जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म करते समय केंद्र सरकार ने तर्क दिया था कि इससे आतंकवाद का ख़ात्मा हो जाएगा। इस बेबुनियाद तर्क का विरोध उस समय भी हुआ था। लेकिन हाल की आतंकवादी वारदात ने साबित कर दिया है कि घाटी में आतंकवाद ख़त्म तो नहीं ही हुआ है, कई गुट एकजुट हो गए हैं।
सुनियोजित हमला
हाल में हंदवाड़ा में लगातार दो दिन में दो आतंकवादी हमले हुए। पहले, रविवार को सुरक्षा बलों के 5 और इसके अगले दिन यानी सोमवार को 3 लोग शहीद हुये। इनमें लेफ़्टीनेंट कर्नल और मेजर स्तर तक के अधिकारी थे।
इन हमलों से यह साफ़ होता है कि किसी छोट-मोटे स्थानीय गुट और नाराज़ कश्मीरी के गुस्से में आकर किए गए हमले नहीं थे। ये सोच समझ कर, योजना बना कर, और पूरी तैयारी के साथ किए गए हमले थे।
यह भी साफ़ है कि हमले को अंजाम देने वाले लोग पूरी तरह से प्रशिक्षित आतंकवादी थे।
क्या है 'द रेजिस्टेंस फ़्रंट'?
सुरक्षा जगत से जुड़े लोगों का कहना है कि ‘द रेजिस्टेंस फ्रंट’ नाम का एक नया संगठन इस हमले के पीछे है। इस आतंकवादी गुट में कई छोटे-मोटे गुट के लोग शामिल हैं, लेकिन मुख्य रूप से यह लश्कर-ए-तैयबा का फ्रंट है। लश्कर पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन है, जिसकी स्थापना 1987 में हाफ़िज़ सईद ने की थी। यह जल्द ही दक्षिण एशिया के सबसे खूंखार आतंकवादी संगठनों में शुमार हो गया। भारत के ख़िलाफ़ चल रही आतंकवादी गतिविधियों में इसकी प्रमुख भूमिका है।
लश्कर का मुखौटा!
याद दिला दें कि मुंबई में 26/11 कोे हुए आतंकवादी हमले को लश्कर-ए-तैयबा ने ही अंजाम दिया था। कई घंटों तक चले इस हमले में लगभग 200 लोग मारे गए थे। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने कुछ महीने पहले अमेरिकी अख़बार ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ को दिए एक ख़ास इंटरव्यू में यह माना था कि 26/11 हमलों के पीछे पाकिस्तानी नागरिक थे। पाकिस्तान की अदालतों में मुंबई हमलों के 7 संदिग्धों पर मुक़दमे चल रहे हैं। ज़की-उर-रहमान लखवी का मामला सबसे प्रमुख है। पाकिस्तान का कहना है कि संदिग्धों के ख़िलाफ़ पर्याप्त सबूत नहीं हैं। पर भारत ने कहा है कि काफ़ी सबूत दिए गए हैं और वे अभियोग साबित करने के लिए पर्याप्त हैं।
‘द रेजिस्टेंस फ्रंट’ या टीआरएफ़ का नाम पहली बार अक्टूबर 2019 को सामने आया। सोपोर में 28 अक्टूबर को हुए ग्रेनेड हमले में 19 लोग ज़ख़्मी हो गए थे। टीआरएफ़ ने इसकी ज़िम्मेदारी ली थी।
टीआरएफ़ के पीछे
लेकिन अब यह साफ़ हो गया है कि यह लश्कर का फ्रंट तो है ही, इसमें अंसार-ग़जवतुल-हिंद के लोग शामिल हैं। अंसार के तार इसलामिक स्टेट से जुड़े हुए हैं। यह खुरासान प्रोविंस ऑफ़ इसलामिक स्टेट से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। कश्मीर घाटी में हिज़बुल मुजाहिदीन का दबदबा बढ़ने के बाद लश्कर को पीछे हटना पड़ा था तो इसलामिक स्टेट को भी ज़मीन नहीं मिल रही थी। अनुच्छेद 370 में बदलाव और अनुच्छेद 35 ए को ख़त्म कर, जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म करते समय वहां जिस तरह का लॉकडाउन हुआ और लोगों को परेशानी हुई, लोगो में गुस्सा और असंतोष बढ़ा, वह पाकिस्तान के लिए अच्छा मौक़ा था। वह इस मौके पर सभी असंतुष्ट गुटों, संगठनों और लोगों को भारत के ख़िलाफ़ लगाना चाहता था।
नया आतंकवादी संगठन क्यों?
