अमृता प्रीतम की ज़िंदगी और साहित्य के सिलसिले में अख़बारों, पत्रिकाओं और सोशल मीडिया तथ्यों और क़िस्सों से भरे हुए हैं। बहुत कुछ कहा जा चुका है, बहुत कुछ जाना जा चुका है, ऐसे में ऐसी शख्सियत, जिसका कि जीवन न जाने कितने इतिहासों और घटनाओं का गवाह रहा हो, एक पुनर्पाठ की अपेक्षा तो रखता है और इसके बावजूद भी इतना संभावनाशील है कि अंतिम रूप से कुछ भी कहा नहीं जा सकता। और इसकी वजह भी है, क्योंकि एक ही अमृता में न जाने कितनी अमृताएँ हमें, देखने को मिलती हैं। एक अमृता, जो लेखिका है; एक, जो मानती थी कि वह साहिर के प्रेम के साये में कई जन्मों से चलती चली आ रही है; एक, जो इमरोज़ की जीवनसाथी है; एक, जिसने कि विभाजन की लपटों को क़रीब से जिया था; एक, जिसने कि प्रेम में स्वतंत्रता के अधिकार की वकालत की थी; एक, जिसने कि स्त्री विमर्श में एक नया अध्याय जोड़ा था और अंतत: एक वह अमृता जिसने कि अपने मन और जीवन में किसी भी प्रकार की विसंगति नहीं रखी थी।