वर्ष 2000 में एशिया वीक पत्रिका को उनमें भारत की सबसे उदीयमान और नौजवान राजनीति नज़र आई। उनके बारे में अपनी किताब ‘एडिटर अनप्लग्ड’ में वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता ने लिखा, ‘हालाँकि वह निरंतर राजनीतिक रूप से ऊपर उठने के नशे में रहते हैं, और संभवत: दिल्ली के सबसे बड़े किस्सेबाज़ हैं…जेटली को पढ़े-लिखे पत्रकारों की संगत बहुत पसंद है और वह ख़ुद को हर जानकारी से लैस रखना पसंद करते हैं।’
जब मेहता आउटलुक के संपादक थे तो इस पत्रिका ने 2009 में भारत के सबसे बेहतरीन किस्सों पर कवर स्टोरी की थी और जेटली का नाम उसमें सबसे ऊपर था। इसमें लिखा था, ‘इस वकील-राजनेता के लिए किस्से-कहानियाँ सिर्फ़ सामाजिक वैधता या मन बहलाने का ज़रिया नहीं हैं, बल्कि उनका जुनून है। जो ख़ुश किस्मत पत्रकार उनके दरबार में जगह पाते हैं। उनका वे पत्रकारों और संपादकों समेत लगभग सभी की निज़ी ज़िंदगियों के क़िस्से सुनाकर मनोरंजन करते हैं।’ आउटलुक की यह सूची जेटली के दोस्तों के नाम से भरी पड़ी थी। इसमें पूर्व पत्रकार और कांग्रेस सांसद राजीव शुक्ला, समाजवादी पार्टी के अमर सिंह, सुहेल सेठ तथा वीरेंद्र और कूमी कपूर शामिल थे।
मंत्री बनने के शुरुआती सालों में पहले बतौर सूचना एवं प्रसारण और फिर क़ानून और न्याय, ये विचार प्रधानमंत्री वाजपेयी से लगातार बढ़ते अलगाव का कारण बने क्योंकि बीजेपी के नौजवान नेता आडवाणी के क़रीब दिखना चाहते थे, जिनका प्रधानमंत्री बनना लगभग तय था। उस दौर में भारतीय जनता पार्टी का अंदरुनी संघर्ष या गुटबाज़ी आये दिन कहीं न कहीं ख़बरों में छपती रहती थी।
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