राजदीप सरदेसाई की गिनती देश के बड़े पत्रकारों में होती है। वे मूलतः अंग्रेज़ी में लिखते हैं पर पढ़े हिंदी में ज़्यादा जाते हैं। अंग्रेज़ी के अधिकांश पत्रकारों की पाठकों के क्षेत्र में निर्भरता हिंदी पर ही है। राजदीप एक सम्पन्न, विनम्र और ‘सामान्यतः’ व्यवस्था विरोधी पत्रकार माने जाते हैं। उन्हें मैदानी पत्रकारिता की भी समझ है क्योंकि ज़रूरत पड़ने पर पैदल भी चल लेते हैं। राजदीप को इस समय अपने ताज़ा आलेख के कारण चर्चा में होना चाहिए पर लगता नहीं कि ऐसा हो पा रहा है।
हिंदी के एक अख़बार में प्रकाशित उनके आलेख से यह ध्वनि निकलती है कि किसान आंदोलन में उद्योगपति अंबानी और अडानी को बेवजह घसीटा गया है जबकि ऐसा किए जाने का कोई कारण नहीं बनता।
राजदीप यह भी कहते हैं कि राहुल गांधी के नेतृत्व में अंबानी-अडानी पर हमला काफ़ी पाखंडपूर्ण लगता है और यह भी कि आज देश के दो सबसे अमीर व्यापारिक समूहों को राजनीतिक विवाद से बचने में परेशानी हो रही है। उनके टावरों को नुक़सान पहुँचाया जा रहा है और उनके उत्पादों का बहिष्कार हो रहा है।
राजदीप के अनुसार, कृषि सुधारों के लागत-लाभ विश्लेषण पर ध्यान देने की जगह उद्योगपतियों को बदनाम करने की राजनीति पुनर्जीवित हो गई है।
राजदीप के मुताबिक़, विरोध के कारण अंबानी-अडानी समूहों को सार्वजनिक बयान जारी करना पड़ा कि उनकी भविष्य में कांट्रैक्ट फ़ार्मिंग में आने की कोई योजना नहीं है। राजदीप का पूरा आलेख दोनों उद्योगपतियों की ओर से स्पष्टीकरण में लिखा गया की ही ध्वनि उत्पन्न करता है।
संयोग ही कह सकते हैं कि अख़बार के जिस दिन के संस्करण में एक प्रमुख स्थान पर राजदीप का आलेख प्रकाशित हुआ उसी में एक दबी हुई जगह पर किसानों के आईटी सेल के प्रभारी से साक्षात्कार भी है जिसमें उन्होंने कर्नाटक के रायचूर में ग्यारह सौ किसानों के साथ रिलायंस की कांट्रेक्ट फ़ार्मिंग की डील और हरियाणा के पानीपत में बन रहे अडानी के कोल्ड स्टोरेज सिस्टम की जानकारी दी है।
राजदीप के आलेख से इस तरह का संदेश जाने का ख़तरा है कि किसान अंबानी-अडानी का बेवजह ही विरोध कर रहे हैं।
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किसानों या देश के सामान्य नागरिकों को कांट्रैक्ट फ़ार्मिंग से डर नहीं लगता। डर इस बात का है कि हुकूमतें धीरे-धीरे ‘कांट्रैक्ट पॉलिटिक्स’ की तरफ़ बढ़ती नज़र आ रही हैं।
ज़मीनों के अधिग्रहण की बारी
टेलीकॉम, फ़ार्मेसी, पेट्रोलियम, रेलवे, हवाई सेवाएँ, हवाई अड्डों और शेयर बाज़ार आदि के ज़रिए अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण के बाद ‘सरप्लस’ पूँजी का इस्तेमाल अब ज़मीनों के अधिग्रहण में किया जा रहा है और यह काम सरकारों की सहमति से ही सम्पन्न हो रहा है। एक गरीब अथवा विकासशील देश में सम्पन्नता को देखने का नज़रिया अमेरिकी नहीं हो सकता।
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ट्रंप और मोदी
अमेरिकी मतदाता जब पहली बार डोनल्ड ट्रंप को अपना राष्ट्रपति चुन रहे थे तब वे अच्छे से जानते थे कि राष्ट्र की सत्ता एक निर्मम राष्ट्रवादी खरबपति के हाथों में सौंप रहे हैं किसी ग़रीब के बेटे अब्राहम लिंकन को नहीं। पर जब भारत राष्ट्र के नागरिक नरेंद्र मोदी के हाथों में पहली बार सत्ता थमा रहे थे तब उनमें ऐसा यक़ीन बैठाया गया था कि उनका राष्ट्र-निर्माता गुजरात के एक छोटे से रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने वाले का बेटा है जो ग़रीबी और संघर्ष दोनों को ही ईमानदारी से समझता है।