इसलामाबाद के साथ दिक्क़त यह थी कि फाइनेंसियल एक्शन टास्क फ़ोर्स का दबाव उस पर था। वह पहले से ही ‘ग्रे लिस्ट’ में था, उसके पास कुछ महीनों का ही समय था, उसे एफ़एटीएफ़ की शर्तों को पालन करना था, वर्ना वह ‘ब्लैक लिस्ट’ में डाल दिया जाता। पाकिस्तान को हर हाल में इससे बचना था क्योंकि ‘ब्लैक लिस्ट’ में जाने से पहले से बदहाल अर्थव्यवस्था चौपट हो जाती और देश कंगाल भी बन सकता था।
एफ़एटीफ़ की नज़र में धूल झोंकने के लिए पाकिस्तान में टीआरएफ़ का गठन किया, जिसे उस समय तक कोई नहीं जानता था। दूसरी बात यह थी कि ‘लश्कर’, ‘जैश’, ‘मुहम्मद’ जैसे शब्दों के साथ इसलाम की पहचान जुड़े होने के कारण पाकिस्तान इससे बचना चाहता था।
इसलिए उसने ऐसा नाम दिया, जिसे सुन कर उसे पाकिस्तान या इसलाम से नहीं जोड़ा जा सकता था।
कैसे पता चला?
इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक़, सोपोर में कुछ ओवर ग्राउंड वर्कर्स यानी, आतंकवादी गुटों के वे लोग जो खुले तौर पर क़ानूनी रूप से काम कर रहे थे, उनके यहाँ पुलिस ने छापा मारा तो भारी तादाद में हथियार बरामद हुए। ये हथियार भागते हुए आतंकवादियों ने नियंत्रण रेखा के पास छोड़ दिए थे। गिरफ़्तार लोगों से पूछताछ से पता चला कि ये हथियार किसी नए संगठन के हैं। इस घटना के कुछ दिन बाद ही सीमा से सटे केरण सेक्टर में आतंकवादियों और सुरक्षा बलों के बीच एक मुठभेड़ हुई, जिसमें सभी संदिग्ध आतंकवादी मारे गए। पर उस मुठभेड़ में भारतीय सेना के 5 कमांडो भी शहीद हुए। इससे यह साफ़ हो गया कि ये आतंकवादी प्रशिक्षित थे, इनके पास बेहतर हथियार थे, उनके पास पक्की जानकारी थी। ज़ाहिर है, वे लोग किसी बड़े गुट के लोग थे।
हंदवाड़ा हमला
इसके एक हफ़्ते बाद हंदवाड़ा में आतंकवादियों ने केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल यानी सीआरपीएफ़ की एक गश्ती गाड़ी पर हमला किया, इसमें दो कर्नल और मेजर स्तर के अफ़सर मारे गए। जवाबी कार्रवाई में दो आतंकवादी मारे गए। उसके बाद टीआरएफ़ ने अपने टेलीग्राम चैनल पर दावा किया कि मारे गए दोनों लोग उसके लड़ाके हैं। इंडियन एक्सप्रेस ने एक वरिष्ठ अधिकारी के हवाले से कहा है कि टीआरएफ़ में स्थानीय और पाकिस्तान स्थित आतंकवादी दोनों ही हैं। लेकिन ये स्थानीय आतंकवादी भी बहुत ही प्रशिक्षित हैं। ज़ाहिर है, यह प्रशिक्षण पाकिस्तान में ही दिया गया होगा।
पिछले साल जब पुलवामा में सीआरपीएफ़ के काफ़िले पर हमला हुआ, स्थानीय लोगों के शामिल होने की बात खुल कर आ गई। वह हमलावर हमले की जगह से कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही रहता था।
स्थानीय लोग क्यों?
स्थानीय लोगों को चुनने, उन्हें प्रशिक्षित करने और आगे रखने के पीछे की रणनीति यह है कि ऐसा लगे कि यह मामला स्थानीय है, इसमें स्थानीय लोग हैं और पाकिस्तान इससे जुड़ा हुआ नहीं है।
पाकिस्तान एशिया की बदलती राजनीतिक स्थिति का भी फ़ायदा उठाना चाहता है। अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका और तालिबान के बीच हुए समझौते के बाद वहाँ की ज़मीनी हकीक़त बदली है।
अब अमेरिका भारत के लिए वहां तालिबान पर कोई दबाव नहीं बनाएगा, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लोगों का ध्यान उस ओर नहीं जाएगा। ऐसे में वह भारत में अपनी गतिविधियाँ बढ़ा सकता है।
फ़िलहाल जम्मू-कश्मीर में कम आतंकवादी हैं। पर पाकिस्तान धीरे-धीरे वहाँ अपनी गतिविधियाँ बढ़ाएगा, स्थानीय लोगों को चुन कर प्रशिक्षित करेगा और उन्हें आगे रखेगा।
अनुच्छेद 370 में बदलाव के बाद से जम्मू-कश्मीर के लोगों में ज़बरदस्त गुस्सा है, असंतोष है और पाकिस्तान इसे भुनाना चाहता है। ऐसे में टीआरएफ़ उसके लिए सबसे मुफ़ीद है।
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