निम्न-मध्यवर्गीय मुसलिम मन की पड़ताल
दुनिया भर में फ़िक्शन में ढेरों साहित्यकारों ने मुसलिम मन की पड़ताल करने की कोशिश की है। लेकिन शानी ने 'काला जल' के जरिए मुसलिम निम्न-मध्यवर्गीय समाज का जो अद्वितीय और अत्यंत प्रामाणिक खाका भाषाई सौंदर्यशास्त्र के समस्त शिखरों को छूकर खींचा है, वह विश्व साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है।'काला जल' उपन्यास नहीं एक महान दस्तावेज़ है। किसी महान लेखक का और क्या हासिल हो सकता है कि महज एक कृति उसे किवदंती बना दे और सायास होकर भी वह उस सरीखी दूसरी रचना संभव न कर पाए। कोई दूसरा रचनाकार भी न कर पाए!
इसीलिए कहा जाता है कि 'काला जल' शानी का कीर्ति स्तंभ भी है और समाधि-लेख भी। इसे उन्होंने 1959 के आसपास लिखना शुरू किया था और 1961 तक अंजाम दे दिया। इस अवधि तक शानी बाकी सब भूलकर 'काला जल' को सुपुर्द-ए-कलम करते रहे। प्रख्यात समालोचक डॉ धनंजय वर्मा इसकी रचना-प्रक्रिया के चश्मदीद गवाह हैं।
छपने का इंतजार
जिस उपन्यास 'काला जल' को आगे जाकर एक महान ऐतिहासिक मुकाम हासिल करना था-उसकी रचना प्रक्रिया की कई दिलचस्प कहानियाँ हैं, तो उसके प्रकाशन के किस्से भी कम ग़ौरतलब नहीं। इसकी हस्तलिखित पांडुलिपि 372 पेज की थी। बदनसीबी इस उपन्यास के पात्रों की ही नियति नहीं थी, बल्कि इसके प्रकाशन की भी थी। पूरे चार साल 'काला जल' की पांडुलिपि छपने के लिए कभी इधर-कभी उधर भटकती फिरती रही। राजकमल प्रकाशन के पास दो वर्ष बंधक रहने के बाद अंततः 1965 में (राजेंद्र यादव के) अक्षर प्रकाशन से इसका संस्करण आया। आलोचकों और पाठकों के बीच यह एक बड़ी बेचैन साहित्यिक घटना बन गया।मुसलिम मन की गहरी परतों को इससे पहले किसी कलम ने इस मानिंद नहीं खोला था। कहीं भी किसी भी भाषा में। व्यापक हिंदी समाज में खलबली-सी मची कि नॉवेल की रेंज इतनी दूर भी जा सकती है!
कई भाषाओ में अनुवाद
कई भाषाओं में 'काला जल' के अनुवाद हुए और विश्व स्तर पर चर्चा। रूसी व लिथवानी में भी अनुवाद हुए। रूसी शब्द-संसार में बहुत कम दूसरी भाषाओं के लेखन का खुला स्वागत किया जाता है, लेकिन जिनका किया गया उनमें 'काला जल' आज भी अव्वल दर्जा रखता है। रूस की यात्रा से लौटकर भीष्म साहनी और पंजाबी उपन्यासकार गुरदयाल सिंह ने भी इसकी पुष्टि की। 12 जुलाई, 1970 के क्रॉनिकल (अंग्रेजी अखबार) में इसके रूसी अनुवाद की खबर छपी। रूसी-हिंदी के विद्वान डब्लू. ए. चर्नीशोव ने इसका अनुवाद किया है और अनुवाद में 'काला जल' शीर्षक ही रखा गया है।
वस्तुतः 'काला जल' एक बंधे-ठहरे जीवन की अनेक त्रासदियों से भरी महागाथा है। इस उपन्यास में दरपेश हाशिए के मुसलिम समाज के अहम सवालों के जवाब अभी भी नदारद हैं। अदब से भी और सियासत से भी।
क्या कहा था शानी ने?
खुद शानी ने 'काला जल' की रचना- भूमि की बाबत लिखा है: ‘भारत की अल्पसंख्यक जाति मुसलिम अपने आप में मुझे समस्या लगती है, अतः उसके बारे में सचेतन रूप से या वैसे भी लिखना मेरी विवशता है। मेरा बड़ा उपन्यास 'काला जल' इसी दिशा में एक प्रयास है-एक विशाल कैनवस पर लिखित, दरअसल, यह उपन्यास 'अतीत-वर्तमान-भविष्य- संबंध का एक बड़ा नाटक है जिसका रंगमंच मध्यमवर्गीय मुसलिम परिवार है।’राही मासूम रज़ा, असगर वजाहत, आलमशाह ख़ान, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मंजूर एहतेशाम और नासिरा शर्मा की (हिंदी) कृतियों में मुसलिम अंतरधाराओं की साहित्यिक विवेचना मिलती है। लेकिन 'काला जल' मुसलिम संस्कृति के जिन अनछुए पहलुओं के बीच जाता है-वैसा काम अन्यत्र नहीं हुआ।
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