुड़ी आशंकाओं को दूर करना था।
विशेषज्ञों का मानना है कि नवंबर 2018 में मुल्ला बरादर की रिहाई इसी मक़सद से कराई गई थी कि वे तालिबान की ओर से शांति प्रक्रिया में भाग लें और अमेरिका से बातचीत करें।
अमेरिका मुल्ला बरादर को नरमपंथी और उदारवादी मानता है।
अमेरिकी और नेटो सैनिकों को सबसे कड़ी चुनौती मुल्ला बरादर के नेतृत्व में ही मिली, उसी दौरान उसके अधिक सैनिक मारे गए, पर अमेरिकी प्रशासन को ऐसा लगता था कि बरादर ऐसे व्यक्ति तो हैं ही, जिससे बात की जा सकती है और जिसमें यह क्षमता है कि जो भी समझौता हो, उसे लागू करवा लें।
बैक चैनल बातचीत
मुल्ला बरादर ने जिस तरह लड़ाई के दौरान भी बैक चैनल से कई बार बातचीत का प्रस्ताव अफ़ग़ान सरकार और अमेरिकी प्रशासन को दिया था, उससे उनकी छवि शांति के लिए तैयार नेता की बनी।
मुल्ला बरादर ने जिस तरह बातचीत की ज़मीन तैयार की, तालिबान के अलग-अलग गुटों को राजी कराया, उससे उनकी छवि एक स्टेट्समैन की बनी, जो उनके छापामार युद्ध वाली छवि के एकदम उलट थी।
बरादर कम बोलते थे, नाप तौल कर बोलते थे और बार-बार यह संकेत देते थे कि वे टकराव के बजाय सहयोग का रुख रखने वाले नेता हैं।
नाकाम हो सकती थी बातचीत
इस साल की शुरुआत में ऐसा लगने लगा था कि क़रार के बावजूद अमेरिका सैनिकों को वापस नहीं बुलाएगा क्योंकि राष्ट्रपति जो बाइडन पर घरेलू राजनीति का दबाव बन रहा था। उनकी अपनी डेमोक्रेटिक पार्टी रिपब्लिकन राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की आलोचना कर चुकी थी।
ऐसे में मुल्ला बरादर ने अमेरिकी जनता के नाम एक खुली चिट्ठी लिखी। इसे तालिबान की वेबसाइट 'वॉयस ऑफ़ जिहाद' पर छापा गया था। इसमें उन्होंने ज़ोर देकर कहा था कि अफ़ग़ानिस्तान संकट का निपटारा ताक़त के बल पर नहीं किया जा सकता है, इसका कोई सैन्य समाधान नहीं है और राजनीतिक समाधान एक मात्र रास्ता है।
मुल्ला बरादर का महत्व इससे समझा जा सकता है कि जलमे ख़लीलज़ाद ने कहा था कि हामिद करज़ई और अशरफ़ ग़नी, दोनों ही यह मानते थे कि मुल्ला बरादर ही तालिबान को समझौते की मेज तक ले जा सकते थे।
अमेरिकी आत्मसमर्पण!
अंत में जब समझौता हो गया तो इस पर मुल्ला बरादर और ज़लमे ख़लीलज़ाद, दोनों के दस्तख़त थे।
इस क़रार को अमेरिका का आत्मसमर्पण का काग़ज़ कहा जा सकता है क्योंकि अमेरिका बगैर किसी शर्त के अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाने पर राजी हुआ था। तालिबान से सिर्फ यह अपेक्षा की जा रही थी कि वे क़रार पर दस्तख़त होने के बाद से किसी अमेरिकी सैनिक पर हमला नहीं करेंगे, उन्हें शांतिपूर्वक निकलने देंगे।
यह समझौता अमेरिका के लिए अहम इसलिए है कि एसोसिएटेड प्रेस के अनुसार, 20 साल की लड़ाई में अमेरिका के 2,448 सैनिक, 3,846 कॉन्ट्रैक्टर, 444 राहत कर्मी और 72 पत्रकार मारे गए। इसके अलावा नेटो के 1,144 सैनिकों को जान गंवानी पड़ी।
हामिद करज़ई से गुपचुप बात?
