कल्पना सोरेन
जेएमएम - गांडेय
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खुश रहिए या खुश रहो! भारत में बरसों से बुजुर्ग यह आशीर्वाद देते आ रहे हैं। अब कौन कैसे खुश रहेगा या रहेगी यह बड़ा मसला है। इतना बड़ा कि संयुक्त राष्ट्र को हिसाब जोड़ना पड़ रहा है कि दुनिया के किस देश में खुशी सबसे ज़्यादा और कहाँ सबसे कम है। इस साल की प्रसन्नता का हाल देनेवाली वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट तो आज दोपहर में जारी होगी यानी भारत में शाम तक सामने आएगी, क्योंकि आज इंटरनेशल डे ऑफ हैप्पीनेस या अंतरराष्ट्रीय प्रसन्नता दिवस है। मगर पिछले तीन साल से इस रिपोर्ट में भारत धीरे-धीरे तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ता दिख रहा है। 2020 में 144वें स्थान से भारत 2021 में 139वें और पिछले साल यानी 2022 की रिपोर्ट में 136 वें स्थान पर पहुंचा था।
आप इस बात पर खुश हो सकते हैं कि भारत धीरे-धीरे ऊपर चढ़ रहा है, या फिर इस बात पर दुखी भी हो सकते हैं कि कुल जमा 146 देशों की इस लिस्ट में भारत 135 देशों से नीचे और सिर्फ दस देशों से ऊपर क्यों है। इस विषय पर अलग से लंबी चर्चा चल सकती है। लेकिन फिलहाल तो उन देशों का हाल देखना चाहिए जो इस लिस्ट के सिरमौर रहे हैं। पिछले साल की रिपोर्ट में फिनलैंड, डेनमार्क और आइसलैंड के बाद नंबर आया स्विट्जरलैंड (स्विसलैंड) नेदरलैंड और लक्ज़मबर्ग का। माना गया कि इन देशों में रहनेवाले दुनिया में सबसे ज्यादा खुशहाल हैं। ऊपर की बीस पायदान पर इस्राइल, न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया को छोड़कर यूरोप और अमेरिका के बाहर का कोई देश शामिल नहीं है। यानी सबसे ज्यादा खुशहाली यहीं दिखाई पड़ी। उस रिपोर्ट की सबसे बड़ी बात यह नतीजा था कि अंधकार के दौर में रौशनी दिखाई दे रही है। कोरोना महामारी दुनिया के लिए सिर्फ दर्द और परेशानी ही नहीं लाई। बल्कि सामाजिक मदद और उदारता के भाव में बढ़ोत्तरी भी साथ आई है।
जाहिर है बड़ी मुसीबत इंसानों को एक कर देती है। कहा भी गया था कि कोरोना महामारी के बाद दुनिया को देखने का पैमाना बदल जाएगा। ईसा पूर्व और ईसा के बाद के बजाय अब सामाजिक आर्थिक इतिहास को शायद कोरोना के पहले और कोरोना के बाद के पैमाने पर लिखा और पढ़ा जाएगा। तो अब, जब दुनिया कोरोना से पैदा हुए आर्थिक संकट से उबरने की कोशिश में कामयाब होती दिख रही थी, यह भाव और उभरकर खुशहाली के मोर्चे पर उत्साह बढ़ाता दिखना चाहिए था। लेकिन क्या सचमुच ऐसा हो पाया है? इसका जवाब रिपोर्ट में क्या आएगा, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि हमें ज़मीन पर क्या दिख रहा है।
इस वक़्त दुनिया के नक्शे का एक बड़ा भाग एक नई समस्या और एक नई आशंका से जूझ रहा है। यह सिलसिला अमेरिका के सिलिकॉन वैली बैंक और सिग्नेचर बैंक के डूबने से शुरू हुआ। दुनिया भर के शेयर बाज़ारों में खलबली मचने लगी। और उसके बाद यूरोप के सबसे बड़े बैंक क्रेडिट स्विस की मुसीबत ने तो मानो भूचाल ला दिया। क्रेडिट स्विस को बीते साल भारी घाटा हुआ है जिसने उसके पिछले दस साल के मुनाफे पर पानी फेर दिया। 2022 के सिर्फ आखिरी तीन महीनों में बैंक से 111 अरब स्विस फ्रैंक निकाले गए। यह बैंक दरअसल दुनिया भर के अमीरों के पैसे जमा करने और उनके निवेश पोर्टफोलियो का मैनेजमेंट करने के लिए मशहूर है। और पिछले साल एक के बाद कई घोटालों में बैंक का नाम आने से ही शायद उसके ग्राहकों में भगदड़ मचने लगी थी। क्योंकि इसका मतलब था कि बैंक में जोखिम से निबटने की क्षमता शायद कम हो रही थी और इसका असर उसकी कमाई पर पड़ना भी तय था।
हालांकि इसके बाद स्विट्जरलैंड के केंद्रीय बैंक स्विस नेशनल बैंक ने पचास अरब फ्रैंक की मदद का एलान कर दिया और यह सुनते ही यूरोप के शेयर बाज़ार में बैंक के शेयर गुरुवार को तैंतीस परसेंट उछल गया। लेकिन क्या यह मुसीबत पूरी तरह टल गई है, यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगी।
