इस हफ्ते यूरो फाइनल में मेज़बान इंग्लैंड की हार के बाद जैसे कुछ फुटबॉलप्रेमी बौखलाए, उससे दुनिया भर में शायद ही कोई चौंकता क्योंकि कई दशकों से इंग्लिश फुटबॉल प्रेमी की छवि उपद्रवी और दंगाई के तौर पर बनी हुई है। लेकिन, दुख की बात यह थी कि टीम की हार के लिए भड़के फैंस ने अपने ही मुल्क के खिलाड़ियों पर निशाना साधा। सबसे ज़्यादा मायूस करने वाली बात ये रही कि तीन अश्वेत खिलाड़ियों मार्कस रशफोर्ड, बुकायोसाका और जेडन सांचो पर नस्लीय और भद्दी टिप्पणियाँ की गईं। ये इतना शर्मनाक था कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को खुद सार्वजिनक तौर पर ऐसे रवैये की निंदा कनी पड़ी जो खुद हमेशा से देश और समाज को बांटने वाले सिद्धांतों की वकालत करते आये हैं।
भारत में बैठे खेल प्रेमियों को इंग्लैंड फुटबॉल समर्थकों का ये रवैया बेहद अजीब लग सकता है। इसकी वजह ये है कि क्रिकेट के लेंस से इंग्लैंड के खेल-प्रेमी बिलकुल अलग दिखते हैं। हकीकत में अगर बात की जाए तो इंग्लैंड क्रिकेट ने पिछले कुछ दशक में रंगभेद और नस्लभेद जैसी सामाजिक कुरीतियों को जड़ से मिटाने के लिए कुछ बेहतरीन प्रयास किए हैं।
अगर आज आप इंग्लैंड की टीम पर नज़र दौड़ायेंगे तो आपको दुनिया का एक ख़तरनाक तेज़ गेंदबाज़ जोफ्रा ऑर्चर मिलेगा जो अश्वेत है और कैरिबियाई मूल का है। क्रिस जोर्डन भी कैरिबियाई मूल के अश्वेत खिलाड़ी हैं जबकि मोईन अली पाकिस्तानी मूल के ऑलराउंडर हैं। अतीत में जायें तो टोनी ग्रेग से लेकर केविन पीटरसन तक ना जाने कितने साउथ अफ्रीकी खिलाड़ी ना सिर्फ इंग्लैंड के लिए खेले बल्कि कप्तानी जैसी बड़ी ज़िम्मेदारी भी संभाली।
हाल ही में जब पूरी दुनिया में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ का कैंपेन चला तो इंग्लैंड क्रिकेट ने एक बार फिर से बड़ी हिम्मत दिखायी। क्रिकेट का प्रसारण करने वाली स्काई स्पोर्ट्स ने वेस्टइंडीज़ के पूर्व गेंदबाज़ माइकल होल्डिंग को इतना बड़ा और खुला मंच दिया कि उन्होंने इंग्लैंड क्रिकेट बोर्ड की ही धज्जियाँ उड़ा दीं। माइकल एथर्टन से लेकर नासिर हुसैन तक बेहद सम्मानित पूर्व कप्तानों ने भी माना कि पिछले कई दशकों से अश्वेत खिलाड़ियों के प्रति इंग्लैंड का नज़रिया सही नहीं रहा और इसमें सुधार की काफी गुंजाइश है। अच्छी बात है कि इंग्लैंड क्रिकेट ने इन आलोचनाओं को गंभीरता से सुना, वो भड़के नहीं और अपने सिस्टम को और दुरुस्त करने का बीड़ा उठाया।
लेकिन, फुटबॉल में ऐसा हमें क्यों देखने को नहीं मिलता है? इंग्लैंड के कई जानकार इसके लिए इंग्लिश प्रीमियर लीग के क्लचर को दोष देते हैं। पिछले कुछ दशकों से इंग्लैंड फुटबॉल में पैसा और क्लब इतने हावी हो गये कि हर बात के लिए सबसे ज़्यादा अहमियत इन्हें ही दी जाने लगी।
पहले अलग-अलग क्लबों के प्रशंसक मज़ाकिया तौर पर मैदान में मैच के दौरान भिड़ते थे और इससे एक अलग तरह का माहौल बनता था। धीरे-धीरे मैदान पर शराब और बीयर पीने का कल्चर फुटबॉल का हिस्सा हो गया और इसके बाद हालात धीरे-धीरे ऐसे बिगड़े कि हुड़दंग को काबू में रखना किसी के बूते में नहीं रहा।
स्थानीय जानकार अब भी मानते हैं कि ब्रिटेन को समाज के तौर पर अंदर झांकने की ज़रूरत है क्योंकि मसला सिर्फ फुटबॉल का नहीं है। आज का इंग्लैंड कई बातों के चलते बँटा हुआ दिखता है जिसकी झलक आपको फुटबॉल मैचों में अप्रत्याशित हार के बाद उसकी घिनौनी प्रतिक्रिया के तौर पर दिखती है। वैसे, यह महज़ इत्तिफ़ाक़ नहीं है कि 1970 वाले दशक से ही इंग्लिश फुटबॉल में दंगाई संस्कृति पनपने लगी थी। उसी दौर में हर क्लब के साथ अश्वेत खिलाड़ियों का प्रतिनिधित्व धीरे-धीरे बढ़ता चला गया। ये वही दौर था जब अश्वेत खिलाड़ियों के ऊपर केले फेंक दिये जाते थे और उन्हें मंकी-मंकी कहकर चिढ़ाया जाता था।
