मणिपुर का वीडियो हमारे भीतर एक भयावह सिहरन पैदा करता है। वह दिमाग को सुन्न कर डालता है, रक्त को रगों में कहीं जमा डालता है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि हम इस वीडियो में अन्याय और अपमान की भयावह अमानुषिकता को बिल्कुल नंगी आंख से देख पाते हैं। लेकिन मणिपुर ने ऐसे दृश्य पहले भी देखे हैं। कई बरस पहले इसी तरह की अमानुषिकता ने मणिपुर की महिलाओं को निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन करने को बाध्य किया था।
इस बार भी हमें नहीं पता कि महिलाओं से बर्बरता की यह इकलौती घटना थी या और भी बहुत सारी महिलाएँ ऐसे ख़ौफनाक उत्पीड़न की शिकार हुईं। लेकिन यह संदेह बेजा नहीं है कि हमारी और भी नागरिकों को ऐसा कुछ भुगतना पड़ा होगा। दंगे, युद्ध या किसी तरह के संघर्ष में महिलाओं का इस तरह शिकार होना अब लगभग एक आम ऐतिहासिक परिघटना बन चुका है जिसके साक्ष्य बहुत सारे हैं।
वह सब हमें नहीं चुभता क्योंकि वह हमारी आँखों के सामने घटा नहीं होता है या उसकी बिल्कुल वास्तविक तस्वीर हमने देखी नहीं होती है।
लेकिन इस तरह का अन्याय तो चारों तरफ पसरा हुआ है और न्याय की मशीनरी कई बार उसका संरक्षण करती दिखाई पड़ती है।
बिलकीस बानो के बलात्कारियों के प्रति बरती गई राज्य की उदारता और फिर उनका सार्वजनिक सम्मान अभी इतनी ताज़ा घटना है कि उसे याद करने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती। इसी तरह देश की जानी-मानी पहलवानों ने अनशन किया, बारिश में रातों को खुले आसमान के नीचे सोईं, पुलिस की मार झेली, रोईं, लेकिन बृजभूषण शरण सिंह का बाल भी बांका न हुआ। क्या इससे हमारी चेतना में कोई हूक पैदा हुई? अगर नहीं तो हमें मणिपुर के वीडियो पर शर्मिंदा होने का कितना हक़ है?
यह टिप्पणी न आत्मधिक्कार के लिए लिखी जा रही है न राजनीतिक तौर पर यह साबित करने के लिए कि इस मामले में मौजूदा सत्ताधारी दल घड़ियाली आंसू बहा रहा है। सच तो यह है कि यह मामला एक समाज और देश के रूप में हमारी विफलता का नतीजा है।
मणिपुर और स्त्रियों के मामले में इस विफलता का एक और पहलू है। मणिपुर को जैसे हम देश का हिस्सा मानते ही नहीं। इसी तरह स्त्रियों को नागरिक नहीं मानते।
उनके प्रति हम सदय होते हैं तो उन्हें बहू-बेटियां बना लेते हैं और निर्दयी होते हैं तो कपड़े उतार कर उनका वीडियो बना लेते हैं। इस बार भी बहू-बेटी की इज़्ज़त का जो विलाप चल पड़ा है, वह बताता है कि हम अब भी अपने पाखंड से मुक्त होने को तैयार नहीं।
ऐसा नहीं कि मणिपुर को लेकर हमारे आंसू नकली हैं, वे बेशक असली होंगे, वाक़ई बहुत सारे लोगों को इस वीडियो ने ऐसी दहशत से भर दिया होगा कि वे शर्मिंदा भी होंगे। लेकिन इन आंसुओं का, इस शर्म का क्या मोल है? हम बहुत सारी फिल्में देखते हुए भी रो पड़ते हैं- यह जानते हुए भी कि हम एक नकली कहानी देख रहे हैं। और फिर सिनेमा घर से बाहर निकल कर पॉपकॉर्न खाते हुए हम किसी अगली फिल्म का इंतज़ार कर रहे होते हैं।
क्या मणिपुर भी हमारे लिए एक ऐसा ही हादसा है जो कुछ देर हमें रुलाएगा, कुछ पल के लिए अवसन्न कर देगा और फिर हम रोज़ की अपनी नफ़रत की राजनीति में लग जाएंगे- जब तक कोई दूसरा वीडियो सामने नहीं आ जाता?
