कथा सम्राट प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह 'सोज़-ए-वतन (1908) को जब ब्रिटिश हुक़ूमत ने प्रतिबंधित किया था और बाज़ार में जहाँ-तहाँ इसकी प्रतियों को जलाकर ख़ाक़ कर दिया था तब किसी ने कल्पना भी न की होगी कि आज़ाद भारत में कभी ऐसा 'कलयुग’ भी आएगा जब उनके लिखे को विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों से बेदखल किया जाएगा और उनके लिखे को कूड़ा कहने की जुर्रत की जाएगी।
हिंदी की प्रमुख कथा पत्रिका 'हंस' के सम्पादक संजय सहाय ने 20 जून को 'फ़ेसबुक' के एक लाइव इंटरव्यू में कहानियों के मूल्यांकन पर पूछे गए पाठकों-लेखकों के सवाल जवाब की शृंखला में मुंशी प्रेमचंद का लेखकीय मूल्यांकन करते हुए बड़बोलेपन में कहा कि- प्रेमचंद की 20-25 कहानियों को छोड़ बाक़ी सब ‘कूड़ा’ हैं।
'हंस' का प्रकाशन सबसे पहले स्वयं मुंशी प्रेमचंद ने 1930 में शुरू किया था। 1933 में बड़ी धज के साथ इसका 'बनारस विशेषांक' निकाला गया जो हिंदी साहित्य के विकास में रामचंद शुक्ल से लेकर दर्जनों तत्कालीन साहित्यकारों की याद आज तक संजोये रखता है। 1936 में प्रेमचंद के निधन के बाद इसे निकालने की कई कोशिशें हुई लेकिन कामयाब न हो सकीं। 1980 के दशक में बहुचर्चित कथाकार राजेंद्र यादव ने प्रेमचंद के प्रपौत्रों से इसके अधिकार ख़रीद कर इसका पुनर्प्रकाशन शुरू किया। श्री यादव ने इसे न सिर्फ़ नए और तेज़ तर्रार कहानीकारों की रचनाओं का मंच बनाया बल्कि हिंदी साहित्य में अनेक क़िस्म के सामाजिक-सांस्कृतिक संवादों को अपनी इस पत्रिका के ज़रिये जन्म भी दिया और उनको पुष्प पल्लवित भी किया। हाँ, वह इसके अंतर मुखपृष्ठ पर मूल संस्थापक के रूप में प्रेमचंद का नाम लिखना नहीं भूले थे।
मौजूदा सदी के दूसरे दशक में, यादव जी की मृत्यु के बाद संजय झा 'हंस' के सम्पादक बने। गया (बिहार) के एक बड़े रेलवे कॉन्टेक्टर का काम करते-करते कैसे वह 'हंस' के सम्पादक बने, यह कहानी दिलचस्प है लेकिन रेलवे लाइन के नीचे लकड़ी के गाडर बिछाने वाला कारोबारी कैसे प्रेमचंद के महान साहित्यिक योगदान के नीचे पलीता सुलगाने की हिम्मत कर गया, यह आश्चर्यजनक है।
प्रेमचंद आधुनिक विश्व साहित्य के उँगलियों पर गिने जाने वाले उन कथाकारों में हैं जिनकी कहानियों और उपन्यासों का अनुवाद आज भी सभी भारतीय भाषाओं सहित विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में होता है। 21वीं सदी के भारत में उन पर हमला बोलने वाले हंस संपादक संजय सहाय पहले महापुरुष नहीं हैं।
प्रेमचंद भारतीय साहित्य में अकेला ‘हीरो’
भारतीय समाज में जो नायकत्व प्रेमचंद को मिला, वह हिंदी प्रदेश के किसी दूसरे साहित्यकार को नसीब नहीं हुआ है। भारतीय साहित्य के वह अकेले ऐसे ‘हीरो’ हैं जिसका इक़बाल आज भी बुलंद है। सन 1936 ' के प्रगतिशील लेखक संघ' के पहले अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा था, ‘अब साहित्य केवल मन बहलाव की चीज़ नहीं है, मनोरंजन के सिवाय उसका और भी कुछ उद्देश्य है। अब वह केवल नायक-नायिका के संयोग-वियोग की कहानी नहीं सुनाता किन्तु जीवन की समस्याओं पर भी विचार करता है और उन्हें हल भी करता है।....... हमें सौंदर्य की कसौटी बदलनी होगी।’ साथ ही 'संघ' के नामकरण में 'प्रगतिशील' शब्द के औचित्य पर सवाल उठाते हुए उन्होंने यह भी कहा था, 'लेखक स्वभावतः प्रगतिशील होता है। अगर वह उसका स्वभाव न होता तो शायद वह साहित्यकार ही न होता।’
हिंदी के वरिष्ठ आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने अपनी बहुचर्चित किताब 'प्रेमचंद' में उनकी कहानियों की विस्तार से समालोचना करते हुए उन्हें साहित्य और समाज के लिए उपयोगी कहा है। अपनी दूसरी पुस्तक ‘प्रेमचंद और उनका युग' में वह लिखते हैं, ‘कला का रूप कैसा हो, यह उसके कथानक पर निर्भर करता है।’