वजह यह है कि क्रेडिट स्विस दुनिया के सबसे बड़े बैंकों में से एक है। यह वो बैंक हैं जिन्हें दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। इन्हें सिस्टमैटिक्ली इंपॉर्टेंट बैंक यानी बैंकिंग प्रणाली के लिहाज़ से महत्वपूर्ण कहा जाता है। इनमें से किसी बैंक का मुसीबत में आना एक तरह से पूरे बैंकिंग उद्योग को ख़तरे में डाल सकता है। इसीलिए अब यह सवाल गंभीर हो रहा है कि इतने महत्वपूर्ण बैंक में ऐसी गड़बड़ियां चल रही थीं तो यह बात अब तक किसी रेगुलेटर की नज़र में आई क्यों नहीं? और जब इसका जवाब तलाशा जाएगा तब क्या क्या सामने आएगा इसका अभी अनुमान लगाना भी मुश्किल है। भारत में भी इस बैंक के पास करीब बीस हज़ार करोड़ रुपए की संपत्ति है और इसीलिए तमाम जानकार कह रहे हैं कि क्रेडिट स्विस बैंक का डूबना भारत के लिए सिलिकॉन वैली बैंक के मुक़ाबले काफी बड़ी मुश्किल खड़ी कर सकता है।
हालाँकि यह बात सच है कि अगर कहीं क्रेडिट स्विस डूब गया तो फिर पूरी दुनिया के लिए एक बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा। और यह भी सच है कि सिलिकॉन वैली बैंक या सिग्नेचर बैंक के डूबने से भारत के बैंकिंग कारोबार पर कुछ खास असर नहीं पड़ने वाला है। लेकिन अमेरिका के बैंकों की मुसीबत से भारत पर कोई असर नहीं पड़नेवाला यह भी नहीं कहा जा सकता है। अभी अमेरिका के बाज़ारों ने राहत की साँस ली है क्योंकि मुश्किल में फँसे एक और बैंक फर्स्ट रिपब्लिक को मदद देने के लिए तमाम बड़े बैंकों ने हाथ बढ़ाया और तीस अरब डॉलर उसमें जमा करने का प्रस्ताव दे दिया। राहत की एक वजह यह भी थी कि यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने ब्याज दरों में आधा परसेंट की बढ़ोत्तरी का एलान भी कर दिया। आसमान छूती महंगाई से निबटने के लिए हुए इस फैसले से बाज़ार उत्साहित हो गए और अब उनकी नज़र अमेरिकी फेडरल रिजर्व पर है जिसे इस हफ्ते ब्याज दरों पर अपना फैसला सुनाना है।
सिलिकॉन वैली बैंक के डूबने का असर बैंकों पर नहीं लेकिन भारत के स्टार्टअप कारोबारियों पर साफ़ दिख रहा है। खासकर वो जिन्होंने इस बैंक में पैसे जमा कर रखे थे। यह बैंक खासकर स्टार्टअप को कर्ज देने के लिए मशहूर था। इसीलिए उनके खाते भी इस बैंक में थे और उनमें खासी मोटी रक़म भी जमा थीं। बहुत सी कंपनियों के स्टाफ की तनख्वाह बांटने का जिम्मा भी बैंक के पास ही था। उन्हें इस बात से राहत मिली है कि सबकी जमा रकम मिल जाएगी। लेकिन कब मिलेगी इस सवाल का जवाब आया नहीं था। हैरान परेशान कारोबारी आइटी राज्यमंत्री राजीव चंद्रशेखर के पास भी गुहार लगा चुके हैं जिन्होंने वित्त मंत्रालय से उनकी मदद के लिए सिफारिश का वादा भी किया। दूसरी तरफ़ अब आइटी कारोबारियों और स्टार्टअप उद्यमियों में यह डर पैदा हो गया है कि अमेरिकी बैंक में ज्यादा रकम रखना ख़तरनाक़ हो सकता है। इनमें से जो लोग एसवीबी से पैसा निकालकर अमेरिका में ही किसी दूसरे बैंक में ट्रांसफर करने में कामयाब हो गए वो भी इस जुगत में लगे हैं कि इसे कैसे भारत ही लाकर रखा जाए। इस चक्कर में गांधीनगर के गिफ्ट सिटी को आपदा में अवसर मिल गया है। वहां जिन भारतीय बैंकों ने विदेशी कारोबार के लिए अपनी इंटरनेशनल बिजनेस यूनिट खोल रखी हैं अब वहां पैसा जमा करवाने के लिए लाइन लग गई है।
गिफ्ट सिटी एक इंटरनेशनल फाइनेंशियल सर्विसेज सेंटर है यानी वहां पैसा जमा करना एक तरह से किसी बैंक की विदेशी शाखा में पैसा रखना ही है। लेकिन अब उद्यमियों को यह चिंता सता रही है कि विदेशी बैंकों से बड़ी रक़म लाकर भारत में रखने पर उन्हें टैक्स के पचड़ों में तो नहीं उलझना पड़ेगा। आई टी मंत्रालय के ज़रिए वो वित्त मंत्रालय से यही छूट हासिल करना चाहते हैं ताकि वो अपना पैसा जल्दी से जल्दी यहाँ ला सकें।
लेकिन इसके बाद भी एक दूसरी मुसीबत पीछा नहीं छोड़ रही है। स्टार्टअप में पैसा लगाने वाले वेंचर फंड या पूंजीपति भी अब काफी सतर्क हो गए हैं। पहले ही इस रास्ते से पैसा मिलना काफी मुश्किल हो चुका था और अब एसवीबी संकट के बाद उद्यमियों को डर है कि उन्हें पैसा मिलने के मामले में जो सूखा पड़ा हुआ है वो अभी लंबा खिंचनेवाला है। यानी सर्दी ख़त्म होने के बावजूद उनके लिए बहार का मौसम अभी दूर ही है।
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