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इज़राइल और हमास के बीच युद्ध का असर क्या भारत सहित दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहा है? इस सवाल का जवाब तो यह है कि इसका असर अब तक कुछ ही देखने को मिला है। लेकिन आगे भी क्या कुछ ही असर होगा या फिर इसका असर भी भयावह हो सकता है?
इसको समझने के लिए युद्ध के बाद से पूरे घटनाक्रम को समझना होगा। जब युद्ध शुरू हुआ था तो तुरंत क्रूड ऑयल के दाम बढ़े थे और दुनिया भर के शेयर बाज़ार भी गिरे थे। लेकिन उसके अगले दिन ही शेयर बाज़ार भी उबर गया था और क्रूड ऑयल के दाम भी कम हो गए थे। लेकिन इसके बाद भी इन बाज़ारों में काफी उतार-चढ़ाव रहा। लेकिन युद्ध के क़रीब तीन हफ्ते में देखा जाए तो अब तक क्रूड ऑयल यानी अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतें 5 प्रतिशत से अधिक बढ़ गई हैं और अमेरिकी बांड 5 प्रतिशत के आंकड़े को पार कर 16 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है।
भारत की अर्थव्यवस्था वैश्विक तेल आयात पर ही काफ़ी हद तक निर्भर है। ऐसा इसलिए कि भारत में कुल ख़पत का 85 फ़ीसदी तेल आयात होता है। यानी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल के दाम बढ़ने का सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ता ही है। ऐसा इसलिए कि ईंधन के दाम बढ़ने पर सामान का उत्पादन तो महंगा होता ही है, सामान की ढुलाई भी महंगी हो जाती है। और जब सामान के बनने से लेकर उपभोक्ताओं तक पहुँचने में ख़र्च ज़्यादा होंगे तो उपभोक्ताओं से ही वसूले जाएँगे। बाज़ार का नियम तो यही कहता है। यानी सीधे-सीधे कहें तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल के दाम बढ़ने का असर महंगाई पर पड़ता है। यदि सरकार तेल की क़ीमतें नहीं बढ़ाएगी तो भी अर्थव्यवस्था की सेहत पर असर तो पड़ना ही है।
वैसे तो आर्थिक विश्लेषकों का कहना है कि भारत में इस समय व्यापक तौर पर आर्थिक स्थिरता देखी जा रही है, लेकिन इज़राइल हमास युद्ध से इस पर ख़तरा बना हुआ है। यह ख़तरा इस रूप में है कि इस युद्ध के बढ़ने के आसार हैं। हमास का समर्थक यदि ईरान इस युद्ध में कूदता है तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की क़ीमतों को संभालना मुश्किल हो जाएगा।
प्रमुख तेल उत्पादक सऊदी अरब और रूस द्वारा साल के आख़िर तक संयुक्त रूप से प्रति दिन 1.3 मिलियन बैरल की तेल आपूर्ति में कटौती की घोषणा से वैश्विक अर्थव्यवस्था पहले से ही दबाव में है।
अब तेल की कीमतें 90 डॉलर प्रति बैरल के निशान से ऊपर मँडरा रही हैं। युद्ध के अन्य देशों तक फैलने या फिर अमेरिका और ईरान के बीच परोक्ष संघर्ष होने से भी तेल बाज़ार की स्थिति ख़राब होगी।
कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने से वैश्विक अर्थव्यवस्था को फिर से महंगाई का सामना करना पड़ रहा है। यदि तेल की कीमतें ऊंची रहती हैं तो अमेरिका, भारत, चीन और तेल आयात करने वाले अन्य प्रमुख देशों में महंगाई बढ़ सकती है।
अगर अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतें पूरे वर्ष बढ़ती रहीं तो आयात बिल काफ़ी ज़्यादा बढ़ जाएगा। इस वजह से व्यापार घाटा हो सकता है। इससे देश के चालू खाते के संतुलन पर दबाव पड़ सकता है। लाइव मिंट की रिपोर्ट के अनुसार वाटरफील्ड्स के शांतनु भार्गव ने कहा, 'कच्चे तेल की क़ीमतें भारत को नुक़सान पहुंचा रही हैं, जिससे मुद्रा स्थिरता प्रभावित हो रही है, संभवतः सरकार का राजकोषीय घाटा खराब हो रहा है। चालू खाता घाटा यानी सीएडी बढ़ने से मुद्रा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और लाभ मार्जिन प्रभावित हो रहा है।' ब्रेंट क्रूड की कीमतों में प्रत्येक 10 डॉलर की वृद्धि से भारत का चालू खाता घाटा 0.5 प्रतिशत बढ़ जाता है।
यह सेट पैटर्न है कि जब तेल के दाम बढ़ते हैं तो अमेरिकी डॉलर मज़बूत होता है। अमेरिकी डॉलर के सामने बाक़ी मुद्राएँ कमजोर पड़ती हैं। चूँकि भारत तेल आयात के लिए डॉलर में भुगतान करता है, इसलिए तेल के दाम बढ़ने पर डॉलर की मांग में वृद्धि हो सकती है, जिससे डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर हो सकता है।
अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतें बढ़ने का असर दो जगहों पर होता है। या तो इसका भार उपभोक्ताओं पर डाला जाए या फिर सरकारी तेल कंपनियों पर। चूँकि भारत में अभी चुनाव का मौसम है तो उपभोक्ताओं पर इसका असर फिलहाल तो नहीं पड़ने की संभावना है। इसलिए माना जा रहा है कि कीमतें बढ़ेंगी तो इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम कॉर्प लिमिटेड (बीपीसीएल) और हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्प लिमिटेड (एचपीसीएल) सहित तेल विपणन कंपनियां घाटे में होंगी।
उपभोक्ताओं को तेल की बढ़ती कीमतों के पूरे प्रभाव से बचाने के लिए सरकार अक्सर ईंधन की कीमतों पर सब्सिडी देती है। यदि कच्चे तेल की कीमतें लंबे समय तक ऊंचे स्तर पर रहती हैं, तो सब्सिडी बढ़ाने या जारी रखने से राजकोषीय घाटा बढ़ जाएगा। यानी कुल मिलाकर देखा जाए तो इज़राइल हमास युद्ध का असर तो अर्थव्यवस्था पर पड़ना ही है, लेकिन अब यह देखना है कि युद्ध अब आगे क्या रुख लेता है और इसी रुख से अर्थव्यवस्थाओं पर असर का स्तर निर्भर करेगा।
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