राजनीतिक हलकों में हवाओं के बदलते रुख के साथ जेटली ने बड़े कारगर तरीक़े से ख़ुद को ढाला। इसके लिए उन्होंने मीडिया और कॉर्पोरेट जगत में अपने संबंधों का भी जमकर इस्तेमाल किया।
सत्ता के पायदान पर जेटली के निरंतर उत्थान पर राजनीति के विशेषज्ञ अक्सर यह टिप्पणी करते हुए सुने गए कि ‘बीजेपी में होनहार लोगों की भारी कमी है और उसका फ़ायदा जेटली को मिलता गया।’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब उन्हें अपनी पहली सरकार में वित्त, रक्षा और कॉर्पोरेट अफ़ेयर्स के मंत्रालय सौंपे तो सभी को पार्टी के लिए जेटली का महत्व समझ में आया। आज मीडिया भले ही ‘गोदी मीडिया’ के रूप में अपनी पहचान बना चुका है, लेकिन इस मीडिया ने अरुण जेटली की राजनीति को सँवारने में बड़ी भूमिका निभाई।
जेटली का मीडिया के क़रीब आना भी एक बड़े घटनाक्रम से जुड़ा था। आपातकाल के बाद जब इंदिरा गाँधी सत्ता में वापस आ गईं तो सरकार ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को आपातकाल के दौरान की गई उसकी कवरेज का सबक़ सिखाने के लिए, पिछली सरकार द्वारा उसके दफ़्तर को दी गई बिल्डिंग का परमिट ख़ारिज़ कर दिया। यह काम सरकार ने डीडीए के ज़रिए करवाया था।
अख़बार के मालिक रामनाथ गोयनका और कार्यकारी डायरेक्टर अरुण शौरी, अधिवक्ता रयान करांजवाला के पास मदद माँगने गए। करांजवाला ने जेटली को अपने साथ लगा लिया। ‘क्योंकि केस के अनुसार जेटली की उसमें महारत थी। कोर्ट ने अख़बार को स्टे ऑर्डर दे दिया। केस के चलते जेटली का गोयनका से मज़बूत रिश्ता बन गया, जिनसे वे कभी बतौर छात्र मिले थे।
अस्सी के दशक में राजनेताओं, उद्योगपतियों और अख़बारों के मालिकों के बीच छिड़े इस युद्ध में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का मामला एक छिटपुट घटना थी। वफ़ादारियाँ बॉम्बे डाईंग के मालिक नुस्ली वाडिया और रिलायंस टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड के मालिक धीरुभाई अंबानी के बीच बँटी हुई थीं। या तो युद्ध अदालतों के कठघरों में लड़े जाते थे या अख़बारी काग़ज के हर एक इंच पर।
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