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प्रतीकात्मक तस्वीर।

विदेशी निवेश निकाल रहे, देश के विदेश भेज रहे; तो अर्थव्यवस्था कैसे संभलेगी?

देश की अर्थव्यवस्था का ग़ज़ब हाल है! एफ़डीआई 12 साल के निचले स्तर पर पहुँच गई है। और भारतीय कंपनियों का विदेशों में निवेश भी 12 साल के शिखर पर है। यानी दोनों तरफ़ से पैसे देश से बाहर ही जा रहे हैं। भारत में विदेशी निवेशक जो पैसे लगाए हुए थे वे तो पैसे लेकर भाग ही रहे हैं, भारतीय निवेशक भी अब भारत की तुलना में विदेशों में पैसे लगा रहे हैं। अपर्याप्त पैसे वाली अर्थव्यवस्था कितनी मज़बूत होगी? इसको ऐसे भी समझ सकते हैं कि ख़ून की कमी वाला शरीर किस हालत में हो सकता है?

विदेशी पोर्टफोलियो निवेश यानी एफ़पीआई में रिकॉर्ड गिरावट आने की ख़बर के बाद अब प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई में रिकॉर्ड गिरावट की ख़बर आई है। पिछले वर्षों की समान अवधि की तुलना में इस वित्त वर्ष की अप्रैल से अक्टूबर अवधि में भारत में शुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफ़डीआई प्रवाह 12 साल के निचले स्तर पर आ गया। इसके अलावा इस वित्त वर्ष में अब तक भारतीय कंपनियों द्वारा किए गए विदेशों में निवेश में भी तेजी से वृद्धि हुई है। वैसे, यह दोनों ही स्थिति देश की अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं है। 

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निवेश की क्या स्थिति है और इससे क्या असर पड़ सकता है, यह जानने से पहले यह जान लें कि आख़िर निवेश से क्या मतलब है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एक देश में स्थित किसी फ़र्म या व्यक्ति द्वारा दूसरे देश में स्थित व्यावसायिक हितों में लगाया गया पैसा है। विदेशी पोर्टफ़ोलियो निवेश यानी एफ़पीआई दूसरे देश में प्रतिभूतियों यानी शेयर बाज़ार में और अन्य वित्तीय परिसंपत्तियों में किए गए निवेश को दिखाता है।

आरबीआई के आँकड़ों से पता चलता है कि अप्रैल-अक्टूबर 2024 में भारत में शुद्ध एफडीआई प्रवाह घटकर 14.5 बिलियन डॉलर रह गया, जो 2012-13 के बाद सबसे कम है। तब यह 13.8 बिलियन डॉलर था। 2012-13 से 2023-24 तक शुद्ध एफडीआई महामारी के बाद से साल दर साल धीमा होता जा रहा है। 2020-21 के अप्रैल से अक्टूबर की अवधि के दौरान शुद्ध एफडीआई 34 बिलियन डॉलर था, जो 2021-22 में घटकर 32.8 बिलियन डॉलर, 2022-23 में 27.5 बिलियन डॉलर और 2023-24 में 15.7 बिलियन डॉलर रह गया।

शुद्ध एफ़डीआई और सकल एफडीआई में काफ़ी अंतर है और यह समझना बेहद ज़रूरी है। सकल एफडीआई पहले से कम नहीं हो तो भी शुद्ध एफ़डीआई बेहद कम हो सकता है, जो देश की अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं है। 
अप्रैल-अक्टूबर 2024 की अवधि में देश में सकल एफ़डीआई प्रवाह 48.6 बिलियन डॉलर था, जो कम से कम 2011-12 के बाद से संयुक्त रूप से सबसे अधिक है। तो सवाल है कि शुद्ध एफ़डीआई में गिरावट क्यों आई?
आर्थिक मामलों की रिपोर्टिंग करने वाले परिष्ठ पत्रकार राजेश महापात्रा ने सत्य हिंदी से कहा कि शुद्ध एफडीआई में गिरावट का कारण यह है कि देश से बाहर जाने वाला निवेश बढ़ जाता है। विदेशी कंपनियों द्वारा जितना निवेश किया जाता है, उसी दौरान उनके द्वारा पहले किए गए निवेश के पैसे निकाले भी जाते (प्रत्यावर्तन) हैं। इसके अलावा देश की कंपनियों द्वारा विदेशों में निवेश भी किया जाता है। यानी ये निवेश के पैसे भी देश से बाहर जा रहे होते हैं। इस तरह सकल एफ़डीआई में से देश से बाहर जाने वाले निवेश को घटा दें तो शुद्ध एफडीआई निवेश होता है।

