सुप्रीम कोर्ट ने तीस्ता सीतलवाड़ के मामले में गुरुवार को गुजरात पुलिस और सरकार से तीखे सवाल किए। एक समय ऐसा भी आया जब अदालत ने कहा कि क्यों न तीस्ता सीतलवाड़ को अंतरिम जमानत दे दी जाए। सरकार के सॉलिसिटर जनरल के बार-बार आग्रह पर सुप्रीम कोर्ट ने 2 सितंबर को इस मामले की फिर सुनवाई करने का फैसला किया है।
लाइव लॉ के मुताबिक एक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड़ 2002 के गुजरात दंगों से जुड़े मामले में कथित साजिश के आरोप में 25 जून से हिरासत में है। कोर्ट रूम में 1 सितंबर गुरुवार को सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस यूयू ललित और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के बीच तीखी बहस हुई। सुनवाई के एक बिंदु पर भारत के चीफ जस्टिस ललित की बेंच ने यह भी संकेत दिया कि वह तीस्ता सीतलवाड़ को अंतरिम जमानत देगी, लेकिन अंततः एसजी तुषार मेहता द्वारा किए गए बार-बार अनुरोध पर सुनवाई को कल दोपहर 2 बजे के लिए स्थगित कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट में गुरुवार शाम को सीजेआई के अलावा जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस सुधांशु धूलिया की बेंच ने तीस्ता सीतलवाड़ की याचिका पर सुनवाई शुरू की। इसमें गुजरात हाईकोर्ट के अंतरिम जमानत देने से इनकार करने को चुनौती दी गई है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले की चार या पांच बातें हमें परेशान कर रही हैं। बेंच ने उन बातों की ओर इशारा भी किया:
- याचिकाकर्ता 2 महीने से अधिक समय से हिरासत में है। कोई चार्जशीट दाखिल नहीं की गई है।
- सुप्रीम कोर्ट द्वारा जकिया जाफरी के मामले को खारिज करने के अगले ही दिन एफआईआर दर्ज की गई और एफआईआर में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों के अलावा और कुछ नहीं बताया गया है।
- गुजरात हाईकोर्ट ने 3 अगस्त को तीस्ता की जमानत याचिका पर नोटिस जारी करते हुए एक लंबा स्थगन दिया, यानी जमानत याचिका पर 6 हफ्ते बाद सुनवाई रखी गई।
- कथित अपराध हत्या या शारीरिक चोट की तरह गंभीर नहीं हैं बल्कि अदालत में दायर दस्तावेजों की कथित जालसाजी से संबंधित हैं।
- यह ऐसा कोई अपराध नहीं है जो जमानत देने पर रोक लगाता है।
सुनवाई के दौरान सीजेआई यूयू ललित, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल (तीस्ता की ओर से) और एसजी तुषार मेहता के बीच तीखी बहस हुई। चीफ जस्टिस ललित ने भी मौखिक रूप से टिप्पणी की कि तीस्ता के खिलाफ आरोपित अपराध सामान्य आईपीसी अपराध हैं, जिनमें जमानत देने पर कोई रोक नहीं है। चीफ जस्टिस के शब्दों में -
“
इस मामले में कोई अपराध नहीं है जो इस शर्त के साथ आता हो कि यूएपीए, पोटा की तरह जमानत नहीं दी जा सकती है। ये सामान्य आईपीसी अपराध हैं ... ये शारीरिक अपराध वाले अपराध नहीं हैं, ये अदालत में दायर दस्तावेजों के अपराध हैं। इन मामलों में , सामान्य विचार यह है कि पुलिस हिरासत की प्रारंभिक अवधि के बाद, ऐसा कुछ भी नहीं है जो जांचकर्ताओं को हिरासत के बिना जांच करने से रोकता है ... और 468 जनादेश के अनुसार, एक महिला अनुकूल तरफदारी की हकदार है।
-चीफ जस्टिस यूयू ललित, सुप्रीम कोर्ट 1 सितंबर गुरुवार को
सीजेआई इतना ही कहकर चुप नहीं हुए। उन्होंने आगे कहा, - एफआईआर में जैसा कि कहा गया है, कोर्ट में जो कुछ हुआ है, उससे ज्यादा कुछ नहीं है। तो, क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अलावा कोई अतिरिक्त सामग्री आपके पास है? पिछले दो महीनों में, क्या आपने चार्जशीट दायर की है या जांच चल रही है। पिछले दो महीनों में आपको क्या सामग्री मिली है? नंबर एक, महिला ने दो महीने की हिरासत पूरी कर ली है। नंबर 2, आपसे हिरासत में पूछताछ की गई है। क्या इससे आपको कुछ पता चला है?
चीफ जस्टिस ने हैरानी जताते हुए कहा- "इस तरह के मामले में, हाईकोर्ट 3 अगस्त को नोटिस जारी करता है और 19 सितंबर तक जवाब मांगता है? सीजेआई ने आश्चर्य से पूछा कि क्या गुजरात हाईकोर्ट में यह स्टैंडर्ड प्रेक्टिस है। हमें एक ऐसा मामला दें, जहां एक महिला इस तरह के मामले में शामिल रही हो और हाईकोर्ट ने 6 सप्ताह में जवाब मांगा हो?
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने जवाब दिया, "किसी भी महिला ने इस तरह के अपराध नहीं किए हैं।" बेंच ने सॉलिसिटर जनरल के तर्क के जवाब में हाईकोर्ट द्वारा दिए गए लंबे स्थगन के बारे में टिप्पणी की कि यह एक असाधारण मामला नहीं था जहां सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना चाहिए। इसने अंतरिम जमानत देने और गुण-दोष के आधार पर मामले की सुनवाई जारी रखने की भी इच्छा व्यक्त की।
सीजेआई ने कहा कि आपकी शिकायत में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ज्यादा कुछ नहीं है। इसलिए, अगर 24 जून को फैसला आया है, तो 25 वीं को शिकायत खत्म हो गई है। जिस अधिकारी ने शिकायत की है, उसने एक दिन के भीतर शिकायत दर्ज की गई ... यही चार या पांच बातें हैं जो हमें परेशान करती हैं।
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