यह डर बिल्कुल निराधार नहीं है। 16 दिसंबर 2012 के निर्भया प्रसंग के बाद हमने कानून बहुत सख्त बना दिए, लेकिन उससे अभी तक कुछ बदलता नहीं दिख रहा है। औरतों के उत्पीड़न और उनके साथ होने वाली हिंसा में कोई कमी नहीं आई है।
मणिपुर के संदर्भ में इस वाकये का एक और हताश करने वाला पहलू है। मणिपुर की स्त्रियों का एक जुर्म यह है कि वे अपनी नागरिकता के प्रति सचेत हैं, वह बरसों तक धरने पर बैठ जाती हैं, वे ज़रूरत पड़ने पर सेना के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने के लिए उतर आती हैं, वे हिरासत में लिए गए लोगों को पुलिस को ले जाने नहीं देतीं। वे अपनी आज़ादी के लिए इस तरह के दंड की भागी हैं।
निस्संदेह इस मामले के जटिल पहलू हैं। आमने-सामने खड़ी कर दी गई दो जनजातियां एक दूसरे से प्रतिशोध ले रही हैं। पुरुष मारे जा रहे हैं और स्त्रियों के साथ दूसरी तरह का बर्बर व्यवहार हो रहा है।
इसके पीछे की राजनीति जो भी हो, लेकिन वह विभाजनकारी है, इसमें संदेह नहीं। किसी राष्ट्र राज्य को ऐसी विभाजनकारी राजनीति मंज़ूर नहीं होनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से अभी जो लोग सत्ता में हैं वह ऐसी ही राजनीति के लिए जाने जाते हैं। वे धर्म के आधार पर भेदभाव करते हैं, जाति के आधार पर भेदभाव करते हैं, अपनी पढ़ी हुई मनुस्मृति के मुताबिक लैंगिक आधार पर भेदभाव करते हैं। वे निर्भया के मुजरिमों को फांसी पर चढ़ाते हैं लेकिन बिलकीस के गुनहगारों को माला पहनाते हैं।
बिलकीस के गुनहगारों और मणिपुर के गुनहगारों में ज़्यादा अंतर नहीं है। दोनों पुरुष हैं। दोनों पराए समुदायों से प्रतिशोध लेने निकले हैं। दोनों को समझ में आता है कि स्त्रियां इस प्रतिशोध का सबसे आसान और बेबस ज़रिया हैं।
हम मानें ना मानें लेकिन दुनिया भर में स्त्रियों से बलात्कार राजनीतिक दमन का भी औजार है। इस औजार का कभी सेनाएं इस्तेमाल करती हैं, कभी धार्मिक ध्वजधारी, कभी तथाकथित आंदोलनकारी, कभी दंगाई और कभी कोई अन्य वर्ग।
मणिपुर पर लौटें। वहां दो महीने की जो भीषण हिंसा चली है, उसके बाद किसी भी सरकार का अपने पद पर बने रहना अनैतिक है- खासकर ऐसी सरकार का जिसके मुख्यमंत्री पर पक्षपात का आरोप लग रहा है और शांति समितियों में शामिल किए गए लोग यह आरोप लगा रहे हैं। लेकिन बात-बात पर महाराष्ट्र से बंगाल तक राष्ट्रपति शासन की मांग करने वाली पार्टियां मणिपुर पर चुप हैं और प्रधानमंत्री तमाम राज्यों से अपील कर रहे हैं कि वे कानून व्यवस्था ठीक रखें। यह अपील भी एक शर्मनाक वीडियो है।
दरअसल सच्ची बात यह है कि हमने अपने बहुत सारे प्रदेशों, बहुत सारे समुदायों की राजनीतिक अवस्थिति का, उनकी समान नागरिकता का कभी सम्मान नहीं किया। यह अनायास नहीं है कि इस देश में अन्याय की सबसे ज़्यादा मार दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों और उनके पक्ष में खड़े आंदोलनकारियों पर पड़ रही है। उन्हें जेल में डाला जा रहा है, उन्हें ज़मानत नहीं मिल रही है, उनके कपड़े उतारे जा रहे हैं, उनका वीडियो बनाया जा रहा है, सोशल मीडिया पर उसे वायरल किया जा रहा है और इतना कुछ होते हुए भी वहां सत्ता प्रतिष्ठान का एक पत्ता भी खड़कने को तैयार नहीं है।
यह ज़रूरी है कि हम अपने लोगों को उनकी नागरिकता लौटाएं, स्त्रियों का बहू-बेटी वाला दर्जा घर में रखें, समाज में उन्हें नागरिक मानें, उनका सम्मान करना सीखें। यही बात देश के दूसरे नागरिक समूहों के लिए भी सच है। जब तक यह नहीं होगा तब तक देर-सबेर दूसरों के प्रति अन्याय, उनकी अवमानना और उनके साथ अमानुषिक सलूक के वीडियो आते रहेंगे और हम कुछ देर को शर्मिंदा होते रहेंगे।
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