टेस्ट क्रिकेट में ऑस्ट्रेलियाई विजय के अश्वमेघ को रोकने के लिए राहुल द्रविड़ और वीवीएस लक्ष्मण की जोड़ी ने क्रिकेट इतिहास में अपनी महानता को स्थायित्व दे दिया। लेकिन, क्या कभी आपने इस बात पर पलटकर भी सोचा है कि वन-डे वर्ल्ड कप में कैरेबियाई अश्वमेघ को रोकने वाले यशपाल शर्मा को कभी वह तारीफ़ क्यों नहीं मिली जिसके वह हकदार थे?
भारत ने पहला वर्ल्ड कप 1983 में जीता और फ़ाइनल मैच का हर एक लम्हा हर पीढ़ी को शायद याद हो लेकिन कितने लोगों को याद है कि वेस्टइंडीज़ को वर्ल्ड कप में हराया भी जा सकता है, इस बात का भरोसा सबसे पहले यशपाल शर्मा ने ही दिया था? बेहद शक्तिशाली क्लाइव लॉयड की वेस्टइंडीज़ टीम को वर्ल्ड कप के इतिहास में पहली हार दिलाने में सबसे अहम भूमिका निभायी थी यशपाल शर्मा की 89 रनों की पारी ने। इसके लिए उन्हें मैन ऑफ़ द मैच का ख़िताब भी मिला था।
वह दौर भारतीय क्रिकेट में मुंबई के प्रभुत्व का दौर था और इसलिए मीडिया में कभी भी उस बेजोड़ पारी की वैसी चर्चा नहीं हुई। 1983 वर्ल्ड कप के दौरान ही इंग्लैंड के ख़िलाफ़ सेमीफ़ाइनल में भी यशपाल शर्मा ने 61 रन की एक यादगार पारी खेली। लेकिन, यशपाल शर्मा की इन दो पारियों को उनके आलोचक हमेशा कम करके आँकते रहें क्योंकि उनके करियर के आँकड़ें उतने चमकदार नहीं थे।
निश्चित तौर पर यह तर्क दिया जा सकता है कि 37 टेस्ट में 33.45 का औसत और महज 2 शतक किसी बल्लेबाज़ को महानता का दर्जा नहीं दिला सकता। ठीक उसी तरह से 42 वन-डे मैचों में 28.48 का औसत भी किसी शानदार खिलाड़ी की योग्यता के साथ मेल नहीं खाते हैं। लेकिन, वर्ल्ड कप जीतने वाली टीम का हिस्सा होना और उस टीम की जीत में अहम किरदार निभाना कई बार करियर के बड़े से बड़े आँकड़ों पर भी बहुत भारी पड़ता है।
यक़ीन न हो तो द्रविड़ और लक्ष्मण से ही कभी पूछ लिजियेगा जिनके आँकड़ें अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में ज़बरदस्त हैं लेकिन वर्ल्ड कप जीतने वाली टीम का हिस्सा होने के लिए वो सब कुछ त्यागने के लिए आपको तैयार दिखेंगे। शायद किसी ने सही ही कहा है कि महानता हर समय आँकड़ों की मोहताज नहीं होती है।
यशपाल जी से मेरी पहली मुलाक़ात 2003 वर्ल्ड कप के दौरान टीवी चैनल आजतक के दफ्तर में हुई थी जब वह क्रिकेट एक्सपर्ट की भूमिका के लिए पूरे टूर्नामेंट के दौरान हर रोज़ आते थे। यशपाल जी के पास क्रिकेट के क़िस्सों का अंबार हुआ करता था और वो दिलचस्प अंदाज़ में उसे सुनाया करते थे। कई बार खेल के जटिल पहलुओं और बारीकियों को वह बेहद आसान तरीक़े से समझाया करते थे। लेकिन, एक बात जो उन्हें तमाम पूर्व खिलाड़ियों से अलग किया करती थी वह था उनका विनम्र व्यवहार। दफ्तर के लिफ्टमैन से लेकर संपादक तक को पहले अभिवादन करने वाले यश जी ही हुआ करते थे।
भले ही वो चैंपियन टीम के खिलाड़ी थे लेकिन वो हम सबों के साथ ऐसा रवैया अपनाते जैसे वो हमारी टीम का हिस्सा हैं। बड़े-छोटे काम को लेकर किसी तरह का अहम नहीं और आलम ये कि जूनियर से जूनियर तक के लिए वो चाय का प्याला लेकर आगे आ जाया करते थे। अपनी टीम के खिलाड़ियों को चाय-पानी पिलाने की बात को वह मैदान पर 12वें खिलाड़ी के ड्रिंक्स पहुँचाने वाली बात से जोड़कर ठहाके लगा दिया करते थे।
यशपाल शर्मा जी के असामयिक निधन ने न सिर्फ़ क्रिकेट जगत को झकझोर दिया है बल्कि 1983 की उनकी टीम के साथियों को एक बहुत बड़ा झटका दिया है। उस टीम का एक खिलाड़ी अब कभी भी उनके साथ नहीं दिखेगा।
मुझे याद है कि शुरुआती दिनों में जब मैं अक्सर यशजी को ये दलील देता था कि पाजी वक़्त ही नहीं बचता है फिटनेस पर ध्यान देने के लिए तो बड़े भाई वाले अंदाज़ में वो अक्सर पलटकर कहा करते थे- भाई, अगर 24 घंटे में तुम केवल 1 घंटे अपने शरीर के लिए नहीं दे सकते हो तो निश्चित तौर पर तुम्हारे जीने का सलीका सही नहीं है। क्योंकि इसी एक घंटे के चलते उस शरीर को 24 घंटे चलने की ऊर्जा मिलेगी! उनके तमाम क्रिकेट की बातों और क़िस्सों की बजाए उनकी यह सलाह हमेशा के लिए ज़हन में कैद हो गई।
रिचर्ड्स और धोनी के उन शॉट्स को इतिहास ना जाने कितनी बार याद करता है और उन्हें टीवी पर भी बार-बार दिखाया जाता है, लेकिन यशपाल के उस शॉट्स को बहुत कम लोग याद कर पाते हैं। वजह शायद यही कि उन्होंने हमेशा ख़ुद को लो-प्रोफाइल रखा। और शायद यही वजह है कि उनकी फील्डिंग को भी वह तारीफ नहीं मिली जिसके वह हकदार थे। कीर्ति आज़ाद जैसे साथी ने सच ही कहा कि आज जो लोग रविंद्र जडेजा के स्टंप्स पर अचूक निशाने की बातें करते हैं उन्होंने यशपाल शर्मा को खेलते हुए नहीं देखा।
शुक्रिया यशपाल जी उन तमाम यादों के लिए, मैदान से और मैदान के बाहर जिन्होंने न जाने कितने दिलों को छुआ और अपनेपन का एहसास कराया।
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