नागरिक की नाराज़गी उस वक्त फूट पड़ती है जब उसे लगने लगता है कि उससे अपने नेतृत्व को ठीक से समझने में त्रुटि हो गई है। नागरिक अपनी माँगों को लेकर जिस नेतृत्व के साथ संवाद में रहते हैं और जब उसके ख़िलाफ़ नारे नहीं लगाना चाहते तो वे उन ‘संवैधानेत्तर’ व्यक्तियों अथवा संस्थाओं का विरोध करने लगते हैं जो उस कालखंड विशेष में सत्ता का प्रतीक बन जाती हैं।
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अतीत में इस तरह के सारे विरोधों के केंद्र में टाटा-बिड़ला घराने हुआ करते थे। इस समय दोनों का ही ज़िक्र नहीं होता। ज़िक्र इस बात का भी किया जाना ज़रूरी है कि गुजरात के ही महात्मा गांधी जब आज़ादी का आंदोलन चला रहे थे तब उन पर अंग्रेजों की तरफ़ से भी ऐसे आरोप नहीं लगे होंगे कि वे घनश्याम दास बिड़ला या जमना लाल बजाज के व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए अहिंसक संघर्ष कर रहे हैं। इस समय दिक़्क़त इस बात से हो रही है कि जिस सरकार ने गांधी का चरखा हाथ में लेकर जन्म लिया था उसी ने बापू के ‘हिंद स्वराज’ को बुलेट ट्रेन पर लाद दिया है।
भय केवल कांट्रैक्ट फ़ार्मिंग को लेकर नहीं बल्कि इस बात को लेकर है कि देश की सर्व साधन-सम्पन्न आर्थिक सत्ताएँ सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र की उसकी तमाम जिम्मेदारियों से धीरे-धीरे अपदस्थ कर छद्म तरीक़ों से राजनीति पर भी अपना क़ब्ज़ा जमा सकती हैं।
यह अब पुराना अनुभव हो चुका है कि किस तरह व्यावसायिक सत्ताओं के प्रतिनिधियों का राज्यों में वोटों की ख़रीद-फ़रोख़्त के ज़रिए अथवा तत्कालीन सरकारों की सहमति से संसद के उच्च सदन में प्रवेश होता है, किस तरह से ‘प्रश्नोत्तर काल’ का उपयोग व्यावसायिक हितों के लिए किया जाता है, कैसे ये नुमाइंदे विभिन्न संसदीय समितियों में प्रवेश कर नीतियों को ‘प्रभावित’ या ‘अप्रभावी’ करते हैं।
राजदीप अंबानी-अडानी को हो रहे नुक़सान की चर्चा करते हुए इस बात का ज़िक्र नहीं कर पाए कि किसी भी आंदोलन का इतना लंबा चलना क्या यह संकेत नहीं देता कि सरकार के वास्तविक इरादों के प्रति किसानों का संदेह वास्तविकता में तब्दील होता जा रहा है!
अंबानी-अडानी को उनकी अकूत सम्पत्ति में केवल मुट्ठी भर अस्थायी नुक़सान हो रहा होगा कि उनके टेलीकॉम टावरों की तोड़-फोड़ और उत्पादों का बहिष्कार हो रहा है। पर यही बहिष्कार एक स्थायी राजनीतिक अविश्वास में बदलने दिया गया तो उसके परिणाम काफ़ी दूरगामी और संसदीय प्रजातंत्र को कमज़ोर करने वाले साबित हो सकते हैं।
मैच में ‘बाधा’ पर खेद
एक ऐसे समय में जब पंजाब की कप्तानी में किसान ‘बाधा दौड़’ का स्वर्ण पदक जीतने में लगे हैं, एक क्रिकेट कमेंटेटर का इस बात पर खेद व्यक्त करना कि इसके कारण मोहाली स्टेडियम के मैच में ‘बाधा’ पड़ रही है और कुछ पूँजीपति टीम मालिकों को नुक़सान हो रहा है, परेशान करने वाला है। हो सकता है कि राजदीप को आलेख जल्दबाज़ी में लिखना पड़ा हो। वे चाहें तो एक और आलेख किसानों को उनके ही आंदोलन के कारण हो रहे नुक़सान पर भी लिख सकते हैं।
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