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फाइल फोटो

सत्ता बचाये रखने वाला या विकास वाला होगा बजट?

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण मंगलवार को साल 2024-25 का पूर्ण बजट पेश करेंगी। बजट का ट्रेलर 1 फरवरी को पेश हुए अंतरिम बजट में हम देख चुके हैं। लेकिन, बड़ा सवाल यह है कि क्या ट्रेलर पूरी तरह फिल्म में तब्दील हो जायेगा? दरअसल, तब और अब में देश की राजनीतिक और सत्ता चलाने की परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। 10 साल से अपनी शर्तों पर सत्ता, गवर्नेंस, नीतियों और संसद की पावर स्टीयरिंग घुमा रही बीजेपी को उम्मीद थी कि 2024 के चुनावों में लोकसभा की परीक्षा में उसका नंबर 350 के आसपास तो रहेगा ही, सहयोगी दलों को जोड़ लें तो ये 400 पार भी पहुंच सकता है। लेकिन वोटरों के रूप में बैठे परीक्षकों ने कॉपी जांचने में थोड़ी सख्ती कर दी। अब, अकेले सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी पास-मार्क 272 से 32 नीचे 240 पर ही सिमट गई।

सत्ता चलाने के लिये सहयोगी दल जो पिछले दो टर्म यानी 2014 और 2019 में औपचारिकता थे, इस बार अनिवार्यता बन गये, मजबूरी बन गये। चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार ‘एक हाथ ले तो दूसरे हाथ दे’ वाले खेल के माहिर हैं। दोनों ने बीजेपी सरकार को समर्थन देने के एवज़ में एक लंबी-चौड़ी लिस्ट प्रधानमंत्री मोदी और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को थमा रखी है। आंध्र प्रदेश अभी बिना राजधानी वाला राज्य है। अमरावती को राजधानी बनाने के लिये केन्द्र से 15 हजार करोड़ रुपये से अधिक का पैकेज चाहिये। उधर बिहार को भी विशेष राज्य का दर्जा चाहिये, यानी केन्द्र द्वारा अधिक से अधिक आर्थिक मदद। ऐसे में अंतरिम बजट में सरकार ने जो ट्रेलर दिखाया था उसमें कुछ बदलाव हो सकता है जो वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में लाजमी भी है। लेकिन, बजट की ‘लेन’ बदलते हुए भी केन्द्र सरकार ऐसा नैरेटिव तैयार नहीं करना चाहेगी कि लगे कि मोदी सहयोगी दलों के आगे झुक रहे हैं। 

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बहरहाल, ये अब निर्मला सीतारमण के ऊपर है कि वो बजट प्रबंधन ऐसा करें कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। लेकिन, एक बात तो साफ़ है कि सरकार ने विकसित भारत के लक्ष्य का जो खाका तैयार किया है, उस पर गाड़ी की रफ्तार कुछ वक्त के लिये धीमी हो सकती है।

विकसित भारत के लक्ष्य को प्राप्त करने में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मज़बूत सहारे की ज़रूरत होगी। भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है। यानी, अमेरिका और चीन के बाद भारत का स्थान होगा। लेकिन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अनुसंधान और विकास पर भारत कहीं से भी इन दो बड़े देशों के आसपास भी नहीं टिकता है। साथ ही शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों को भी विकसित राष्ट्रों की तर्ज पर अभी बहुत आगे ले जाना होगा। आँकड़े बताते हैं कि भारत अभी इन क्षेत्रों पर बजट आवंटन में विकसित राष्ट्रों से काफी पीछे है। 

भारत विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अनुसंधान और विकास पर अपनी कुल जीडीपी का मात्र 0.6 से 0.7 प्रतिशत खर्च करता है जबकि अमेरिका अपनी कुल जीडीपी का 2.8 प्रतिशत और चीन 2.1 फीसदी खर्च करता है। अमेरिका की जीडीपी भारत से छह गुना से भी अधिक है। चीन की जीडीपी भारत से लगभग पांच गुना ज्यादा है। आसान भाषा में समझें तो आर एंड डी पर अमेरिका अगर 17 से 18 रुपये खर्च करता है और चीन 10 से 11 रुपये खर्च करता है तो भारत मात्र 60 से 70 पैसे खर्च करता है। इजराइल तो अपनी जीडीपी का 4.3 प्रतिशत अनुसंधान और विकास कार्य के लिये लगाता है। दक्षिण कोरिया के लिये यह आंकड़ा 4.1 प्रतिशत का है।
क्रय शक्ति समता (पीपीपी) के संदर्भ में अनुसंधान एवं विकास पर ख़र्च की वास्तविक मात्रा के मामले में चीन अब अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर है। पीपीपी के संदर्भ में चीन में अनुसंधान एवं विकास पर कुल व्यय 2019 में 525.7 अरब डॉलर था, जो भारत द्वारा ख़र्च की गई राशि 58.7 अरब डॉलर से लगभग दस गुना ज्यादी थी।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आर्थिक सलाहकार परिषद ने ‘आरएंडडी व्यय पारिस्थितिकी तंत्र’ नामक रिपोर्ट में बताया है कि अमेरिका, चीन, इजराइल, दक्षिण कोरिया समेत कई विकसित देश भविष्य के लिए आरएंडडी पर खर्च करने में भारत से काफी आगे हैं। परिषद ने आरएंडडी को उच्च स्तर पर ले जाने के तरीके पर महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए हैं ताकि भारत का विकास मज़बूत आधार पर हो सके। 2022-23 के बजट में वित्त मंत्री ने 50,000 करोड़ रुपये के कोष के साथ एक राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन के गठन की घोषणा की, लेकिन अब तक इस दिशा में बहुत कम प्रगति हुई है।

