बहुत तकलीफ है। बहुत। और बहुत डर भी लग रहा है। बहुत। तकलीफ इसलिए कि एक खुशदिल, बेहतरीन, बेहद सफल और नौजवान दोस्त ऐसे झटके से निकल गया! और डर ऐसा जैसे बस्ती के एक आदमी की बलि रोज चढ़नी है और रोज इस डर में रहना है कि पता नहीं आज किसकी बारी है! रोहित के जाने ने शरीर की सारी ताक़त निचोड़ ली है। दिमाग़ सुन्न-सा हुआ पड़ा है। और अंदर एक डर मज़बूत, बहुत मज़बूत होता जा रहा है। डर मरने का नहीं है। इस तरह से असमय और बहुत सारी ज़िम्मेदारियों को छोड़कर मरने का है। और वह भी तब जब आप तमाम सावधानी के साथ रह रहे हैं। रोहित कोरोना के इस दौर में बहुत सीमित और सुरक्षित दिनचर्या में रहे। लेकिन कोरोना ने तब भी चपेट में ले लिया।