उपन्यास की शुरुआत तरबूज की फांक-सी लाल है और वहीं दीवार पर खून से लिखा हुआ है पिशाच। एक बड़े कवि, विचारक और पेंटर का कत्ल हुआ है। जगह पर बढ़ती हुई भीड़ है। सफेद और स्याह चेहरों पर विस्मय है। चीलों-सी स्पर्धा में पारंगत रिपोर्टर लड़कियां हैं। फटे हुए इश्तेहार की तरह फड़क रहे पुलिस अफसर हैं और कवि के निजी संबंधों में पेचकस घुमाने की गुंजाइश तलाशते हुए अपने-अपने स्टूडियो में बैठे टीवी के कर्ता-धर्ता हैं। कवि की हत्या का दुख उन्हें भी है, लेकिन शायद एक कप चाय के ठंडे हो जाने के दुख से कम।
ये सारे दृश्य वरिष्ठ पत्रकार और लेखक संजीव पालीवाल के नए उपन्यास ‘पिशाच’ से हैं।
यह उपन्यास एका से छपकर आया है। इस उपन्यास में भी संजीव पालीवाल टीवी की उसी दुनिया में उतरे हैं, जो उनके पहले उपन्यास ‘नैना’ की दुनिया थी, जहाँ खबर साबुन की तरह झाग छोड़ती है, जहां रिश्ते मुहावरा बदलने की फिराक में नजर आते हैं और टीवी एंकर के कान हमेशा चीख से सटे रहते हैं।
कत्ल एक बड़े कवि, विचारक और पेंटर गजानन स्वामी का हुआ है, जो उम्रदराज हैं। गरीबों और वंचितों की फिक्र करता है। सार्वजनिक कार्यक्रमों में लोकप्रिय हैं। दोस्ती को लेकर उम्र को बाधक नहीं मानता और उसकी जिंदगी का एक बड़ा सूत्र यह उभरकर सामने आता है कि 'मेरी पुकार पर तुम उत्तर दो या न दो, लेकिन तुम पुकारोगे तो मैं जरूर जवाब दूंगा।' जाहिर है, स्वामी जी लड़कियों में भी खासे लोकप्रिय थे।
कत्ल राजधानी दिल्ली के एक लगभग पॉश इलाके के उस अपार्टमेंट में हुआ है, जहां स्वामी किराए के एक फ्लैट में अकेले और हमेशा लोगों की प्रश्नवाचक निगाहों के बीच रहते थे।
कत्ल की यह खबर बड़ी थी और इस कत्ल ने किसी चीज को सही जगह पर रहने नहीं दिया था, न संज्ञा, न विशेषण और न ही सर्वनाम। आदर के सारे वाक्य ध्वस्त हो गए थे और जिज्ञासा के सारे सवाल चूक गए थे... और यहीं आकर लगता है कि उपन्यासकार के पास बेहतरीन किस्सागोई है, रहस्य को गूंथने के लिए बौद्धिक धागा है और पाठक को बांधे रखने की कला है।
कत्ल...कत्ल...फिर कत्ल...फिर कत्ल! क्राइम के अक्सर प्रचलित दृश्यों से अलग उपन्यासकार ने एक ऐसी ‘अबूझ सम्मोहक’ दुनिया बसाई है कि शब्दों में सोए हुए पत्थर चौंक उठते हैं। पढ़ते हुए दिमाग तब झटका खाता है, जब पता चलता है कि कातिल एक लड़की है...और फिर ऐसा लगता है, मानो वह लड़की ढेर सारे सपने लेकर खून मांगने निकली हो।
सस्पेंस अंतिम पृष्ठ तक है, जहां खुद चलकर आया एक शख्स चार कत्ल की बात कुबूल करता है। अपने पहले उपन्यास ‘नैना’ में सिहरन के जो तत्व उपन्यासकार से छूट गए थे, इसमें पकड़ लिए गए हैं। ‘पिशाच’ में एक सपना कुतर रहा है दूसरे सपने का जिस्म।
‘पिशाच’ में बहुत कुछ अनकहा भी है और उस अनकहे से उपजे स्पेस में पाठकों की कल्पना ढेर सारी कुलांचे भरती है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए इस बात का अहसास भी होता है कि महानगर के बेगानेपन में इंसान कैसे अपनी धुरी खो देता है और हमेशा मौत केवल जिंदगी को भूलने का नाम नहीं होती।
(साभार : अमर उजाला)
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