जबकि विदेशी कंपनियां निवेश के लिए भारत से दूर होती दिख रही हैं, ऐसा लगता है कि भारतीय कंपनियां भी ऐसा ही कर रही हैं। अप्रैल-अक्टूबर 2024 में भारतीय कंपनियों द्वारा विदेशी निवेश बढ़कर 12.4 बिलियन डॉलर हो गया, जो कम से कम 2011-12 के बाद सबसे अधिक है। यह पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में 55 प्रतिशत की वृद्धि है।

इस तरह, सकल एफ़डीआई प्रवाह भले ही 48.6 बिलियन डॉलर रहा हो, लेकिन प्रत्यावर्तन और विनिवेश के रूप में देश से बाहर जाने वाला धन इस वित्तीय वर्ष की अप्रैल-अक्टूबर अवधि में बढ़कर 34.1 बिलियन डॉलर हो गया।

दिप्रिंट की रिपोर्ट के अनुसार यह पिछले वर्ष की समान अवधि में 26.4 बिलियन डॉलर था। यह आंकड़ा 2017-18 से बढ़ रहा है।

शेयर बाजार में विदेशी निवेश पिछले साल से 99% कम 

भारत के घरेलू शेयर बाजार में ऐसा क्या हुआ कि विदेशी निवेशकों का एकदम से मोह भंग सा हो गया? 2024 में एफ़पीआई यानी विदेशी पोर्टफोलियो निवेश के माध्यम से सिर्फ 1600 करोड़ रुपये आए। पिछले साल यह 1.71 लाख करोड़ था। यानी 99 फीसदी की गिरावट आ गई। 

नेशनल सिक्योरिटीज डिपॉजिटरी लिमिटेड यानी एनएसडीएल के अनुसार, 27 दिसंबर 2024 तक एफपीआई ने भारतीय इक्विटी में शुद्ध रूप से 1656 करोड़ रुपये का निवेश किया। हालांकि विदेशी निवेशक शेयर बाजार में प्रमुख रूप से विक्रेता रहे, लेकिन वे प्राथमिक बाजार में खरीदार बने रहे।

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तो सवाल है कि आख़िर विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों को घरेलू शेयर बाज़ार से क्या दिक्कत है? इसके पीछे कई वजहें बताई जा रही हैं। शेयर बाज़ार के जानकारों का कहना है कि भारतीय शेयर बाज़ार में शेयरों के मूल्यांकन की चिंताएँ, वित्तीय वर्ष 2025 की दूसरी तिमाही में अपेक्षा से कम जीडीपी वृद्धि, कमजोर कॉर्पोरेट आय और अमेरिकी बॉन्ड यील्ड्स में वृद्धि शामिल हैं।

कहा जा रहा है कि विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों में भारतीय शेयर बाज़ार को लेकर सबसे बड़ी चिंता शेयरों के मूल्यांकन को लेकर है और भारतीय शेयर अपने वास्तविक मूल्य से कहीं ज़्यादा क़ीमतों पर ट्रेड कर रहे हैं। शेयर बाज़ार में हाल में काफ़ी गिरावट आई है। सेंसेक्स और निफ्टी अपने शिखर से क़रीब 11 फ़ीसदी लुढ़क चुके हैं। हाल ही में आए करेक्शन के बावजूद विशेषज्ञों को वैल्यूएशन के मोर्चे पर कोई खास राहत नहीं दिख रही है। जानकारों का कहना है कि हालिया करेक्शन ने ब्रॉड मार्केट के मल्टीपल्स में कोई बड़ा बदलाव नहीं किया है। 

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दूसरी बड़ी चिंता की वजह कमजोर तिमाही के नतीजे हैं। कंपनियों की अर्निंग ग्रोथ एक बड़ी समस्या बनकर आई है। अभी तक अधिकतर कंपनियों के सितंबर तिमाही के नतीजे अनुमान से कम रहे हैं।

राजेश महापात्रा रुपयों की गिरती क़ीमतों को भी बड़ी चिंता का कारण बताते हैं। वह कहते हैं कि एफ़डीआई का मौजूदा रुझान ही बरकरार रहा तो रुपया डॉलर के मुक़ाबले और कमजोर होता जाएगा। वह रुपये के 100 के आँकड़े को छूने का अंदेशा जता रहे हैं। वह कहते हैं कि रुपये के गिरने से कई चीजें प्रभावित होंगी और महंगाई बढ़ने के आसार रहेंगे। महंगाई बढ़ने का मतलब है कि ब्याज दर कम होने की संभावना नहीं है और हो सकता है कि यह बढ़े ही। यानी एक तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था चक्रव्यूह में फँस गयी है।

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क़मर वहीद नक़वी
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