ऐसे समय जब पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें आसमान छू रही हैं और केंद्र व राज्य सरकारों की कमाई का ज़रिया बन चुकी हैं, सवाल यह उठता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका दूरगामी असर क्या पड़ेगा। क्या यह कोरोना और लॉकडाउन के बाद पटरी पर लौट रही अर्थव्यवस्था के लिए अड़चनें पैदा करेंगी? क्या बढ़े ईंधन मूल्यों की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर निकलने में ज़्यादा समय लगेगा?
यह ख़बर लिखे जाते समय यानी गुरुवार को पेट्रोल की कीमत मुंबई में 97.57 रुपए प्रति लीटर थी। यह इसी समय चेन्नई में 93.11 रुपए, कोलकाता में 91.35 रुपए और दिल्ली में 91.11 रुपए प्रति लीटर थी। इसी दौरान डीज़ल की कीमत मुंबई में 86.60 रुपए, चेन्नई में 86.45 रुपए, कोलकाता में 84.35 रुपए और दिल्ली में 81.47 रुपए प्रति लीटर हैं। ये सभी कीमतें अपने-अपने शहर में रिकॉर्ड स्तर पर हैं। इन कीमतों का बड़ा हिस्सा केंद्रीय उत्पाद कर व राज्य के मूल्य संवर्द्धित कर यानी वैट का है।
भारतीय अर्थव्यवस्था पर असर
सवाल यह है कि इन रिकॉर्ड कीमतों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा। भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपनी मुद्रा नीति में महँगाई दर कम रखने और इसके लिए इनपुट कॉस्ट यानी लागत और बॉरोइंग कॉस्ट यानी ब्याज दर कम रखने की बात कही है।
लागत मूल्य और ब्याज दर कम रहने से उद्योग जगत को बढ़ावा मिलेगा, उनकी प्रतिस्पर्द्धा क्षमता बढ़ेगी और इस तरह अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी।
लगातार बढ़ रही ईंधन मूल्यों के बीच क्या ऐसा हो पाएगा? सिंगापुर स्थित ऑक्सफ़र्ड इनकोनॉमिक्स की दक्षिण-एशिया मुख्य अर्थशास्त्री व भारत प्रमुख प्रियंका किशोर ने 'द प्रिंट' से कहा, "लगातार ऊँची कीमतों से महंगाई का वातावरण बनेगा, इससे रिज़र्व बैंक को विकास के अपने संकल्पों को पूरा करने में दिक्क़त होगी।"
उन्होंने इसके आगे कहा,
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"बढ़ते ईंधन मूल्यों और उसके साथ ही तेल की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय कीमतों की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार ख़तरे में पड़ जाएगा।"
प्रियंका किशोर, भारत प्रमुख, ऑक्सफ़र्ड इनकोनॉमिक्स
क्या कहना है रिज़र्व बैंक का?
रिज़र्व बैंक का मानना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकलुभावन योजनाओं और राज्य सरकारों के खर्चों के लिए जिस तरह पेट्रोल- डीज़ल की कीमतों का इस्तेमाल किया जा रहा है, उससे महँगाई बढनी शुरू हो चुकी है। यदि केंद्रीय बैंक ने मुद्रा नीति में किसी तरह की ढील दी तो ब्याज दर बढ़ेगा और इससे व्यापार जगत पर बुरा असर पड़ेगा। यह सब उस समय होगा जब कोरोना और लॉकडाउन की वजह से करोड़ों लोगों का रोज़गार छिन चुका है।
इस ओर इशारा करते हुए रिज़र्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने मुद्रा नीति जारी करते हुए कहा था,
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"केंद्र और राज्य सरकारें सुनियोजित ढंग से ईंधन पर कर कम करें तो अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाला दबाव कम किया जा सकता है।"
शक्तिकांत दास, गवर्नर, भारतीय रिज़र्व बैंक
पटरी पर कैसे लौटे भारतीय अर्थव्यवस्था?
उनके कहने का मतलब साफ है, केंद्र और राज्य सरकारें पेट्रोल-डीज़ल पर टैक्स कम करें तो अर्थव्यवस्था को सहारा मिल सकता है और उसे पटरी पर लौटने में मदद मिल सकती है।
आईसीआईसी सिक्योरिटीज़ के आकलन के अनुसार, केंद्र सरकार की कुल राजस्व उगाही का पाँचवा हिस्सा यानी 20 प्रतिशत इन पेट्रो-उत्पादों पर लगने वाले टैक्स के रूप में है। यह तेज़ी से बढ़ा है।
छह साल पहले यानी 2015 में यह केंद्र के कुल राजस्व का 10 प्रतिशत था। यानी मोदी सरकार ने पेट्रोल-डीज़ल पर पर टैक्स लगा कर दूना राजस्व वसूला है।
सरकार का तर्क
तेल मंत्री धर्मेद्र प्रधान ने भारत में बढ़ती पेट्रोल कीमतों का ठीकरा तेल निर्यातक देशों पर फोड़ा है। उन्होंने कहा था कि ओपेक प्लस यानी ओपेक और उसके साथ के कुछ देशों के समूह ने कहा था कि वह उत्पादन बढ़ाएंगे, ऐसा नहीं किया, जिससे कीमतें बढ़ीं। लेकिन प्रधान के इस तर्क में छेद यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत जब 120 डॉलर प्रति बैरल थी, उस समय भारत में पेट्रोल, डीज़ल की जो कीमतें थीं, आज 63 डॉलर प्रति बैरल की दर पर पेट्रो उत्पादों की कीमतें उससे अधिक हैं। इसका केंद्र के पास क्या जवाब है?
कुल मिला कर स्थिति यह है कि केंद्र व राज्य सरकारों के लिए दुधारू गाय बन चुके पेट्रो-उत्पाद से देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ रहा है। यदि केंद्र सरकार ने इसे समय रहते नहीं रोका तो अर्थव्यवस्था को पटरी पर लौटने में अनुमान से अधिक समय लगेगा और तब तक देश की अर्थव्यवस्था बदहाल रहेगी।
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