अमृता प्रीतम की ज़िंदगी और साहित्य के सिलसिले में अख़बारों, पत्रिकाओं और सोशल मीडिया तथ्यों और क़िस्सों से भरे हुए हैं। बहुत कुछ कहा जा चुका है, बहुत कुछ जाना जा चुका है, ऐसे में ऐसी शख्सियत, जिसका कि जीवन न जाने कितने इतिहासों और घटनाओं का गवाह रहा हो, एक पुनर्पाठ की अपेक्षा तो रखता है और इसके बावजूद भी इतना संभावनाशील है कि अंतिम रूप से कुछ भी कहा नहीं जा सकता। और इसकी वजह भी है, क्योंकि एक ही अमृता में न जाने कितनी अमृताएँ हमें, देखने को मिलती हैं। एक अमृता, जो लेखिका है; एक, जो मानती थी कि वह साहिर के प्रेम के साये में कई जन्मों से चलती चली आ रही है; एक, जो इमरोज़ की जीवनसाथी है; एक, जिसने कि विभाजन की लपटों को क़रीब से जिया था; एक, जिसने कि प्रेम में स्वतंत्रता के अधिकार की वकालत की थी; एक, जिसने कि स्त्री विमर्श में एक नया अध्याय जोड़ा था और अंतत: एक वह अमृता जिसने कि अपने मन और जीवन में किसी भी प्रकार की विसंगति नहीं रखी थी।
अमृता प्रीतम- ‘पहला विद्रोह रसोई में, फिर कोई बर्तन न हिन्दू रहा, न मुसलमान’
- साहित्य
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- 21 Sep, 2020

यह प्रसिद्ध पंजाबी साहित्यकार अमृता प्रीतम की 101वीं जयंती का साल है। उनका जन्म 31 अगस्त 1919 को हुआ था।
अमृता की ज़िंदगी स्वयं एक खुली किताब थी, पर ज़रूरी है कि उनकी ज़िंदगी और साहित्य पर जो तथ्यों और विचारों की अब तक की शृंखला है उससे आगे बढ़ते हुए, कुछ ज़रूरी सवालों पर विमर्श किया जाए। मसलन, अमृता प्रीतम के व्यक्तित्व की व्याख्या क्या एक नए सिरे से होनी चाहिए? या उनके व्यक्तित्व की झलकियों को उनके साहित्य में ढूँढने का प्रयास किया जाना चाहिए? या उनकी रचनाओं के, साहित्य की दशा और दिशा में कुछ जोड़ने के योगदान का परीक्षण करना चाहिए? अमृता और नारीवादी आंदोलन के बीच क्या कोई संबंध देखना चाहिए? उनके साहित्य की कमियों पर भी क्या विमर्श करना चाहिए? इत्यादि। और इन सवालों से गुज़र कर ही सही अर्थों में अमृता प्रीतम के व्यक्तित्व और कृतित्व को एक तार्किक संवेदना के साथ समझा और परखा जा सकता है।