देश भर में चुनावी माहौल है। एग्ज़िट पोल के नतीजों को लेकर चर्चाओं का दौर जारी है। लेकिन इन सबमें एक चीज पर जो चर्चा नहीं हो रही है वह है मीडिया की भूमिका। पिछले कुछ वर्षों में देश में सुप्रीम कोर्ट से लेकर चुनाव आयोग तक सबकी टूटन बाहर निकल कर आयी लेकिन इस दरकते संघीय ढाँचे पर चर्चा क्यों नहीं? देश की जनता के मौलिक अधिकारों के संरक्षक की प्रतीक इन संवैधानिक संस्थाओं या यूँ कह लें कि सत्ता के विकेंद्रीकरण के स्वरूप के संकट पर जब हमारा मीडिया ध्यान नहीं दे रहा है तो क्या यह माना जाय कि उसके हित अब वे नहीं रहे जिसके लिए उसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में बताया जाता रहा है?
लोकतंत्र के चौथे खंभे के सदस्यों से सत्ता में बैठे लोगों के साथ यारी गाँठने की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसी दोस्ती का नतीजा हुआ कि मीडिया में एक बड़ा बँटवारा हुआ। विचारधाराओं को लेकर मीडिया में पहले भी खेमेबाज़ी हुआ करती थी। एक ख़ास विचारधारा से आने वाले पत्रकारों ने जनता के मुद्दों को तरजीह देते हुए पत्रकारिता की तो, कुछ अपनी ढुलमुल नीतियों के साथ सरकार और जनता के बीच सामंजस्य बिठाते नज़र आते रहे थे। राम जन्मभूमि आन्दोलन और उसके बाद देश में उभार पर आयी भगवा राजनीति, नई आर्थिक नीतियों और भूमंडलीकरण का जब देश में प्रयोग शुरू होने लगा उस दौर में भी पत्रकारिता में विभाजन की स्पष्ट रेखा नज़र आती थी, लेकिन ख़बरों के प्लेटफ़ॉर्म यानी मीडिया इन सबके समुच्य के रूप में ही जाना जाता था।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के युग में मीडिया का समुच्य बिखर-सा गया और मीडिया दो भागों में चिन्हित होने लगा 'गोदी मीडिया ' या 'उदारवादी मीडिया'।
गोदी मीडिया यानी सरकार की गोद में बैठा मीडिया जिसका वीभत्स रूप आज का लोकतंत्र देख रहा है, ने अपने आर्थिक समीकरण का सहारा लेकर 'उदारवादी मीडिया 'को मुख्यधारा से कहीं दूर धकेल दिया। जिस मीडिया का अस्तित्व ही सवाल पूछने और सत्ता में बैठे लोगों की जवाबदेही तय करना था अब सरकार से सवाल नहीं पूछना उसका मॉडल बन गया है। यानी पत्रकारिता के अलावा वह सब कुछ सिर्फ़ करना जिसे जन-संपर्क की कवायद कहा जाता है। और यह कवायद हमारे देश में मीडिया का टैग लगाकर चल रही पत्रकारिता द्वारा की जा रही है।
पाँच साल में मोदी की प्रेस कॉन्फ़्रेंस
अब ज़रा इस पत्रकारिता के क्रियाकलाप पर एक नज़र डालते हैं। नरेन्द्र मोदी की पहचान एक ‘संवाद में माहिर’ नेता की है, लेकिन 26 मई, 2014 को कुर्सी पर बैठने के बाद से अब तक उन्होंने एक भी प्रेस कॉन्फ़्रेंस नहीं की। चुनाव-प्रचार ख़त्म होने वाले दिन वह प्रेस कॉन्फ़्रेंस में दर्शन मुद्रा में उपस्थित हुए भी लेकिन अपनी बात कही और किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया। लेकिन उसके बावजूद वहाँ पत्रकारिता का टैग लगाए उपस्थित किसी पत्रकार का आत्म सम्मान नहीं जागा और ना ही उसे इस बात का एहसास हुआ कि जिस पेशे का वह प्रतिनिधित्व कर रहा है उसका काम सत्ता से सवाल करना है ना कि उसके दिशा-निर्देशों के अनुरूप चलना। किसी लोकतंत्र के प्रधानमंत्री द्वारा प्रेस कॉन्फ़्रेंस करना सरकार की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का मुख्यधारा के मीडिया के प्रति रुख या यूँ कह लें कि नफ़रत के बारे में सबको पता है, लेकिन उसके बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति निवास व्हाइट हाउस में नियमित प्रेस कॉन्फ़्रेंस की परंपरा को समाप्त नहीं किया गया है।
