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अटल-आडवाणी भी दो-दो सीट से चुनाव लड़े थे, क्या वे डरते थे?

राहुल गाँधी इस बार अमेठी के साथ केरल की वायनाड लोकसभा सीट से भी चुनाव लड़ेंगे। कांग्रेस के एलान के बाद बीजेपी तिलमिलाई हुई है। बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह, मोदी सरकार के मंत्री और बीजेपी का हर छोटे-बड़े प्रवक्ता राहुल को घेर रहे हैं। बीजेपी के तमाम नेता कह रहे हैं कि राहुल अमेठी में स्मृति ईरानी के मुक़ाबले अपनी हार से डर गए हैं। इसलिए अमेठी छोड़कर भाग रहे हैं। बीजेपी के कई नेताओं ने राहुल गाँधी को 'रणछोड़' तक बता दिया है।

तो क्या राहुल गाँधी कोई पहले नेता हैं जो एक साथ दो सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं? पिछले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात की वड़ोदरा और उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट से एक साथ चुनाव लड़ चुके हैं। तो इसे क्या कहा जाए?

तब मोदी वड़ोदरा और वाराणसी दोनों सीटों से चुनाव जीते थे। बाद में उन्होंने वड़ोदरा सीट से इस्तीफ़ा दे दिया और अभी लोकसभा में वाराणसी से प्रतिनिधित्व करते हैं। इस पर बीजेपी नेता कह रहे हैं कि वह बीजेपी की रणनीति थी। उनका तर्क है कि मोदी जी ने अपने विचार और कार्यक्रम को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाने की रणनीति के तहत दो जगह से चुनाव लड़ा था। दूसरी बात यह कही जा रही है कि मोदी जी ने पहले वाराणसी से चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया था। उसके बाद गुजरात की बीजेपी इकाई ने उनसे आग्रह किया कि आप 13 साल राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं लिहाज़ा आप को लोकसभा का चुनाव गुजरात से भी लड़ना चाहिए। उनके आग्रह पर मोदी जी ने गुजरात से चुनाव लड़ा था।

बता दें कि हाल तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में भी चर्चा रही कि वह वाराणसी के साथ-साथ उड़ीसा की पुरी लोकसभा सीट से भी चुनाव लड़ेंगे। 

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अब ठीक वैसे ही हालात राहुल गाँधी के साथ हैं। वह अमेठी से लोकसभा के चुनाव 2004 से 2014 तक लगातार जीतते रहे हैं। इस बार दक्षिण भारत में कांग्रेस के सहयोगी दल राहुल को दक्षिण भारत से चुनाव लड़ने का न्योता दे चुके हैं। कांग्रेस की केरल इकाई ने भी बाकायदा प्रस्ताव पारित करके राहुल से केरल की किसी सीट से चुनाव लड़ने का आग्रह किया है। वहीं डीएमके नेता और मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री रहे अलागिरी ने राहुल से आग्रह किया था कि अगर वह दक्षिण भारत में कहीं से लोकसभा का चुनाव लड़ते हैं तो इससे उनकी छवि उत्तर भारत और दक्षिण भारत को जोड़ने वाले नेता के रूप में बनेगी। बीजेपी के आरोपों के जवाब में कांग्रेस की तरफ़ से यही बातें कही जा रही हैं। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि मोदी सरकार के दौरान उत्तर दक्षिण भारतीय राज्यों के साथ भेदभाव हुआ है। इसलिए राहुल उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच के फ़र्क को ख़त्म करने के लिए केरल से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं।

क्या अल्पसंख्यक तुष्टीकरण है?

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने राहुल गाँधी के वायनाड से चुनाव लड़ने के फ़ैसले को अल्पसंख्यक तुष्टीकरण का नाम दिया है। उनका कहना है कि इस सीट पर मुसलमानों और ईसाइयों की संख्या हिंदुओं के मुक़ाबले ज़्यादा है इसीलिए राहुल इस सीट से चुनाव लड़ कर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति पर मुहर लगा रहे हैं। क्या इस तर्क के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि वाराणसी सीट का चुनाव नरेंद्र मोदी ने इसलिए किया था कि वहाँ पर है हिंदुओं की तादाद ज़्यादा है? 

अगर पुरी सीट का चुनाव नरेंद्र मोदी के लिए किया जाता है तो वह भी इसीलिए कि वहां पर हिंदुओं की तादाद ज़्यादा है? क्या यह माना जाए कि नरेंद्र मोदी वाराणसी और पुरी से चलकर हिंदू तुष्टिकरण की नीति पर चल रहे हैं? बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ख़ुद गांधीनगर की सीट से लड़ रहे हैं। वह सीट पूरी तरह हिंदू बहुल है। तो क्या माना जाए कि वह हिंदुओं का तुष्टिकरण करने के लिए गांधीनगर से चुनाव लड़ रहे हैं?

