पूर्णिमा दास
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चंपाई सोरेन
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चुनाव आयोग की टीम का सर्वे ख़त्म होते ही भारतीय जनता पार्टी ने हरियाणा चुनाव का अपना अभियान शुरू कर दिया है। बाक़ी देश में भाजपा भले ही राम के नाम पर चुनाव जीतती हो लेकिन हरियाणा में उसकी प्राथमिकता राम नहीं, राम-रहीम हैं। इसलिए हमेशा की तरह चुनाव आते ही बलात्कार और हत्या के आरोपों में आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह को फर्लो पर 21 दिन की रिहाई दे दी गई है। यह सब इस उम्मीद में हुआ है कि इन 21 दिनों में गुरमीत राम रहीम अपना जन्मदिन मनाएंगे और भाजपा के लिए हरियाणा विधानसभा के चुनाव और उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में वोट जुटाएंगे।
यह सब तब हुआ है जब अभी चुनाव की तारीख़ें घोषित नहीं हुई हैं। भाजपा ने टिकट बांटने का काम प्रारंभ होने के संकेत नहीं दिए हैं। नेताओं के चुनावी दौरे शुरू नहीं हुए हुए हैं। पार्टी चुनाव किन मुद्दों पर लड़ेगी, यह भी अभी साफ नहीं है। एक तरह से भाजपा का पहला चुनावी दांव राम-रहीम को दी जाने वाली फर्लो ही है।
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पार्टी ने प्रदेश का मुख्यमंत्री बदल कर यह उम्मीद बांधी थी कि इसी के सहारे लोकसभा और विधानसभा दोनों ही चुनावों में उसकी नैया पार लग जाएगी। नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाकर पार्टी को लग रहा था कि पिछड़ों का समीकरण उसे चुनाव में जीत दिला देगा। लेकिन चुनाव प्रचार जब आगे बढ़ा तो इन उम्मीदों पर पानी फिरता दिखाई दिया।
लोकसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही बराबर 5-5 सीटें मिलीं। वोट प्रतिशत को पहली नजर में देखें तो लग सकता है कि भाजपा को कांग्रेस से कुछ ज्यादा वोट मिले। लेकिन सच यह है कि कांग्रेस ने सिर्फ नौ सीटों पर ही चुनाव लड़ा था। कुरुक्षेत्र की सीट पर उसने आम आदमी पार्टी का समर्थन किया था। अगर उन वोटों को भी कांग्रेस के खाते में जोड़ दिया जाए तो प्रतिशत के मामले में कांग्रेस भाजपा से आगे पहुंच जाती है।
क्या राम-रहीम के असर के सहारे भाजपा इस चुनौती से पार पा सकती है? इस साल के शुरू में जब आम चुनाव की तैयारियां चल रही थीं तो डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख को 50 दिन लंबी फर्लो इसी उम्मीद में दी गई थी कि उनका असर पार्टी के काम आएगा। क्या वह सचमुच काम आया?
डेरा सच्चा-सौदा का मुख्यालय हरियाणा के सिरसा जिले में है। यह उनके असर का सबसे बड़ा इलाका भी है। इसके अलावा पंजाब के मालवा इलाके और राजस्थान व पश्चिम उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में भी उनका प्रभाव बताया जाता है।
हम पहले सिरसा को ही लेते हैं। यह धारणा है कि कुछ महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में डेरा सच्चा सौदा के अनुयाई भाजपा को वोट डाल रहे थे। लेकिन जब नतीजे आए तो कांग्रेस की कुमारी शैलजा ने वहां भाजपा उम्मीदवार को दो लाख 68 हजार से भी ज्यादा वोटों से हराया।
एक दूसरा उदाहरण पंजाब के शिरोमणि अकाली दल का है। 2017 के विधानसभा चुनाव में अकाली दल ने गुरमीत राम रहीम से काफी उम्मीद बांधी थी। प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर बादल ने उनसे मुलाकात भी की थी। यही नहीं, बादल के असर में सिखों के धार्मिक नेतृत्व ने भी राम रहीम के खिलाफ दिए गए फैसले को वापस ले लिया था। नतीजा यह हुआ कि अकाली दल आज तक पंजाब की सत्ता में लौट नहीं पाया। हालत यहां तक पहुंच गई है कि सुखबीर सिंह बादल को इसके लिए अकाल तख्त में हाजिर होकर माफी भी मांगनी पड़ी है।
बेशक कई तरह से एक खास आबादी पर राम रहीम का असर है लेकिन उसके वोटों में बदलने का कोई उदाहरण हमारे सामने नहीं है। गुरमीत राम रहीम सिंह राजनीति की एक पिटी हुई लकीर हैं। भाजपा की दिक्कत यह है कि उसके पास इसके ज्यादा विकल्प भी नहीं हैं।
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