देश में पीसी यानी पर्सनल कम्प्यूटर और लैपटॉप का जितना आयात जनवरी में हुआ उसका 90 फ़ीसदी तो 'मेड इन चीन' है। इससे एक महीने पहले यानी दिसंबर में यह 89 फीसदी था। नवंबर में यह 83 फ़ीसदी था। तो क्या भारत पर्सनल कम्प्यूटर और लैपटॉप के लिए पूरी तरह चीन से आयात पर निर्भर है? इससे भी बड़ा सवाल तो यह है कि पिछले कुछ वर्षों में बात-बात में चीन के सामान का बहिष्कार करने, हैशटैग चलाने और चीन को लाखों करोड़ डॉलर का नुक़सान पहुँचाने के दावे का क्या हुआ?
केंद्र द्वारा लगातार 'मेड इन इंडिया' का अभियान चलाए जाने के बाद भी चीन से आयात पर इतनी निर्भरता एक दूसरी ही कहानी कहती है। चीन के सामानों को लेकर सोशल मीडिया पर कैसे ट्रेंड चलाया जाता है और किस तरह एक माहौल बनाने की कोशिश होती है, उसकी चर्चा बाद में। पहले यह जान लें कि आख़िर कम्प्यूटर और लैपटॉप के आयात को लेकर ताज़ा रिपोर्ट क्या आई है।
वाणिज्य मंत्रालय के आयात-निर्यात डेटा के आधार पर भारत में पीसी और लैपटॉप के आयात को लेकर बेहद रोचक आँकड़े आए हैं। इन आँकड़ों का विश्लेषण इंडियन एक्सप्रेस ने किया है। इससे पता चलता है कि जनवरी में भारत द्वारा आयातित लगभग 90 प्रतिशत लैपटॉप और पर्सनल कंप्यूटर चीन से आए थे। उससे पहले महीने में बीजिंग की हिस्सेदारी 89 प्रतिशत से अधिक थी और नवंबर में यह आंकड़ा 83 प्रतिशत था। कुल मिलाकर 2023-24 वित्तीय वर्ष में जनवरी तक भारत में बेचे गए 10 में से लगभग आठ लैपटॉप चीन से आए।
ऐसा तब हुआ जब चीन से लैपटॉप और पीसी आयात को हतोत्साहित करने का प्रयास किया गया है। इन प्रयासों के तहत अगस्त 2023 में विदेश व्यापार महानिदेशालय द्वारा एक अधिसूचना जारी की गई थी। इसने इन सामानों के आयात को प्रतिबंधित श्रेणी में रखा, सरकार ने घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए अपनी आईटी हार्डवेयर विनिर्माण प्रोत्साहन नीति को इंसेंटिव दिया। इसके बावजूद भारत का कुल लैपटॉप आयात वित्त वर्ष 2014 (जनवरी तक) में साल-दर-साल 5 प्रतिशत बढ़ गया, जबकि चीन से ऐसा आयात 6 प्रतिशत बढ़ गया। चीन ने वित्त वर्ष 2014 में भारत को 64.93 लाख यूनिट का निर्यात किया, जबकि वित्त वर्ष 2013 में यह 61.24 लाख यूनिट था।
चीन दुनिया में पीसी और लैपटॉप का सबसे बड़ा निर्यातक है। उसकी हिस्सेदारी 81 प्रतिशत है। लेनोवो, ऐप्पल, डेल और एचपी जैसी शीर्ष कंपनियाँ अपने अधिकांश लैपटॉप और पीसी चीन में बनाती हैं।
बहरहाल, चीन से आयात की ऐसी स्थिति तब है जब सोशल मीडिया पर बहिष्कार का अभियान चलाया जाता है। ख़ासकर, गलवान में संघर्ष के बाद तो बड़े पैमाने पर इसका अभियान चलाया गया था। गलवान घाटी लद्दाख और अक्साई चीन के बीच स्थित है। यहाँ पर एलएसी अक्साई चीन को भारत से अलग करती है। जून 2020 में इसी गलवान घाटी में हिंसक झड़प हुई थी जब 20 भारतीय सैनिक देश के लिए शहीद हो गए थे और 40 से अधिक चीनी सैनिकों के मारे जाने या घायल होने के दावे कई मीडिया रिपोर्टों में किए गए थे।
गलवान संघर्ष के बाद आर्थिक बहिष्कार की मांग उठी थी। बीजेपी के कई नेताओं और समर्थकों ने चीनी सामानों के बहिष्कार की मुहिम चलाई थी और उसे राष्ट्रवाद से जोड़ दिया था। सोशल मीडिया पर चीनी मोबाइल फ़ोन, टेलीविज़न, दूरसंचार उपकरण और दूसरे उपकरणों के बहिष्कार की अपील की गई थी।
चीन विवाद के बाद सबसे पहले बड़े नेताओं में तत्कालीन उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने स्वदेशी की बात की थी। तब सरकारी खरीद पोर्टल पर यह बताना अनिवार्य किया गया था कि उत्पाद किस देश का बना है। भारत सरकार ने चीन के ऐप पर प्रतिबंध लगाने के साथ बिजली उपकरणों की बगैर पूर्व अनुमति आयात प्रतिबंधित कर दिया था। बिजली मीटरों के ठेके रद्द कर दिए गए थे। स्मार्ट टीवी के आयात पर रोक लगा दी गई थी।
गलवान संघर्ष के बाद पश्चिम बंगाल के बीजेपी नेता जॉय बनर्जी ने लोगों से अपील की थी कि वे चीनी उत्पादों का बहिष्कार करें। बनर्जी ने कहा था कि जो लोग इनका इस्तेमाल जारी रखते हैं, उनकी टांगें तोड़ दी जानी चाहिए और उनके घरों में तुरंत तोड़फोड़ की जानी चाहिए।
उसी बीच सरकार ने कई चीनी ऐप को प्रतिबंधित कर दिया था और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश क़ानून में संशोधन कर चीनी प्रत्यक्ष निवेश पर एक तरह से रोक लगा दी थी। लेकिन इसका नतीजा क्या हुआ? क्या व्यापार कम भी हुआ?
