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कानूनी नुक्ताः सुप्रीम कोर्ट v/s BNSS, अब 14 दिनों की जांच के बाद FIR, पहले क्या था?

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1973 की जगह ले ली है। इसके दो महत्वपूर्ण बदलावों पर ध्यान देना जरूरी है। नया बीएनएस कानून बता रहा है कि संज्ञेय मामलों में पुलिस को एफआईआर दर्ज करने से पहले 14 दिनों तक जांच का अधिकार है। साथ ही किसी आरोपी के खिलाफ मामला बनाने से पहले ही उसकी सुनवाई का अधिकार है। यानी 14 दिनों में पुलिस आरोपी से उसका पक्ष जानेगी, अपनी जांच करेगी और तब उसके बाद एफआईआर दर्ज होगी।

नया बीएनएसएस कानून कहता है कि धारा 173 (3) के तहत संज्ञेय अपराधों में जहां सजा तीन साल से अधिक लेकिन सात साल से कम है, एक पुलिस अधिकारी को प्रारंभिक जांच करने के लिए 14 दिन की अनुमति है। उसके बाद वो एफआईआर दर्ज करे और फिर मामले की जांच आगे बढ़ाए। लेकिन उसे अपराध की प्रकृति और गंभीरता पर विचार करते हुए ऐसा करना होगा। उसे शुरुआती जांच करने के लिए तभी आगे बढ़ना है कि क्या 14 दिनों के अंदर मामले में आगे बढ़ने के लिए पहली ही नजर (प्रथम दृष्टया) में केस बनता है।

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सुप्रीम कोर्ट के निर्देश क्या हैं

बीएनएसएस में यह बदलाव सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के खिलाफ है। यह बदलाव ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में 2013 के सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के भी खिलाफ है। जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा है कि पुलिस के लिए एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य है। बिना देरी के एफआईआर दर्ज करना ललिता कुमारी गाइडलाइंस के बाद से कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा बार-बार दोहराया गया एक निर्देश है।

पुलिस अनुसंधान और विकास ब्यूरो का कहना है कि “ललिता कुमारी फैसले में कहा गया है कि यदि जानकारी से संज्ञेय अपराध का पता चलता है तो एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए, और शुरुआती पूछताछ सिर्फ यह तय करने की अनुमति देती है कि संज्ञेय अपराध का खुलासा हुआ है या नहीं। बीएनएसएस इस दायरे का विस्तार करता है। बीएनएसएस के तहत, यह तय करने के लिए शुरुआती जांच की जाती है कि क्या तीन साल या उससे अधिक लेकिन सात साल से कम कारावास की सजा वाले अपराधों के लिए प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं। यह ललिता कुमारी दिशानिर्देशों के विपरीत है। ललिता कुमारी फैसले में वैवाहिक विवादों, कारोबारी अपराधों और मेडिकल लापरवाही जैसे मामलों में तो फौरन एफआईआर का आदेश था। लेकिन अब कोई महिला दहेज उत्पीड़न या मेडिकल लापरवाही की एफआईआर कराने जाती है तो नए बीएनएसएस कानून के तहत पुलिस आरोपी पति, सास-ससुर, देवर, ननद या किसी डॉक्टर-अस्पताल के खिलाफ तभी एफआईआऱ करेगी, जब वो 14 दिनों की जांच के बाद संतुष्ट होगी।

बीएनएसएस में आरोपी की सुनवाई का अधिकार जैसा महत्वपूर्ण बदलाव किया गया है। सीआरपीसी की धारा 200 का संज्ञान लेते समय मैजिस्ट्रेट द्वारा शिकायतकर्ता की जांच से संबंधित प्रक्रिया तय होती है। इसमें कहा गया है कि संज्ञान लेने वाला मैजिस्ट्रेट शिकायतकर्ता की जांच करने के बाद ही ऐसा कर सकता है। यानी कथित अपराध का संज्ञान लेने के बाद ही आरोपी को औपचारिक रूप से बुलाया जाएगा।

बीएनएसएस की धारा 223 में एक अजीब प्रावधान जोड़ा गया है। इसमें कहा गया है, ''किसी अपराध का कोई भी संज्ञान अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिए बिना मैजिस्ट्रेट द्वारा नहीं लिया जाएगा।'' इसका मतलब यह है कि कोई मैजिस्ट्रेट आरोपी को सुने बिना किसी अपराध का संज्ञान भी नहीं ले सकता। यह एक नया प्रावधान है। क्योंकि पहले के प्रावधान आरोपी को संज्ञान लिये जाने के बाद भी दस्तावेज पेश करने की अनुमति नहीं देता था।

सुप्रीम कोर्ट ने 2004 में उड़ीसा राज्य बनाम देबेंद्रनाथ पाधी मामले में अपने फैसले में कहा था कि मुकदमे के आरोप तय करने के चरण के दौरान आरोपी को अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए दस्तावेज पेश करने का अधिकार नहीं है। जज केवल अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत मैटिरियल पर विचार कर सकता है। ताकि आरोप निर्धारण चरण में मिनी ट्रायल से बचा जा सके।

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बीएनएसएस प्रावधान जज के लिए उन अपराधों में संज्ञान लेने की गुंजाइश को भी प्रतिबंधित करता है जहां आरोपी एक सरकारी अधिकारी/कर्मचारी (लोक सेवक) है और आरोप है कि अपराध उसके आधिकारिक कार्य के की जिम्मेदारी निभाने के दौरान किया गया है। जज ऐसे मामलों में  "तब तक" संज्ञान नहीं ले सकता, जब तक आरोपी लोक सेवक को "उस स्थिति के बारे में दावा करने का अवसर नहीं दिया जाता जिसके कारण यह कथित घटना हुई" और उसका वरिष्ठ अधिकारी घटना के तथ्यों और परिस्थितियों वाली एक रिपोर्ट पेश नहीं करता है। यानी किसी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी पर कोई आरोप लगाया जाता है कि उसने सरकारी ड्यूटी पर रहते हुए ऐसा कृत्य किया है। लेकिन वो सरकारी अधिकारी या कर्मचारी आरोप को स्वीकार नहीं करता तो जज उसे संज्ञेय अपराध की श्रेणी में नहीं ले सकता। साथ ही उस कर्मचारी या अधिकारी से ऊपर के अधिकारी की रिपोर्ट भी ऐसे मामलों में देखी जाएगी। आमतौर पर सरकारी अधिकारी अपने ही लोगों को सबसे पहले बचाते हैं। ऐसे में बीएनएस कानून की इस कमजोरी का फायदा हर कोई उठाएगा। 

कुल मिलाकर बीएनएसएस कानून में कोई पेचीदगियां सामने आ गई हैं। वक्त के साथ जब इनमें संशोधन होंगे तभी नया कानून स्पष्ट हो सकेगा। अदालतों में वकील और जजों के बीच बीएनएसएस के प्रावधान टकराव और बढ़ाएंगे।
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क़मर वहीद नक़वी
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