संसद में 2024-25 का आम बजट पेश किए हुए दस दिन बीतने वाले हैं लेकिन इसकी उपलब्धियों के बखान का सिलसिला अभी रुका नहीं है। मीडिया की चर्चाओं के बाद बजट जब कार्पोरेट विमर्श में पहुंचा है तो वित्तीय घाटा कम करने को सबसे बड़ी उपलब्धि बताया जा रहा है। बहुत से उद्योगपतियों और कुछ अर्थशास्त्रियों ने इसे लेकर तमाम कसीदे भी काढ़े हैं।
यहां इस बात को फिर से याद कर लें कि पिछले वित्त वर्ष में वित्तीय घाटे का लक्ष्य 5.1 फीसदी था जिसे इस बार घटाकर 4.9 फीसदी पर पहुंचा दिया गया है। इसे एक बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जा रहा है।
संसद में बजट पेश करने के एक सप्ताह बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उद्योगपतियों के संगठन सीआईआई के सम्मेलन में कहा कि कोविड के तमाम दबावों के बावजूद सरकार ने जिस तरह से वित्तीय संतुलन साधा है उसके चलते भारत पूरी दुनिया के लिए रोल माॅडल बन गया है। अगले ही दिन राज्यसभा में बजट पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि सरकार यह सिलसिला जारी रखेगी और अगले बजट में यह लक्ष्य 4.5 फीसदी पर पहुंच जाएगा।
मुमकिन है कि वित्तमंत्री इसमें कामयाब भी रहें लेकिन अभी तक जो हुआ क्या इसे बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है? बेहतर होगा कि वित्तीय घाटे के इन आंकड़ों की तुलना पुराने आंकड़ों से की जाए।
वित्त वर्ष 2004-05 के चुनावी साल में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान जो बजट पेश हुआ उसमें वित्तीय घाटे का लक्ष्य 4.8 फीसदी था। जो इसके बाद के एक साल तक मनमोहन सिंह की सरकार में भी जारी रहा। तब वित्तमंत्री बने थे पी चिदंबरम जो इसे एक ही साल में 4.1 फीसदी तक लाने में कामयाब रहे। फिर अगले साल यानी 2007-08 के बजट में यह तेजी से नीचे आया और 3.3 पर पहुंच गया। और इसके अगले साल तो और भी कमाल हुआ, पी चिंदबरम वित्तीय घाटे को 2.5 फीसदी तक लाने में कामयाब रहे।
यह सब उस दौर में हुआ जब भारत में मनरेगा जैसी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना लागू हुई। यह समाज कल्याण योजना पूरी तरह कामयाब रही थी और इस पर होने वाला खर्च भी साल दर साल बढ़ रहा था। बावजूद इसके सरकार वित्तीय घाटे को काफी तेजी से नीचे लाने में कामयाब रही थी।
हालांकि 2008 ही वह साल था जब लेहमन बदर्स का दिवाला पिटने के बाद विश्वव्यापी मंदी ने दस्तक दी और पूरी दुनिया आर्थिक संकट में फंस गई। ऐसे संकट के समय फोकस वित्तीय घाटे जैसी चीजों पर रखने के बजाए सारा ध्यान अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने पर दिया जाता है। इसलिए तमाम आर्थिक उतार-चढ़ाव के बीच अगले बजट में वित्तीय घाटे का लक्ष्य बढ़ना तय ही था।
वित्त-वर्ष 2009-10 का जो बजट प्रणव मुखर्जी ने संसद में पेश किया उसमें वित्तीय घाटा बढ़कर 6.8 फीसदी हो गया। यह उस समय की वित्तीय मजबूरी थी। ठीक वैसी ही मजबूरी जैसी कोविड संकट के समय पैदा हुई थी। लेकिन तमाम उतार-चढ़ावों के बीच उस समय के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने अगले ही बजट से इसे नीचे लाने का सिलसिला भी शुरू कर दिया।
ठीक यहीं पर हमें 2003 के उस कानून को भी याद कर लेना चाहिए जिसे वित्तीय जवाबदेही और बजट प्रबंधन कानून यानी एफआरबीएम एक्ट कहा जाता है। इस कानून का मकसद अनाप-शनाप सरकारी खर्चों पर रोक लगाते हुए वित्तीय अनुशासन को बढ़ाना, मैक्रोइकाॅनमिक प्रबंधन को सुधारना और बजट घाटे को लगातार कम करना। कानून यह भी कहता था कि कुछ साल में वित्तीय घाटे को पूरी तरह खत्म करने की कोशिश की जाएगी।
संसद ने यह कानून जिस समय पास किया उस समय देश में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। लेकिन बाद में बनी मनमोहन सिंह सराकर ने इसे लागू करने में पूरी प्रतिबद्धता दिखाई। इसीलिए हर बजट में वित्तमंत्री इसका जिक्र जरूर करते थे।
केंद्र में जब नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तो वित्तमंत्री बनाए गए अरुण जेटली। वित्तीय घाटे को कम करने का सिलसिला तो उन्होंने जारी रखा लेकिन वह एफआरबीएम एक्ट उन्हें खटकने लग गया जिसे उन्हीं की पार्टी की पूर्ववर्ती सरकार ने बनाया था। उन्होंने इस कानून की समीक्षा के लिए उन्होंने वित्त मंत्रालय में कईं वरिष्ठ पदों पर रह चुके एनके सिंह की अध्यक्षता में एक बहुत बड़ा आयोग बनाया और उसकी रिपोर्ट के बाद कानून में कुछ बदलाव भी किए गए। अब हालत यह है कि बजट में इसका जिक्र चलताऊ तौर पर ही किया जाता है। साल भर तो खैर इसे कोई याद भी नहीं करता।
ठीक यहीं पर एक बात का जिक्र और जरूरी है। जब देश में राजीव गांधी की सरकार थी तो एक नीति की घोषणा हुई थी जिसे दीर्घकालिक वित्तीय नीति यानी लांग टर्म फिस्कल पाॅलिसी कहा गया था। इस नीति के मसौदे में यह कहा गया था कि हमें धीरे-धीरे वित्तीय घाटे को दो फीसदी से नीचे ले जाना होगा। यही मसौदा था जिसके बाद वित्तीय घाटे को गंभीरता से लेने का सिलसिला राजनीति में शुरू हुआ और यही बाद में एफआरबीएम कानून का आधार बना।
राजीव गांधी की सरकार के दौरान जब इस नीति की घोषणा हुई तो तमाम अर्थशास्त्रियों से लेकर सभी उद्योग संगठनों ने इसकी एक सुर में तारीफ की थी। सभी ने इसे देर से लिया गया सही कदम बताया था। और अब अगर वे ही लोग वित्तीय घाटे को 5.1 फीसदी से 4.9 फीसदी तक लाने पर प्रशंसा गीत गा रहे हैं तो सचमुच आश्चर्य ही होता है। सरकार तो खैर अगर यह न भी होता तो भी अपनी पीठ ही थपथपाती।
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