लेकिन हमारे देश के प्रधानमंत्री सोशल मीडिया के ज़रिए किसी सम्मानित बुजुर्ग जैसा एकतरफ़ा संवाद और रेडियो पर प्रसारित होने वाली उनकी ‘मन की बात’ वास्तव में लोकतंत्र और एक स्वतंत्र प्रेस की भूमिका के प्रति निकृष्ट अवमानना के भाव को प्रकट करता है। इसे सवालों से बचने की रणनीति भी कहा जा सकता है। लोकतांत्रिक दुनिया में मोदी एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिन्होंने आधिकारिक तौर पर सवाल पूछे जाने की प्रथा को अंगूठा दिखा दिया है। उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रेस सलाहकार तक की नियुक्ति नहीं की है, जबकि इसका रिवाज-सा रहा है।
प्रधानमंत्री के विदेशी दौरों में पत्रकार क्यों नहीं?
मोदी ने विदेशी दौरों के वक़्त प्रधानमंत्री के हवाई जहाज़ में पत्रकारों को साथ ले जाने की परंपरा को भी ख़त्म कर दिया। गोदी मीडिया ने इस फ़ैसले का दिल खोलकर स्वागत किया और इसे पत्रकारों को मिलने वाली ‘खैरात’ को बंद करने वाला कदम क़रार दिया। लेकिन, उन्हें तथ्यों की सही जानकारी नहीं थी, क्योंकि विभिन्न मीडिया घरानों का प्रतिनिधित्व करने वाले पत्रकार विदेशों में अपने ठहरने का ख़र्च ख़ुद उठाते थे। वह सिर्फ़ प्रधानमंत्री के जंबो एयरक्राफ्ट पर उनके साथ मुफ्त में यात्रा किया करते थे, जिसमें ज़रूरत से ज़्यादा खाली जगह होती है और प्रधानमंत्री भी करदाता के पैसे से ही इसमें सफर करते हैं। प्रधानमंत्री के सहयात्री होने से संवाददाताओं और संपादकों को प्रधानमंत्री से सवाल पूछने का मौक़ा मिलता था।
इसके विपरीत प्रधानमंत्री के इंटरव्यू किसी इवेंट की तरह से दिखाए जाने लगे। चुनाव-प्रचार के दौरान अभिनेता अक्षय कुमार द्वारा किया गया इंटरव्यू ऐसी ही एक पहल है।
अमेरिकी मीडिया ने एकजुट होकर ट्रंप की जवाबदेही तय करने का फ़ैसला किया है, भारतीय मीडिया का एक धड़ा, जिसे ख़ुब बख्शीश और मुआवजों से लाद दिया गया है, भोंपू बनकर रह गया है। अब सवाल यह उठता है की मीडिया के इस आवरण को हटाकर वैकल्पिक मीडिया कैसे खड़ा होगा? सूचना तकनीक में आयी क्रांति की वजह से एक नए मीडिया का उभार इस चुनाव में कहीं न कहीं नज़र आया भी है लेकिन क्या वह प्रभावी सिद्ध हुआ है, इस बार का चुनाव परिणाम इस बात पर भी मोहर लगाने वाला है। जिस तरह के एग्ज़िट पोल कहानी सुना रहे हैं इससे तो यही लगता है कि मुख्यधारा का कथित मीडिया जो अब भोंपू बन चुका है उसने सरकार के प्रचार को लोगों के दिमाग में उतार दिया है। अगर एग्ज़िट पोल के आँकड़े सही साबित नहीं हुए तो फिर वैकल्पिक मीडिया और भोंपू मीडिया में संघर्ष शुरू होगा और तब जनता को तय करना है कि उसे सच जानना है या सरकारी तंत्र वाला प्रचार।
अपनी राय बतायें