ऋग्वेद के दशम मंडल में विराट पुरुष के मुँह से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति बताई गई है। कई सौ साल तक लोग इसे मानते भी रहे। अपने पिछले जन्म के पापों का परिणाम मानकर दूसरे की सेवा करने से लेकर तमाम ऐसे कार्य करते रहे, जिसे भारत में निम्न स्तर का काम माना जाता है। उसके लिए पारिश्रमिक की भी कोई ख़ास व्यवस्था नहीं बनी। वजह यह रही कि वह करना जन्म से निर्धारित था। जाति-व्यवस्था और उसके मुताबिक़ ही काम का विरोध बहुत पहले से होता रहा है। कबीर, रैदास, तुकाराम समेत तमाम समाज विज्ञानी हुए, जिन्होंने इस जाति आधारित काम के बँटवारे (या कह लें आरक्षण) का विरोध किया। हालाँकि उससे थोड़ी बहुत सामाजिक चेतना ज़रूर आई, लेकिन इससे कोई ख़ास बदलाव नहीं हुआ।