इसके बाद डॉ. शर्मा ने 'निर्मला' से लेकर 'रंगभूमि' और 'गोदान' तक की रचनाओं पर विस्तार से चर्चा की है। वह कहते हैं कि प्रेमचंद उपन्यास लेखन की पश्चिमी धारा का अनुसरण नहीं करते बल्कि वह भारतीय साहित्य में व्याप्त 'पंचतंत्र' से लेकर 'लोक कथाओं' की क़िस्सागोई परम्परा से अपने उपन्यासों को रचते चलते हैं। उनकी कहानियों पर बात करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं,
“
प्रेमचंद के पात्र आज भी हमारे सामने जीवित हैं। किसी के चरित्र का अधःपतन हो गया है, किसी का शायद पुनर्जन्म हो गया है। बहुतेरे पात्र संभवतः नए ढंग से सोचने लगे हैं।
मुक्तिबोध
प्रेमचंद की ज़्यादातर कहानियाँ संकट में जूझते ऐसे चरित्रों, घटनाओं और समाजों की कहानियाँ हैं जो आज भी जीवंत हैं। उनके आख़िरी 20 सालों की सम्पूर्ण कहानियों की विवेचना की जाए तो वे 21वीं सदी के भारतीय समाज का घटनाक्रम और चरित्र दिखती हैं। दहेज़ की माँग, अछूत परंपरा का वर्चस्व, घूस, भ्रष्टाचार, भूमि सुधार की तात्कालिक आवश्यकता, निर्धनता, कम वेतन में ज़्यादा काम, लचर सरकारी तंत्र, असहाय ग़रीब, वह सब कुछ जो आज घट रहा है। यदि इन्हें लॉकडाउन झेलते-तड़पते करोड़ों निर्धनों से जोड़ा जाए तो सब की जैसे इस पर भी खरी उतरती दिखती हैं।
संजय सहाय को फिर ये ‘कूड़ा’ क्यों लगीं?
'हंस' पत्रिका में एक लेखक के रूप में उनकी 'एंट्री' की गाथा बड़ी रोचक है। पत्रिका में कार्यरत एक सम्पादकीय सहयोगी ने (नाम न छापने की शर्त पर) बताया कि सन 90 में संजय सहाय की एक कहानी डाक से राजेंद्र यादव जी को मिली। कहानी के साथ 25 हज़ार रुपये का चेक भी संग्लग्न था। यादव जी ने कहानी भी स्वीकृत की और चेक भी। सहयोगी के अनुसार कहानी अच्छी थी लेकिन वह कोई 'रिस्क' नहीं लेना चाहते थे। बाद में इसी कहानी पर गौतम घोष ने 'पतंग' फ़िल्म बनाई।
बताया जाता है कि फ़िल्म निर्माण का पूरा ख़र्च हंस संपादक संजय सहाय ने ही उठाया था। इक्का दुक्का रचनाओं को छोड़ दें तो उनकी ज़्यादातर कहानियाँ 'हंस' में ही छपती रहीं।
अपने शेष काल में राजेंद्र यादव 'हंस' पत्रिका का 'दायित्व' अन्य किसी को सौंपना चाहते थे। इसके लिए कई लोगों से उनकी बात हुई। दिल्ली के एक प्रकाशक ने उन्हें सवा करोड़ रुपये का प्रस्ताव दिया। इसमें एक करोड़ रुपये अक्षर प्रकाशन, कार्यालय की भूमि और संपत्ति आदि के लिए थे और बाक़ी के 25 लाख 'हंस' की मिलकियत हेतु। यादव जी इसके लिए तैयार नहीं हुए क्योंकि वह अपनी बेटी रचना को भी ख़ाली हाथ होते नहीं देखना चाहते थे। तब पृष्ठभूमि पर हंस संपादक संजय सहाय उभरे। इनसे क्या डील हुई, नहीं मालूम लेकिन 'हंस' की मिलकियत में रचना यादव के साथ वह भी शामिल कर लिए गए और तब अगले महीने से इनका नाम प्रबंध सम्पादक के रूप में छपने लगा। यादव जी के देहावसान पर सम्पादन का दायित्व इन्हें मिल गया और रचना प्रबंध सम्पादक बन गयीं।
अपने पैसे के दम पर किसी सेठ के लेखक या सम्पादक बनने में भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? सेठ गोविंददास से लेकर दर्जनों लोगों के उदाहरण मौजूद हैं। वे इतिहास में कितना अमरत्व हासिल कर सके या कि आज के कितने पाठक उन्हें पढ़ते या जानते हैं, यह दीगर बात है लेकिन प्रेमचंद बिना दौलत और संपत्ति के आज भी जीवंत हैं। आज भी लोग उन्हें पढ़ते हैं और पसंद भी करते हैं। अलबत्ता यह ज़रूर है कि इन सेठ लेखकों में कोई भी प्रेमचंद सरीके लेखक को ‘कूड़ा’ बताने की हिमाक़त नहीं कर सका।
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