चीन 1990 के दशक में वहीं खड़ा था जहां आज भारत है। उस समय चीन अपनी जीडीपी का लगभग 0.6 प्रतिशत ही अनुसंधान विकास पर खर्च करता था। चीन ने समय रहते विकास के लिये अति महत्व वाले क्षेत्रों की पहचान की और उसमें बजट आवंटन को तेज गति से बढ़ाया। विकास को रफ्तार देने के लिये हम यहां चीन से सीख सकते हैं। बजट के नज़रिये से हमें 1991 के बजट वाले क्षण को दोहराने की ज़रूरत है। एक छलांग लगाये जाने की ज़रूरत है। एक ऐसे बजट की ज़रूरत है जो बदलाव का अग्रदूत साबित हो सके। 

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भारत में रोजगार के आँकड़े भी चिंता पैदा करते हैं। खास तौर पर आर एंड डी के क्षेत्र में बहुत अधिक रोज़गार दिये जाने की ज़रूरत है। चीन अनुसंधान एवं विकास में 7 लाख से अधिक लोगों को रोजगार देता है, जबकि भारत के लिये यह आँकड़ा मात्र डेढ़ लाख से कुछ अधिक तक ही सीमित है।

विकसित भारत के विकास की राह में निजी क्षेत्रों की अल्प भागीदारी भी एक बड़ी चुनौती है। भारत के अनुसंधान और विकास में आधे से अधिक हिस्सा सरकारी क्षेत्र का है। अन्य देशों में इस पर सरकारी खर्च बहुत कम है। आर एंड डी में चीन में सरकारी हिस्सेदारी 15 प्रतिशत, जर्मनी की 14 प्रतिशत, यूके की 7 प्रतिशत और जापान की 8 प्रतिशत है। इन देशों में निजी क्षेत्र आर एंड डी पर लगातार अपनी भागीदारी बढ़ा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कई मौकों पर निजी क्षेत्रों से अपनी भागीदारी बढ़ाने की अपील की है। इसके लिये उदार आयकर रियायतों के साथ निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की भी कोशिश की गई, लेकिन ऐसी सुविधाओं का अधिकतर दुरूपयोग ही देखने को मिला। निजी क्षेत्र में वास्तविक शोध को बढ़ावा देने के लिए, कंपनियों के मुनाफे का 2 प्रतिशत शोध एवं विकास के लिए अलग रखना अनिवार्य करना ठीक रहेगा, ठीक उसी तरह जैसे कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी के लिए है। यदि कोई कंपनी या समूह इस राशि को खर्च नहीं कर सकता है, तो बची हुई राशि को राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन में दान किया जा सकता है। एनआरएफ़ के कोष का उपयोग राज्य सरकारों, शिक्षण एवं अनुसंधान केंद्रों और यहाँ तक कि कॉरपोरेट्स के लिए उपलब्ध केंद्र प्रायोजित योजना विकसित करने के लिए किया जा सकता है।

एक और महत्वपूर्ण बात है कि भारत अपने अनुसंधान व्यय का 44 प्रतिशत पूंजी इंफ्रा विकास पर खर्च करता है, जबकि चीन, यू.के. और अमेरिका अनुसंधान एवं विकास पूंजी में से इंफ्रा विकास पर ना के बराबर ख़र्च करते हैं।

आरएंडडी की राशि से भवनों और अचल संपत्तियों के निर्माण को बाहर रखा जाना चाहिए। उच्च शिक्षण संस्थानों में शोध मानसिकता विकसित करने की भी आवश्यकता है, जहां भारत न्यूनतम संसाधन ख़र्च करता है।

जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक हर प्रधानमंत्री ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी में संसाधनों के निवेश के महत्व की बात की है। नेहरू विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास के लिए समर्पित थे, और अंतरिक्ष अनुसंधान और परमाणु ऊर्जा में भारत के सबसे सफल वैज्ञानिक उपक्रमों को शुरू करने का श्रेय उन्हें जाता है। उन्होंने कई बार विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रति अपने लगाव के बारे में बात की। लेकिन ये लगाव दूसरी प्राथमिकताओं की वजह से एक सीमित दायरे में ही रहा। अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा के अलावा अन्य क्षेत्रों में यहाँ तक कि रक्षा में भी कुछ खास नहीं हुआ है। शुरुआती समय से ही भारत में सरकारें अनुसंधान और विकास पर ख़र्च को सकल घरेलू उत्पाद के 2 प्रतिशत तक बढ़ाने की बात करती रही हैं, लेकिन यह मात्र 0.6 प्रतिशत से 0.7 प्रतिशत पर ही बना हुआ है।

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भारत अपने खुद के अनुभव से भी बहुत कुछ सीख सकता है। जबकि अन्य क्षेत्र आम तौर पर सुस्त रहे हैं, भारत ने अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति की है। इन क्षेत्रों में उदारतापूर्वक निवेश करने के अलावा, अंतरिक्ष आयोग और परमाणु ऊर्जा आयोग के प्रशासन को लगभग पूरी स्वायत्तता दी गई। वरिष्ठ वैज्ञानिकों की अध्यक्षता में उच्चस्तरीय निकायों को नौकरशाही की बाधाओं के बिना निर्णय लेने का अधिकार दिया गया, जिसमें पीएमओ में राज्य मंत्री, प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव, कैबिनेट सचिव, वित्त सचिव और प्रमुख वैज्ञानिक शामिल थे। परिणाम सभी के सामने हैं। अब देखना है कि निर्मला सीतारमण अपने इस बजट में विकास के लिये आवंटन और सत्ता बचाये रखने के लिये आवंटन में कितनी चतुराई से संतुलन और सामंजस्य बैठाती हैं?

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हर्ष रंजन
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