वाजपेयी पर भी लगा था डरने का आरोप

बीजेपी के दो शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी भी दो-दो सीटों से चुनाव लड़ते रहे थे। तो क्या उन्हें भी यही कहा जाएगा कि वह हार के डर से दो-दो सीटों पर चुनाव लड़ते थे। अटल बिहारी वाजपेयी ने तो अपना पहला ही चुनाव 1952 में उत्तर प्रदेश की दो सीटों मथुरा और लखनऊ से लड़ा था। दोनों सीटों पर उनकी ज़मानत ज़ब्त हो गई थी। 1957 में दूसरे लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी मथुरा, बलरामपुर और लखनऊ से एक साथ तीन सीटों पर चुनाव लड़े थे। बलरामपुर से वह जीते थे, लखनऊ में वह दूसरे नंबर पर आए थे और मथुरा में उनकी जमानत ज़ब्त हो गई थी। 1991 में अटल बिहारी वाजपेयी लंबे समय के बाद लखनऊ से फिर चुनाव लड़े। तब वह मध्य प्रदेश की विदिशा लोकसभा सीट से भी चुनाव लड़े थे। तब वाजपेयी पर ठीक उसी तरह के सवाल उठे थे जैसे आज राहुल पर उठ रहे हैं। 

उस वक़्त समाजवादी पार्टी की तरफ़ से चर्चा थी कि वह वाजपेयी के ख़िलाफ़ फ़िल्म स्टार शबाना आज़मी को लखनऊ से चुनाव मैदान में उतार सकती है।

अटल बिहारी वाजपेयी ने इसी बीच 1991 में लखनऊ के साथ विदिशा से भी चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया। तब समाजवादी पार्टी की तरफ़ से यह कहा गया था कि वाजपेयी हार के डर से विदिशा भागे हैं।

1984 में कांग्रेस ने अटल बिहारी वाजपेयी के ख़िलाफ़ ग्वालियर में माधवराव सिंधिया को चुनाव मैदान में उतारकर उन्हें चुनाव में हरा दिया था।

कांग्रेस ने आडवाणी को घेरा था

1991 में ही बीजेपी के दूसरे बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी नई दिल्ली के साथ-साथ गुजरात की गाँधीनगर सीट से भी लोकसभा का चुनाव लड़े थे। नई दिल्ली सीट पर कांग्रेस ने उनके ख़िलाफ़ मशहूर फ़िल्म स्टार राजेश खन्ना को उतारा था। तब कांग्रेस की तरफ़ से ठीक इसी तरह के दावे किए गए थे। तब कांग्रेस की तरफ़ से कहा गया था कि आडवाणी हार के डर से गाँधीनगर चुनाव लड़ने भागे हैं।

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तब अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी दोनों ने ही दोनों सीटों से जीत दर्ज करके विपक्ष के दावों की हवा निकाल दी थी। वाजपेयी ने विदिशा सीट से इस्तीफ़ा दिया था और लखनऊ सीट का प्रतिनिधित्व किया था। बाद में वाजपेयी 2009 तक इसी सीट का प्रतिनिधित्व करते रहे। 2009 में उन्होंने चुनावी राजनीति से संन्यास ले लिया था। वहीं आडवाणी ने नई दिल्ली लोकसभा सीट इस्तीफ़ा दे दिया था। लालकृष्ण आडवाणी ने गाँधीनगर सीट अपने पास रखी और हाल ही में अपना टिकट कटने तक उसी सीट से लोकसभा में प्रतिनिधित्व करते रहे।

बता दें कि बीजेपी ने 1999 में सोनिया गाँधी पर भी ऐसे ही आरोप लगाए थे जब सोनिया ने अपना पहला चुनाव रायबरेली के साथ कर्नाटक के बेल्लारी सीट से भी लड़ा था। इसी तरह इंदिरा गाँधी 1980 में रायबरेली के साथ आंध्रप्रदेश की मेडक सीट से एक साथ चुनाव लड़ा था।

आज बीजेपी का हर छोटा-बड़ा नेता राहुल गाँधी पर अमेठी का रण छोड़ कर भागने का आरोप लगा रहा है। अब इन तमाम नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि जब अटल और आडवाणी जैसे नेता दो-दो लोकसभा सीट से चुनाव लड़े थे तो क्या वे भी 'रणछोड़' थे? क्या उन्हें भी हार का डर सता रहा होता था? अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी के साथ-साथ उड़ीसा की पूरी सीट से भी चुनाव लड़ने का फ़ैसला करते हैं तो तब क्या वे नरेंद्र मोदी को भी 'रणछोड़' कहेंगे?

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यूसुफ़ अंसारी
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