ऋग्वेद के दशम मंडल में विराट पुरुष के मुँह से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति बताई गई है। कई सौ साल तक लोग इसे मानते भी रहे। अपने पिछले जन्म के पापों का परिणाम मानकर दूसरे की सेवा करने से लेकर तमाम ऐसे कार्य करते रहे, जिसे भारत में निम्न स्तर का काम माना जाता है। उसके लिए पारिश्रमिक की भी कोई ख़ास व्यवस्था नहीं बनी। वजह यह रही कि वह करना जन्म से निर्धारित था। जाति-व्यवस्था और उसके मुताबिक़ ही काम का विरोध बहुत पहले से होता रहा है। कबीर, रैदास, तुकाराम समेत तमाम समाज विज्ञानी हुए, जिन्होंने इस जाति आधारित काम के बँटवारे (या कह लें आरक्षण) का विरोध किया। हालाँकि उससे थोड़ी बहुत सामाजिक चेतना ज़रूर आई, लेकिन इससे कोई ख़ास बदलाव नहीं हुआ।
ज्योतिबा फुले आवाज़ नहीं उठाते तो जाति-व्यवस्था में ही जकड़ा होता देश?
- श्रद्धांजलि
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- 28 Nov, 2019

महान समाज सुधारक ज्योतिबा फुले की आज पुण्यतिथि है। उन्हें इसलिए याद किया जाना चाहिए कि आधुनिक भारत में सबसे पहले जाति आधारित काम की व्यवस्था के ख़िलाफ़ ज्योतिबा फुले ने ही धावा बोला। वह भी ऐसे समय में जब उस पर कोई बोलने से भी कतराता था। पढ़िए उन्होंने जाति-व्यवस्था पर कैसे चोट की-
आधुनिक भारत में सबसे पहले इस जाति आधारित काम के आरक्षण पर महान समाज सुधारक ज्योतिबा फुले (11 अप्रैल 1827 से 28 नवंबर 1890) ने धावा बोला। सैकड़ों साल से लोग रटते रहे कि ब्राह्मण मुँह से पैदा हुआ, शूद्र पैरों से पैदा हुआ। लेकिन अंग्रेज़ी शासन काल में शुरुआती शिक्षा पाने के बाद फुले ने ऋग्वेद को चुनौती दे डाली। उन्होंने साफ़ कहा कि किसी भी महिला, चाहे वह जिस भी जाति, धर्म की हो, गर्भ धारण का एक ही तरीक़ा है। एक ही अंग है, जिससे बच्चा पैदा हो सकता है। मुँह से बच्चा पैदा होना असंभव है।