पिछले साल 16 जुलाई को आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस (एआई) दिवस मनाते हुए भारत सरकार के स्किल डेवलपमेंट मंत्रालय ने बताया कि देश आने वाले दिनों में दुनिया का “एआई पावरहाउस” बनने जा रहा है. लेकिन केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय के यूडीएसआईई (एकीकृत जिला सूचना सिस्टम) जिसे काफी विश्वसनीय माना जाता है, की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार देश में बच्चों के स्कूल दाखिले की संख्या मिडिल और सेकेंडरी स्तर पर घट गयी है. यही नहीं वर्ष 2020-21 के 15.09 लाख के मुकाबले स्कूलों की संख्या भी लगातार तीन वर्षों में कम हुई हालांकि वर्ष 2023-24 में वर्ष 2022-23 के 14.66 लाख से थोडा बढ़ कर 14.71 हो गयी.
किसी भी विकासशील देश में शिक्षा के प्रति रुझान उसके आगे बढ़ने की पूर्व शर्त होती है. दूसरी इसी से सम्बंधित कड़ी होती है शिक्षा की गुणवत्ता. इसके लिए हर प्रजातान्त्रिक-कल्याणकारी सरकार इस मद में खर्च बढाती है. चीन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. वैसे भी बढ़ती जनसँख्या, जीडीपी में पांचवां स्थान और बेहतर सामाजिक सोच से शिक्षार्थियों की संख्या हर साल बढ़नी चाहिए. लेकिन यूडीआईएसई आंकडे बताते हैं कि वर्ष 2022-23 और 2023-24 के बीच जहाँ प्री-प्राइमरी पंजीयन संख्या 1.01 करोड़ से बढ़ कर 1.30 करोड़ थी, वहीँ स्कूल स्तर पर यह संख्या 25.17 करोड़ से घट कर 24.80 करोड़ हो गयी.
आखिर क्या कारण है कि इस एक साल में मिडिल और सेकेंडरी स्तर तक जाते-जाते ड्रॉपआउट रेट क्रमश 5.2 और 10.9 प्रतिशत बढ़ गया? उधर देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री की हीं नहीं देश के प्रधानमंत्री की प्राथमिकता “बंटेगे तो कटेंगें” जैसे विभाजनकारी नारों पर रही. इसका दूसरा मतलब यह भी है कि अभिभावक बच्चों को पढ़ाने की भरसक कोशिश तो करते हैं लेकिन गरीबी की कारण बच्चों को किशोरावस्था में ही आजीविका में लगाना उनकी मजबूरी हो जाती है.
बताया जाता है कि देश में डेमोग्राफिक डिविडेंड (सांख्यिकी लाभांश) का काल है जो अगले 12 वर्षों के बाद कम होने लगेगा. आज जो किशोर मिडिल या उच्च स्तर की पढाई से विमुख हो गया है वही तो आने वाले 30-40 वर्षों तक देश के उत्पादक शक्ति का हिस्सा बनेगा. क्या प्राइमरी तक शिक्षा पाए कार्य-शक्ति से हम एआई में शिरकत की उम्मीद कर सकते हैं? आखिर स्कूलों की घटती संख्या क्या भारत को दुनिया में एआई का पावरहाउस बनाने जा रही है. सरकार यह भी नहीं कह सकती कि स्कूलों को बंद करना उनके अनुत्पादक और गैर-जरूरी होने के कारण किया गया क्योंकि तब 2023-24 में संख्या बढ़ाई क्यों?
इस रिपोर्ट से यह भी साबित होता है कि गरीब भी अपने बच्चों को शिक्षा तो देना चाहता था (क्योंकि प्री-प्राइमरी में दाखिला बढ़ा) लेकिन उसने यह माना कि साइकिल का पंक्चर जोड़ने का अनौपचारिक स्किल उसके आजीवन रोजी की गारंटी है जबकि शिक्षा से रोजगार की गारंटी नहीं है. इसीलिए उसने किशोर वय के अपने बच्चों को छोटे-मोटे काम में या घरेलू व्यवसाय में लगाना बेहतर समझा. ये आंकड़े दो और नए संकट की ओर इंगित करते हैं. पहला, प्री-प्राइमरी में पंजीयन बढ़ना याने आबादी के अनुरूप बच्चे बढे हैं और अभिभावकों में बच्चों को पढ़ाने के प्रति रुझान भी बढ़ा है और दूसरा, मिडिल और इंटरमीडिएट स्तर तक पहुँचने पर ड्राप-आउट संख्या बढ़ना या तो शिक्षा के प्रति किशोरों अभिभावक और बच्चों की उदासीनता के कारण है या आर्थिक विपन्नता की वजह से.
इन आंकड़ों के तुलनात्मक अध्ययन से सामान्य समझ वाला व्यक्ति भी बता सकता है कि क्यों सरकारी रोजगार के आंकड़ों में “अनपेड फेमिली वर्क” में रोजगार की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है. देश को एआई में विश्व का पावरहाउस बनाने के दावे करने वाली सरकार इसे रोजगार के मोर्चे पर बड़ी उपलब्धि बता रही है लेकिन सच यह है कि अच्छे रोजगार की कमी से मां-बाप बच्चों को भी छोटे-मोटे काम पर लगा देते हैं या घर के कामकाज जैसे दूध या खेती के काम में हाथ बंटाने की ओर उन्मुख करते हैं.
“विश्व गुरु” भारत ताइवान और अमेरिका के तमाम कॉर्पोरेट घरानों को भारत आने का इसरार करता रहा लेकिन इक्का-दुक्का छोटी कंपनियों के अलावा किसी भी टेक्नॉलजी की बड़ी कंपनी से निवेश नहीं किया. जिन कंपनियों ने आने का उपक्रम किया वे भी केवल फाउंडरी तक ही महदूद रहीं. किसी ने मशीन लर्निंग या 9 नैनो-मीटर से कम के चिप बनाने में तत्परता नहीं दिखाई.
हाल में गूगल ने “विलो” नामक नया “क्वांटम” चिप ला कर तकनीकी दुनिया में नयी क्रांति का आगाज किया जिसे सुनकर एलोन मास्क को भी कहना पडा, “ओह”. क्वांटम कंप्यूटिंग तकनीकी के इस पदचाप के बाद और एआई के दौर में जो काम तेज सुपर कंप्यूटर कर सकता था उससे करोड़ों हिस्सा कम समय में क्वांटम कंप्यूटिंग के जरिये किया जा सकेगा. तभी तो चीन ने इस ज्ञान के लिए दो साल पहले 15 बिलियन डॉलर खर्च करने की घोषणा की थी जबकि अमेरिका ने तीन बिलियन और यूरोपियन यूनियन ने आठ बिलियन.
भारत क्यों फिसड्डी?
नई शिक्षा-नीति में भी अनेक दावे किया गए लेकिन उसके शुरूआती दौर में समाज की शिक्षा के प्रति गिरता रुझान अ-विकास वाले भविष्य की नयी इबारत लिख रहा है. खोखले नारों से या “बंटेंगे तो कटेंगें” के उन्मादी भाव को गढ़ के सरकार लोगों की समझ को जड़ता की गर्त में धकेल रही है ताकि सत्य कहीं दूर खडा रहे. (लेखक एन के सिंह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) के पूर्व महासचिव हैं)
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