इंग्लैंड की ऐसी घटनाओं से भारत को और ख़ास तौर पर भारतीय क्रिकेट को सबक़ लेने की ज़रूरत है। इंग्लिश प्रीमियर लीग की ही तर्ज पर भारत में आईपीएल की चकाचौंध और इसका पैसा क्रिकेट की भविष्य की राह तैयार कर रहा है। टेलिविजन में ज़्यादा से ज़्यादा दर्शकों को खींचने के लिए चेन्नई सुपर किंग्स और मुंबई इंडियंस के फैंस के बीच सोशल मीडिया में तकरार को लुत्फ लेकर देखा जा रहा है। लेकिन, धीरे-धीरे यही बात कब राष्ट्रीय टीम को नुक़सान पहुंचाने लगे इसका किसी को अंदाज़ा नहीं है।
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कहीं और दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। सोशल मीडिया पर रोहित शर्मा बनाम विराट कोहली के मुद्दे पर कुछ भी लिखें या कोई बड़ा खिलाड़ी ब्यान दे, आप देखिये किस तरह से रोहित और विराट की तथाकथित फैंस आर्मी भिड़ जाती है। ये फैंस भूल जाते हैं कि आखिर में ये दोनों भारत के ही खिलाड़ी हैं।
भारत में हमेशा से ही रंगभेद और नस्लीय भेद को खेल की दुनिया में ख़ासकर क्रिकेट में बहुत ही हल्के तौर पर लिया जाता है। हाल के समय में लक्ष्मण शिवरामकृष्णन जैसे पूर्व टेस्ट खिलाड़ी से लेकर अभिनव मुंकुंद जैसे युवा ने खुलासा किया है कि कैसे उन्हें काला सुनकर पूरे करियर के दौरान तानों से गुजरना पड़ा। ऐसा न सिर्फ़ मैदान में मौजूद फैंस करतें है बल्कि कई मौके पर साथी खिलाड़ी भी अंजाने में ऐसी बातों से दिल दुखा जाते हैं।
निजी तौर पर मुझे याद है कि जामिया मिलिया इस्लामिया के क्रिकेट मैदान में इस सदी की शुरुआत में मुंबई बनाम दिल्ली के रणजी ट्रॉफ़ी मैच में दर्शकों ने विनोद कांबली को अपनी फब्तियों से परेशान कर दिया था।
“ऐ कांबली तू चैरीबलोज्म से भी काला क्यों है” जैसे शब्दों को सुनने के बाद हमारी प्रतिक्रिया तीखी नहीं थी क्योंकि खुद कांबली ने इसे बेहद शालीनता से झेला था। तथाकथित छोटी जाति से ताल्लुक रखने वाले कांबली को शायद बचपन से ही ऐसे भेदभाव पूर्ण रवैये की आदत सी पड़ गयी थी जिसका सार्वजनिक तौर पर उन्होंने विरोध करना छोड़ दिया था।
लेकिन, तब की दुनिया और तब का भारत कुछ और था, और आज का भारत और आज की दुनिया कुछ और है। और यही वजह है कि इरफान पठान जैसे खिलाड़ी ने भी हाल के दिनों में ये खुलासा करने से परहेज नहीं किया कि कैसे उन्हें करियर के शुरुआती दौर में मुसलमान होने के चलते एक ख़ास तरह के अपशब्द सुनने पड़ते थे जिसे हिंदू साथी महज़ मज़ाक का हिस्सा मानते थे।
हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के टेस्ट कप्तान टिम पेन ने तेज़ गेंदबाज़ पैट कमिंस से बड़ी दिलचस्प बात कही। उनका कहना था कि खुद श्वेत होने के चलते उन्हें कभी यह आभास ही नहीं होता था कि उनके साथी खिलाड़ी जो अश्वेत या दूसरे वर्ग से आते थे उन्हें किन मुश्किलों से गुज़रना पड़ता है। इन दोनों खिलाड़ियों ने माना कि समाज में नस्लभेद और रंगभेद वाली कई कुरीतियों की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता था लेकिन ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ मूवमेंट ने उनकी सोच को बदल दिया।
ऐसे में अहम सवाल ज़रूर उठता है कि भारतीय खिलाड़ी ख़ासकर विराट कोहली और जसप्रीत बुमराह जैसे सुपरस्टार भारतीय समाज की इस बीमारी पर कभी खुलकर अपनी राय रखेंगे? क्या कोहली कभी ऐसी बात कहेंगे जिससे यह लगे कि जातिवाद वाली सोच रखने वालों को एक सबक मिले?
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क्या धोनी कभी ऐसी बात कहेंगे जिससे ऐसा लगे कि दूसरे धर्म और सम्प्रदाय के बारे में एक ख़ास तरह की सोच रखना समाज के लिए कितना हानिकारक साबित हो सकता है? ऐसा इसिलए ज़रूरी है कि युवराज सिंह जैसे खिलाड़ी के मुँह से ही अनजाने में ही सही युज़वेंद्र चहल के लिए अपमानजनक शब्द निकल जाता है जिसके चलते सोशल मीडिया में बवाल मचने पर माफी माँगनी पड़ती है।
भारतीय क्रिकेट को इंग्लिश फुटबॉल कल्चर से सबक लेने की ज़रूरत है वर्ना जो इंग्लैंड में हुआ वैसा ही तमाशा आनेवाले सालों में क्रिकेट स्टेडियम में दिख सकता है क्योंकि भारतीय समाज में भी शायद अब पहले वाली सहनशक्ति नहीं रही।
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