94 साल की उम्र में मृत्यु शोक का विषय नहीं होती। लेकिन पेरिस में मिलान कुंदेरा के निधन की सूचना आते ही भारत सहित दुनिया के साहित्य प्रेमियों में जिस तरह का शोक दिखा, उससे समझ में आता है कि वे अपने पाठकों के लिए, साहित्य के संसार के लिए किस कदर जीवित और युवा लेखक थे। वे समकालीन संसार के सर्वाधिक लोकप्रिय शास्त्रीय लेखकों में रहे। मूलतः वाम वैचारिकी से संचालित विचारधारात्मक युद्ध में हमेशा विपरीत पाले में गिने गए। हालांकि वे कहते रहे कि वे किसी राजनीतिक और वैचारिक लड़ाई के योद्धा नहीं हैं, वे बस लेखक हैं और उन्हें इसी तरह देखा जाना चाहिए।
लेकिन क्या किसी लेखक को बस लेखक की तरह देखा जा सकता है? शायद यह एक विडंबनामूलक चाह थी जिसका वास्ता मिलान कुंदेरा के इस एहसास से भी था कि वे दुनिया में गलत पाले में खड़े लेखक की तरह देखे जाते हैं। दरअसल, विडंबनाएं उम्र भर मिलान कुंदेरा का पीछा करती रहीं। वे चेकोस्लोवाकिया में पैदा हुए, फ्रांस में रहने लगे, खुद को फ्रांसीसी नागरिक कहलाना पसंद करते रहे और कई बार उनकी किताबें चेक से पहले फ्रेंच में ही छपती रहीं।
विडंबना इतनी ही नहीं रही। उन्हें कॉलेज के दिनों ही अपने एक साथी के साथ कम्युनिस्ट पार्टी से निलंबित होना पड़ा। साठ के दशक में आए उनके उपन्यास 'द जोक' पर इस अनुभव की छाया थी। सोवियत सत्ता-प्रतिष्ठान और विचार की आलोचना के बाद चेकोस्लोवाकिया में रहना उनके लिए मुश्किल था। सत्तर के दशक में वो फ्रांस चले आए।
लेकिन इसमें शक नहीं कि मिलान कुंदेरा अपनी सूक्ष्म और मानवीय दृष्टि और अपने शिल्प की वजह से दुनिया में भरपूर पढ़े गए। वे उन कुछ लेखकों में रहे जिनके लिए बार-बार नोबेल की कामना की जाती रही, लेकिन नोबेल नहीं मिला। द जोक ने उनको जो कीर्ति दी, उसे उनकी परवर्ती कृतियां बढ़ाती रहीं। ‘लाइफ़ इज़ एल्सव्हेयर’ उनका दूसरा उपन्यास था जिसमें फिर चेकोस्लोवाकिया के वाम शासन की आलोचना नज़र आती रही बल्कि इस उपन्यास को पढ़ते हुए ख़याल आता है कि कुंदेरा कवियों को नापसंद करते थे या फिर ख़ारिज करते थे। उपन्यास का नायक एक कवि है जो भोला-भाला बनाया गया है। वह जिस लड़की से शादी करता है, उससे प्रेम नहीं करता। उसकी कविता भावनात्मक उछाह से उपजती है, वैचारिक स्थिरता से नहीं।
जिस बहुत खूबसूरत शीर्षक वाले उपन्यास के लिए इन दिनों मिलान कुंदेरा को सबसे ज़्यादा याद किया जाता है, वह ‘द अनबीयरेबल लाइटनेस ऑफ़ बीइंग’ है।
उपन्यास का नायक एक बहुत कुशल डॉक्टर है जो चेक क्रांति के बाद अपनी पत्नी और कुत्ते के साथ प्राग छोड़ कर चला जाता है। हालांकि यह डॉक्टर कई महिलाओं से प्रेम करता है। उधर यह जलावतनी उसकी पत्नी नहीं झेल पाती- वह प्राग लौट आती है। बाद में डॉक्टर भी लौटता है। उपन्यास की कहानी मानवीय संबंधों के द्वंद्व से लेकर राजनीतिक दबावों के खेल की छाया के बीच बढ़ती है। पति और पत्नी के घिस रहे संबंधों के बीच मरता हुआ कुत्ता भी एक पुल बना देता है।
सच यह है कि यह इन उपन्यासों की बहुत स्थूल व्याख्या है। मिलान कुंदेरा बहुत सावधान लेखक है। वह मन के भीतर उतरना जानता है, मन के तनावों को पढ़ना जानता है। सामाजिक जीवन और राजनीतिक दुरभिसंधियों को पहचानता है, सच और प्रचार के बीच के फ़र्क को समझता है और इन सबको ऐसी भाषा में लिखता है जो बहुत सुसंगत और तार्किक है।
बाद के वर्षों में ‘इमोर्टलिटी’, ‘स्लोनेस’ या ‘आइडेंटिटी जैसी उनकी किताबें आती रहीं और उनकी लेखकीय-वैचारिक विस्तारों के सुराग देती रहीं। द फेस्टिवल ऑफ़ इन्सिग्निफिकेंस एक ऐसे शख़्स की कहानी है जिसने बचपन से अपनी मां को नहीं देखा है।
कुंदेरा के उपन्यास अक्सर कई हिस्सों में, कई किरदारों में बंटे होते। इसके अलावा अपनी जड़ों से कटने की, विस्थापन और अकेलापन झेलने की जो बीसवीं सदी की एक प्रिय कथा रही है, वह कुंदेरा के लेखन में बार-बार लौटती रही। उनमें न मारक़ेज के जादुई यथार्थवाद वाली चमक थी, न सलमान रुश्दी की भाषिक तड़क-भड़क। उनमें एक तरह की सादगी और सधाव था जो पाठक को आतंकित नहीं, आकर्षित करता था। उन्हें दुनिया भर के कई सम्मान मिले, नोबेल मिलता तो यह भी एक बड़ा सम्मान होता, लेकिन सबसे ज़्यादा जो चीज़ मिली, वह पाठकों का स्नेह था। उनको पढ़ते हुए अपने होने का, अपने वजूद का जो असहनीय हल्कापन है, उसको ठीक से समझने का, अपने-आप को खोजने का एहसास होता है। सच तो ये है कि दुनिया का सारा साहित्य अंततः अपनी तलाश का ही साहित्य होता है, लेकिन कुछ लेखकों का आईना ऐसा होता है जिसमें हमें हमारी छुपी हुई शक्लें भी दिख जाती हैं। कुंदेरा अक्सर यह छुपी शक्ल दिखाते रहे। यह अमूमन होता है, लेकिन उनके मामले में शायद यह कुछ ज्यादा होगा कि उनकी उपस्थिति कुछ दिन बहुत गूंजती रहेगी।
(बीबीसी हिंदी से साभार)
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