यह सत्ता संघर्ष की एक ऐसी कहानी है जिसमें कोई एक किरदार न तो नायक है और न ही खलनायक। सब अपनी जगह जितने बड़े नायक हैं, उतने ही बड़े खलनायक भी। राजसत्ता का यह संघर्ष मान-सम्मान, बदला, छल, कपट, साज़िश, विद्रूपता, लालच, वीभत्सता और क्रूरता जैसे मानव जीवन के कई रंगों को रेखांकित करता है। यह एक ऐसी कहानी है जिसमें भाई भाई का न हुआ, बेटा बाप का न हुआ और बाप बेटों का नहीं हुआ। इसमें राजा बनने की चाह अपनों का ही सर क़लम करवाती है, जिसमें ख़ून के ही रिश्ते एक दूसरे के ख़ून को प्यासे हैं। यह कहानी है अब से क़रीब साढ़े तीन सौ साल पहले मुग़लकाल की। जिसमें दो बड़े किरदार हैं। औरंगज़ेब और दारा शिकोह।
आज भी जब कभी मुग़ल काल के बादशाहों का ज़िक्र होता है तो औरंगज़ेब और दारा शिकोह बरबस ही आमने-सामने खड़े होते दिखते हैं। तीसरा बड़ा किरदार है शाहजहाँ, एक बेटे की जिसके तरफ़ झुकाव ने दूसरे बेटों को बाग़ी बना दिया। देश का एक बड़ा वर्ग औरंगज़ेब को हीरो के तौर पर बना देखता है, दूसरा दारा शिकोह को। दोनों ही एक दूसरे में अपने-अपने चश्मे के हिसाब से हीरो और विलेन ढूंढ लेते हैं। जिसके लिए औरंगज़ेब हीरो है उसके लिये मुग़लकाल के सारे बादशाह बौने नज़र आते हैं। वहीं दारा शिकोह को असली हीरो मानने वाले उसे बहुत बड़े दार्शनिक के रूप में पेश करते हैं।
पारंपरिक चश्मा उतारने की कोशिश
लेखक पत्रकार अफ़सर अहमद ने अपनी किताब ‘औरंगज़ेबः नायक या खलनायक- सत्ता संघर्ष’ में प्रमाणिक तथ्यों से दोनों वर्गों के ऐसे चश्मों को उतारने की कोशिश की है। बहुत रिसर्च के बाद लिखी गई यह किताब औरंगज़ेब को बहुत अच्छा मानने वालों को उसकी साज़िशों, क्रूरताओं से रूबरू कराती है वहीं दारा शिकोह में नायक खोजने वालों को उसके छल-कपट और लालच से भी रूबरू करवाती है। लेखक ने किसी किंवदंती से नहीं, बल्कि मुग़लकाल के शाही फ़रमानों और पत्रों के ज़रिए इन किरदारों का चरित्र चित्रण किया है। उनकी ग़फ़लतों और नफ़रतों से पर्दा उठाने की भरपूर कोशिश की गई है। इस किताब में आगरा से दिल्ली और दक्कन तक की कहानी आपको ज़मीनी हक़ीक़त से मिलाने की कोशिश करती है, जिसमें संबंधों के कई उतार-चढ़ाव हैं। जिसमें लालच है, इमोशन है और भय भी है।
क्या औरंगज़ेब शाहजहाँ से नफरत करता था?
कई इतिहासकार इन दोनों किरदारों में से किसी एक तरफ़ झुके दिखते हैं, लेकिन यहाँ लेखक ठहरा पत्रकार तो उसने इसमें अपने पत्रकारीय सरोकार पिरोने की पूरी कोशिश की है। यह किताब एक फ़ैक्ट चेक है जिसमें इस सवाल का जवाब लेखक ने शाहजहाँ को लिखे गए औरंगज़ेब के शाही ख़त से देने की कोशिश की है।
औरंगज़ेब एक पत्र में अपने पिता को लिखता है,
‘मैंने बार-बार अपनी स्थिति को साफ़ करने की कोशिश की है कि आगरा मार्च करने के पीछे आपको सत्ता से अलग करने की कोई मंशा नहीं थी। अल्लाह मेरी इस बात का गवाह है कि ऐसे दोषपूर्ण और अपवित्र विचार कभी मेरे मन में नहीं आए। आप जब बीमार हुए तो सबसे बड़े बेटे दारा शिकोह, जिसमें मुसलमान होने जैसे कोई लक्षण नहीं हैं, ने सत्ता अपने हाथ में ले ली और नास्तिकता और कही-सुनी बातों को बढ़ावा दिया। दारा को बाहर करना मैं अपनी धार्मिक ज़िम्मेदारी मानता हूँ। जैसा कि सरकार (शाहजहाँ) पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर और बिना राजनीतिक हालात पर विचार किए दारा की इस सोच का साथ देने लगे, तब मैंने उसके ख़िलाफ़ जिहाद का एलान किया।"
औरंगज़ेब की मजबूरी थी शाहजहाँ को क़ैद रखना
लेखक ने साफ़ किया है कि औरंगज़ेब के लिए पिता शाहजहाँ को नज़रबंद रखना उसकी रणनीतिक मजबूरी थी। उसके ख़िलाफ़ शाहजहाँ की लगातार की गई साज़िशों ने उसके इस डर को और पुख़्ता कर दिया था कि पिता को नज़रबंदी से हटाना उसके लिए घातक साबित होगा।
दारा शिकोह पर अलग-अलग दावे
औरंगज़ेब पर एक बड़ा आरोप है कि उसने अपने बड़े भाई दारा शिकोह के साथ बहुत बुरा सुलूक़ किया। उसका सिर क़लम करवाया। लेकिन क्या वाक़ई ऐसा था? दरअसल दारा के आख़िरी समय के बारे में अलग-अलग इतिहासकारों ने अपने ढंग से लिखा है। निकोलो मनुच्ची और बर्नियर जैसे इतिहासकारों ने काफ़ी कुछ बाज़ार से सुनी-सुनाई बातों के आधार पर लिखा। दरअसल, उनकी किसी सरकारी दस्तावेज़ और फ़ैसलों तक सीधी पहुँच नहीं थी। दूसरी ओर मुत्सईद ख़ान जिन्होंने मासिर-ए-आलमगीरी लिखा और दूसरे बड़े लेखक उस दौर के थे वो थे ख़फ़ी ख़ान जिन्होंने ‘मुंतख़ाब-उल-लुबाब’ लिखा। दोनों ने दारा शिकोह का सिर काटे जाने की घटना को कहीं नहीं लिखा। लेखक ने सभी के विचारों को न सिर्फ़ अपनी किताब में जगह दी है बल्कि एक चार्ट के ज़रिए तुलनात्मक अध्ययन भी किया है।
किताब में देश के अलग-अलग संग्रहालयों में रखे शाहजहाँ, औरंगज़ेब और दारा शिकोह से जुड़े दस्तावेज़ के फ़ोटो भी शामिल किए हैं। अपने दावों को पुख़्ता करने के लिए लेखक ने किताब में फ़ारसी में लिखे कई फ़रमान के फ़ोटो भी इस्तेमाल किए हैं।
अपनी राय बतायें