2022 में आई रिपोर्ट में कहा गया था कि आयात बढ़ गया था। खुद सरकार ने ही यह माना था।
तत्कालीन राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल द्वारा पेश किए गए आँकड़ों के मुताबिक़, गलवान संघर्ष वाले वर्ष के दौरान भारत में 2020-21 में चीन से कुल आयात 65.21 बिलियन डॉलर का था जो कि 2021-22 में यह बढ़कर 94.57 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया था।
मोटे तौर पर कहें तो एक साल में आयात 45% तक बढ़ गया। आयात से मतलब है कि चीन में बने हुए सामान भारत में मंगाये जा रहे हैं। तो फिर चीनी सामानों के बहिष्कार का क्या हुआ?
बहिष्कार की बात छोड़ भी दें तो आयात और निर्यात के बीच खाई को देखिए। ऐसा लगता है कि मानो चीन ने भारत के सामानों का बहिष्कार कर रखा हो! 2022 के आँकड़े को ही देख लें। अप्रैल से अक्टूबर, 2022 के बीच चीन से कुल आयात 60.27 बिलियन डॉलर का था। जबकि अप्रैल से अक्टूबर, 2022 के बीच भारत से चीन को निर्यात सिर्फ 8.77 बिलियन डॉलर का हो पाया था। कहीं चीन ने तो आर्थिक बहिष्कार नहीं कर रखा है?
अब यदि व्यापार की बात की जाए तो भी बहिष्कार की स्थिति नहीं दिखती है। भारत-चीन के बीच कुल व्यापार 2020-21 में 86.39 बिलियन डॉलर था जो 2021-22 में बढ़कर 115.83 बिलियन डॉलर हो गया था। यानी दोनों देशों के बीच व्यापार में 34.07 प्रतिशत का इजाफा हुआ। फिर बहिष्कार कहाँ है?
2023 के बहिष्कार का नतीजा क्या?
पिछले साल यानी 2023 में भी ऐसा ही अभियान शुरू किया गया था। व्यापारियों के संगठन कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स यानी सीएआईटी ने व्यापारियों से त्योहारी सीजन में चीनी सामानों का बहिष्कार करने का आग्रह किया था, जिससे व्यापारियों और आयातकों द्वारा त्योहारी और अन्य सामानों का आयात न करने के कारण चीन को 1 लाख करोड़ रुपये का व्यापार नुकसान उठाना पड़ेगा।
क्या बहिष्कार एक तरह से बच्चों के हाथ में झुनझुना पकड़ाने जैसा नहीं है? क्या बहिष्कार सोशल मीडिया पर 'उग्र राष्ट्रवादियों' के हाथ में पकड़ाने वाला सिर्फ़ एक हथियार नहीं है जिससे कि वे सोशल मीडिया पर ही लड़ते रहें और मुद्दा शांत होते ही बहिष्कार का 'भूत' भी उतर जाए?
क्या यह संभव है कि जो भारतीय उद्योग चीनी सामान पर निर्भर हों, उस सामान का आयात बंद कर दिया जाए? भारत चीन से खिलौने, बिजली की लैंप, इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पाद, कंप्यूटर के पार्ट्स, मोटर गाड़ी और मोटर साइकिल के कल पुर्जे, उर्वरक, एंटीबायोटिक्स, दवाएं, व मोबाइल फ़ोन खरीदता है।
सबसे बड़ी बात यह है कि इलेक्ट्रॉनिक्स, मोटर कार, मोटर साइकिल, मोबाइल फ़ोन, उवर्रक व दवा उद्योग पूरी तरह चीनी आयात पर निर्भर है। चीन से भारत इंटरमीडिएट प्रोडक्ट्स लेता है, यानी वे उत्पाद जिनके आधार पर कोई दूसरा उत्पाद तैयार होता है। इनमें दवा व वाहन प्रमुख हैं।
इसके अलावा मोबाइल और कंप्यूटर उद्योग तो मोटे तौर पर चीनी कल-पुर्जों को जोड़ कर नया उत्पाद बनाने तक सीमित है। इन चीनी कल-पुर्जों के बिना इन उद्योगों को चलाना बेहद मुश्किल होगा। तो क्या आयात पर निर्भरता कम होना मुश्किल है?
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