केंद्र सरकार का यह झूठ एक बार फिर उजागर हो गया है कि अपने गृह राज्य लौट रहे प्रवासी मज़दूरों के भाड़ा का 85 प्रतिशत वह चुकाती है और शेष 15 प्रतिशत राज्य सरकारें चुका दें।
यह झूठ इस तरह सामने आया है कि प्रवासी मज़दूरों के घर लौटने के मुद्दे पर एक बेहद अहम फ़ैसले में गुजरात हाई कोर्ट ने कहा है कि या तो राज्य सरकारें उनका भाड़ा चुकाएँ या रेलवे उनका भाड़ा माफ़ करे।
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इसके पहले गुजरात सरकार ने अदालत से कहा था कि ये प्रवासी मज़दूर इस राज्य में अपने मर्ज़ी से आए हैं। इसलिए, इन पर अंतर-राज्य प्रवासी कामगार अधिनियम 1979 लागू नहीं होता है।
'अपनी मर्जी से आए'
गुजरात सरकार ने यह भी कहा कि इस वजह से विस्थापन भत्ता और यात्रा शुल्क के अधिकारी ये प्रवासी मज़दूर नहीं हैं।एडवोकेट आनंद याग्निक की याचिका पर गुजरात हाई कोर्ट में इसकी सुनवाई हुई। इस याचिका में प्रवासी मजदूरों को रेलवे भाड़ा दिलवाने की अदालत से गुज़ारिश की गयी थी।
क्या कहना है गुजरात सरकार का?
एडवोकेट आनंद याग्निक की याचिका पर गुजरात हाई कोर्ट में इसकी सुनवाई हुई। इस याचिका में प्रवासी मजदूरों को रेलवे भाड़ा दिलवाने की अदालत से गुज़ारिश की गयी थी।सरकार मुताबिक इस अधिनियम के तहत राज्य में 7,412 मज़दूर पंजीकृत हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार गुजरात में बाहर से आए हुए लगभग 22.5 लाख मज़दूर हैं। गुजरात सरकार का कहना है कि वे अपनी मर्ज़ी से और ख़ुद आए हैं, इसलिए अधिनियम की धारा 14 और 15 के तहत मिलने वाली सुविधाएँ उन्हें नहीं मिल सकतीं।
गुजरात में बाहर से आये मज़दूरों का बड़ा हिस्सा सूरत और इसके आसपास रहता है। इस इलाक़े में लगभग 11.50 लाख प्रवासी मज़दूर हैं।
गुजरात हाई कोर्ट का यह फ़ैसला न केवल गुजरात सरकार की अंसेवदनशीलता का पर्दाफास करता है बल्कि यह भी साबित करता है प्रवासी मज़दूरों के रेलवे भाड़े के मुद्दे पर केंद्र सरकार का रवैया गुमराह करने वाला था।
प्रवासी मज़दूरों के लिये विशेष ट्रेन चलाने पर जब उनसे किराया लेने का विवाद खड़ा हुआ था तो नरेंद्र मोदी सरकार के कई मंत्रियों और प्रवक्ताओं ने दावा किया कि 15% राज्य सरकार चुकायेंगी और बाकी 85% केंद्र चुकायेगा। यानी मज़दूरों को अपनी जेब से कोई पैसा नहीं देना होगा।
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