मुल्ला बरादर ने अमेरिकी पहल के बहुत पहले बातचीत की कोशिश की थी। उन्होंने 2009 में ही तत्कालीन अफ़ग़ान राष्ट्रपति हामिद करज़ई से बातचीत की पहल की थी और बैक चैनल से गुपचुप बात भी शुरू की थी।
लेकिन तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और सीआईए प्रमुख लियोन पेनेटा इससे सहमत नहीं थे। उन्हें तालिबान पर भरोसा नहीं था और उन्हें नहीं लगता था कि यह विद्रोही संगठन समझौते को लागू करेगा। उन्हें लगता था कि तालिबान समझौते का इस्तेमाल अपने आप को मजबूत करने में करेंगे।
पाकिस्तान में गिरफ़्तार
लेकिन बात आगे बढ़ती इसके पहले ही पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेन्सी को इसकी भनक लग गई क्योंकि मुल्ला बरादर जिस क्वेटा शूरा के प्रमुख थे वह आईएसआई का ही बनवाया हुआ था और खुद बरादर उसके लोगों में से एक थे।
पाकिस्तान को यह डर था कि मुल्ला बरादर खुद बात करेंगे तो पाकिस्तान को वह अहमियत नहीं मिलेगी, जो वह चाहता है। इसलिए पाकिस्तानी पुलिस ने 8 फ़रवरी 2010 को कराची से बरादर को गिरफ़्तार कर लिया। बात वहीं ख़त्म हो गई।
अमेरिकी रणनीति
इसके बाद आठ साल तक अमेरिका और नेटो अफ़ग़ानिस्तान में फंसा रहा, उसके लोग मारे जाते रहे, उसके पास कोई उपाय नहीं था। डोनल्ड ट्रंप ने 2018 अफ़ग़ानिस्तान से हर हाल में बाहर निकलने का निर्णय किया और ज़लमे ख़लीलज़ाद को विशेष दूत बना कर अफ़ग़ानिस्तान भेजा।
मुल्ला बरादर को आगे बढाने के अमेरिकी फ़ैसले की जड़ में उसकी यह नीति भी थी कि पाकिस्तान को ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत न दी जाए। तालिबान राज में अफ़ग़ानिस्तान का राष्ट्रपति कम से कम पाकिस्तान का कोई आदमी न हो।
बरादर-पाक-भारत
बरादर के मन में पाकिस्तान के प्रति दुराग्रह होना स्वाभाविक है क्योंकि वह उसकी जेल में आठ साल तक बंद रहे, इस वजह से वह मुल्ला उमर के निधन के बाद तालिबान का प्रमुख भी नहीं बन पाए थे जबकि उमर के अस्वस्थ होने पर संगठन का रोज़मर्रा का सारा कामकाज वह देखते थे।
लेकिन इसकी आशंका कम है कि वे निजी कारणों से पाकिस्तान से रिश्ते खराब कर लेंगे।
भारत के लिए मुल्ला बरादर का अफ़ग़ान राष्ट्रपति बनना इस मायने में बेहतर है कि सिराजुद्दीन हक्क़ानी नहीं बनेंगे। सिराजुद्दीन हक्क़ानी आईएसआई के हक्क़ानी नेटवर्क के प्रमुख हैं।
हक्क़ानी राष्ट्रपति नहीं बनेंगे तो उन्हें कोई दूसरा अहम पद दिया जाएगा, यह साफ है। उनके भाई अनस हक्क़ानी पहले ही काबुल पहुँच गए थे और हामिद करज़ई से मिल कर सरकार बनाने की प्रक्रिया शुरू कर चुके थे।
इतना तो साफ है कि मुल्ला बरादर यदि अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति बनते हैं तो उसके पीछे अमेरिका की रणनीति रही है।
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