यह 1977-78 की बात है। ऑस्ट्रेलिया में होने वाले क्रिकेट प्रसारणों के अधिकार न दिए जाने से नाराज़ कैरी पैकर ने अपनी क्रिकेट लीग शुरू की और दुनिया भर के खिलाड़ियों को ख़रीद लिया। जिन छह देशों के बीच तब टेस्ट मैच होते थे, उनमें से इक्का-दुक्का खिलाड़ियों के अपवाद के अलावा इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, वेस्ट इंडीज़ और पाकिस्तान की पूरी टीमें कैरी पैकर की लीग में चली गईं। बस एक देश की टीम को कैरी पैकर का पैसा ख़रीद नहीं सका जिसका नाम भारत था। इस भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान उन दिनों बिशन सिंह बेदी हुआ करते थे।
बिशन सिंह बेदी दरअसल भारतीय क्रिकेट की खुद्दारी और स्वाभिमान के प्रतीक थे- वे भारतीय क्रिकेट का उठा हुआ माथा थे। बेशक, कैरी पैकर में न जाने का फ़ैसला पूरी भारतीय टीम ने किया लेकिन कल्पना की जा सकती है कि अगर बेदी टूट गए होते तो पैकर सर्कस से जुड़ने वाले भारतीय खिलाड़ियों की कतार लग गई होती।
लेकिन वह भारत भी कुछ अलग था। वह पैसे के लिए नहीं, देश के लिए खेलता था। वह जीतने के लिए नहीं, लड़ते हुए हारने के लिए जाना जाता था। उस दौर की टीम को चार स्पिनरों और ढाई बल्लेबाज़ों की टीम कहा जाता था। मगर बिशन सिंह बेदी, भागवत चंद्रशेखर, इरापल्ली प्रसन्ना और वेंकट राघवन के अलावा सुनील गावसकर और विश्वनाथ मिलकर भारतीय क्रिकेट की वह धज बनाते थे जिसका दुनिया भर में एक अलग सम्मान था।
दरअसल, वह एक स्थिर भारत का दौर था- उस भारत का जिसने 25 बरस पहले आज़ादी हासिल की थी और फिर तीन-तीन युद्ध और दुनिया भर के कूटनीतिक विशेषज्ञों की संदेह भरी दृष्टि झेलते हुए अपने पांवों पर खड़ा हो रहा था। इस भारत की एक पहचान सुनील गावसकर थे जिनकी ठोस सुरक्षात्मक तकनीक, एकाग्रता और मैदान में टिके रहने की क्षमता बताती थी कि वे अपना खेल किस समर्पण के साथ खेलते हैं और उसे किस ऊंचाई तक ले जाते हैं। दूसरी तरफ़ बिशन बेदी थे जो घूमती हुई गेंदों का जादू ही नहीं, एक पूरी परंपरा अपने साथ लाए थे।
लेकिन भारतीय क्रिकेट की एक अलग सी पहचान थी- तेज़ गेंदबाजी को साहस के साथ खेलने वाले बल्लेबाज़ों की और दुनिया भर के बल्लेबाज़ों को अपने कौशल से बांध देने वाले गेंदबाज़ों की।
दरअसल, बिशन सिंह बेदी भारतीय क्रिकेट की नैतिक आवाज़ थे। वे हमेशा खेल के पक्ष में खड़े रहे। खेल के व्यावसायिक पक्ष को उन्होंने संदेह से देखा। खेल के नए प्रारूप उन्हें बहुत भाए नहीं। हालाँकि यह सच है कि इन नए प्रारूपों ने क्रिकेट की लोकप्रियता ही नहीं बढ़ाई, उसकी स्तरीयता में भी वृद्धि की। सत्तर और अस्सी के दशकों में टेस्ट क्रिकेट बहुत धीमा हो चुका था। टीमें पूरे दिन में दो सौ रन बनाया करती थीं। पांच दिन खेलने के बावजूद चार पारियां पूरी नहीं होती थीं। लेकिन नब्बे के दशक से तस्वीर बदल गई। दिन में तीन सौ रन बनने लगे और पांच दिन के मैच चार दिन में ख़त्म होने लगे। बल्लेबाज़ी ने नई रफ़्तार पकड़ी तो गेंदबाज़ी में भी नई धार आई। क्रिकेट अचानक एक रोमांचक खेल हो उठा। यह सब बिशन सिंह बेदी की आंखों के सामने हुआ।
बिशन सिंह बेदी की यह नैतिक आवाज़ क्रिकेट ने आख़िरी बार तब सुनी जब फिरोजशाह कोटला स्टेडियम का नाम अरुण जेटली स्टेडियम कर दिया गया। उन्होंने खुल कर इसका विरोध किया। यह अलग बात है कि उनके विरोध पर किसी ने बहुत ध्यान नहीं दिया। यह शायद बदला हुआ भारत है जो बस कामयाबी की आंधी में उड़ना जानता है, अपने प्रतीकों को संभालना, उनका सम्मान करना नहीं।
बिशन सिंह बेदी ऐसे समय गए जब विश्व कप चल रहा है और भारत लगातार पांच जीतों के साथ चैंपियनशिप का प्रबल दावेदार बना हुआ है। भारतीय क्रिकेट के ये स्वर्ण वर्ष हैं- सुनहरी आभा से दीप्त सितारों के साल, जिनके पास पैसा भी सोने की तरह बरस रहा है।
लेकिन यह स्वर्णिम आभा अपनी जगह है और वह इस्पाती संघर्ष अपनी जगह जिसमें बेदी जैसे खिलाड़ी तप कर निकलते थे। वह धीमी शैली के जादू पर रीझने वाला भारत था- फिल्में धीमे चलती थीं, गेंदें धीमे उड़ती हुई आती थीं, रन धीरे-धीरे बनते थे और पूरा हिंदुस्तान अपने कानों पर ट्रांजिस्टर लगाए धीमे-धीमे कमेंट्री सुना करता था। यह वह दौर था जब हमने क्रिकेट देखा नहीं सुना था। और बिशन सिंह बेदी की गेंदों का टप्पा अब भी हमारे कानों में बचा हुआ है।
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